Sunday, June 21, 2020

On Father's day

My father visits my hostel at Navodaya school where I am studying in class 6. He meets my friend and starts talking to him. He was way more comfortable talking to other kids than his own kids. There was always some hesitation or you may call it protocol we followed, whatever it was, its hard to explain.

Anyway.. while I am away, he simply asks my friend, does he eat dinner at night or sleeps before that? My friend confirms him that indeed his son sleeps before dinner. In fact he sleeps before everyone in hostel. He is the one who is caught sleeping during study time everyday. My father is informed that his son can sleep within 2 seconds after lying on bed.. sometimes even bed is not required. He can sleep in any position.

My father listens to him with an expressionless face and says... Jab ye so jaaye to kam se kam kerosene lamp bed se hata dena aur dinner time per isko utha kar apne saath le jaana.. baaki sab theek hai..

He did not ask that I should be woken up if caught sleeping during study time. He just wanted to ensure that I don't miss my meals.. that was the level of expectation from me..



Was that his hopelessness or too much confidence in me.. I don't know.. I will never know. I never asked him and now can never ask either. Even if I meet him in other world that damn protocol will come in force anyway.. so the point is that if you have any question about yourself you want to ask and you have your father with you to answer that, you are lucky.. very very lucky.. So me wishing you happy father's day hardly matters.. Happy father's day everyone..


Friday, June 19, 2020

गांधी धुन का रीमिक्स

गांधी जी जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए, तो उनको उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले जी ने उनको पूरा देश घूमने की सलाह दी ताकि वह भारत को समझ सकें। यद्यपि 23 साल के अपने दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों को अच्छे से जान लिया था और उनके विरूद्ध संघर्ष में एक लंबा अनुभव प्राप्त कर लिया था, फिर भी भारत की विशेष परिस्थितियों को जानना आवश्यक था। एक वर्ष के भीतर ही गांधी जी समझ गए कि उनका सामना कैसी समस्या से पड़ा है। तत्कालीन भारतीय समाज दो वर्गो में विभाजित था। पहला शिक्षित वर्ग जिसने पाश्चात्य शिक्षा में दीक्षित होकर अपने आप को कदाचित अंग्रेजों का पक्षधर बना लिया था। अर्थात् यह वर्ग अंग्रेजों के व्हाइट मेंस बर्डेन वाले सिद्धांत को मानता था और यह सोचता था कि अंग्रेजों का यहां रहना हमारे लिए लाभप्रद है और उनके द्वारा ही भारत का विकास और कल्याण संभव है। दूसरा वर्ग था निरक्षर वर्ग को अंग्रेजों को अजेय मानता था और यह मानता था कि कोई अवतार आकर उनको इस अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाएगा। पहला वर्ग जहां मैकाले की शिक्षा नीति ( जिसके तहत एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना था जो देखने में भारतीय और सोच में अंग्रेज़ हो ) की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण था, वहीं दूसरा वर्ग चिर निद्रा में सोया भीरू समाज था जो दुश्मन को अजेय मानकर पहले ही हथियार डाल चुका था।



‌विरासत में मिली थकी हारी और गुटों में विभाजित कांग्रेस और उपर वर्णित भारतीय जनता के साथ गांधी जी को विश्व की सबसे बड़े साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ना था। गांधी जी समझ गए कि भारतीयों की इस मानसिकता से लड़े बिना जीत की आशा रखना व्यर्थ है। और यह भी समझ गए कि यह लड़ाई लम्बी चलेगी क्योंकि अंग्रेजों के साथ साथ भारतीयों की उस  मानसिकता से भी लड़ना है जो अंग्रेजों को अपना हितैषी या उसको अपराजेय मानती है।

‌ असहयोग आंदोलन हो , सविनय अवज्ञा हो या भारत छोड़ो आंदोलन इसके पीछे यही मानसिकता रही। और इन आंदोलनों के बीच गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम भी चलता रहा। चरखा के जरिए एक तरफ उन्होंने अंग्रेजों के कपास की मिलों पर हमला किया तो दूसरी तरफ अब तब आंदोलन से कटी रही महिलाओं के हाथ में अंग्रेजों की जड़ काटने की एक कुल्हाड़ी चरखे के रूप में दी। छुआछूत उन्मूलन कार्यक्रम और हरिजन बस्तियों के उद्धार कार्यक्रम से उनका सामाजिक सुधार कार्यक्रम तो चल ही रहा था। वर्धा योजना के तहत उनके बेसिक स्कूल खुले और सर्वांगीण शिक्षा पर बल दिया गया। लघु कुटीर उद्योगों की स्थापना और पंचायतों को स्वायत्त बना कर अंग्रेजों की जड़ काट डाली गयी। असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो , इन तीनों जन आंदोलन को देखें तो एक तरफ जहां एक आंदोलनों की आक्रामकता बढ़ती गई, वहीं नेतृत्व क्रमशः जनता के हाथों चला गया। भारत छोड़ो आंदोलन तो पूरी तरह एक जन आंदोलन बना जहां राजनीतिक नेतृत्व करीब करीब अनुपस्थित था। यह सर्वाधिक सफल आंदोलन बना।

‌अब इतनी बड़ी कथा सुनाने के बाद आपको यह ना लगे कि क्या करेंगे कक्षा 9 के इतिहास पढ़ के दुबारा। बात यह है कि कमोबेश आज देश में वही हालात हैं। देश में दो वर्ग हैं, पहला वो को चीन को अपना हितैषी मानता है और दूसरा वह जो यह मानता है कि चीन की बड़ी अर्थव्यवस्था के सामने हमारी अर्थव्यवस्था कुछ भी नहीं और हम उन पर अपनी निर्भरता कतई कम नहीं  कर सकते। हमारे उत्पाद, हमारी फैक्ट्रियां उनके मुकाबले कहीं नहीं ठहरती।

यकीन मानिए, हमारी स्थिति चीन कि अर्थव्यवस्था के सामने कमजोर जरूर है लेकिन उतनी भी नहीं जितनी 1920 में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के सामने थी, जब असहयोग आंदोलन चला रहा था। समय मानो फिर से लौट आया है। उस समय स्पेनिश फ्लू फैला था, आज कोवि़ड फैला है। उस समय सामने ब्रिटेन की बड़ी सेना और उनकी कंपनी थी, आज चीन और उसके सस्ते उत्पाद हैं। उस लड़ाई को असहयोग आंदोलन कहा गया, आज की लड़ाई को आत्मनिर्भर भारत कहा जा रहा है। लड़ाई हम उस समय भी जीते थे, अब भी जीत सकते हैं।

उस समय तो सीमा पर लड़ने के लिए हमारे पास सेना नहीं थी, आज तो वह भी है। काम आधा आसान है। सेना चीन को सीमा पर देख लेगी, जरूरत है कि बाकी जनता अपनी पराजय वादी मानसिकता को त्यागे और लग जाये इस राष्ट्रीय यज्ञ में।

हां लड़ाई लम्बी चलेगी। हमें चीन और अपनी मानसिकता दोनों से लड़ना है, देश का पुनर्निर्माण करना है। ओप्पो के सारे फोन 1 मिनट में बुक हो गए, हार गई देशभक्ति। ऐसे समाचार सुन कर निराश ना हों। उस समय भी विदेशी शराब और कपड़ों की दुकान के सामने पिकेटिंग करनी पड़ती थी। बदलाव में समय लगता है।

सती प्रथा के विरोध में जो ज्ञापन राजा राम मोहन राय ने विलियम बेंटिक को सौंपा था उसमें सिर्फ 700 हस्ताक्षर थे। सती प्रथा के समर्थन में राधाकांत देब ने 30 हजार हस्ताक्षर वाला ज्ञापन गवर्नर जनरल को सौंपा था। जीत राजा राम मोहन राय की हुई क्यूंकि उनके साथ सत्य की शक्ति थी, देश उद्धार का शक्तिशाली स्वप्न था।

यह लड़ाई भी हम जीत सकते हैं। यह काम भारत की संयुक्त जनता ही कर सकती है। हमें सिर्फ नारों पर नहीं एक समेकित कार्यक्रम पर काम करना होगा । इसमें हमारी कृषि, हमारे उद्योग, हमारी शिक्षा, हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं और भी बहुत कुछ सब पर कार्य करना होगा। इतना सारा काम बिना जन आंदोलन के संभव नहीं,  एक आदमी से तो बिलकुल भी नहीं।

इसमें वक़्त लगेगा, लेकिन अच्छी बात यह है कि हमारे इस स्वप्न गीत की धुन बापू बना कर गए हैं। हमें सिर्फ उसका रीमिक्स बना ना है, फिर तो हम चीन का वो बैंड बजाएंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी।

जय हिन्द। 

Wednesday, June 17, 2020

You had me at Mao

I may sound cynical and anti-national but the fact is  that I have lost faith in our armies and govt in handling China issue. Our best hope now are our Indian communists and Maoists.

Time for Indian armies and MEA to take a step back. Let our communists handle the situation on the border. Let them lead the negotiations talks. I am sure the moment they start the negotiations with phrases like Hail Mao and Hello comrades, 'You complete me',  the hearts of their Chinese counterpart will melt like hot butter.  As happened in Jerry Maguire, Chinese will say 'Shut up.. You had me at Mao'. I am sure once Indian communists delegation come out of that negotiation meeting not only they will return with full Aksai Chin area but they will bring the corona vaccine with them which China has manufactured but not willing to share. 

God forbid, due to RSS conspiracy, if these negotiations fail, our communists are best positioned to handle Chinese armies as well. They have been preparing for war in Baster and Dantewada for decades. Time to put that net practice into real match. Even before Chinese army will realize, all their trucks will go in air after landmine blasts.


 Since we will have a neutral and moral force at our borders, they will give all proofs immediately after the attack is done. Honestly, all people with heart of a closet communist like me, we are expecting a live telecast of these Baster themed attack on Chinese army with proper commentary so that all people in India know, what they deserve to know about the military operations going on. Unfortunately our armies and present government are completely incapable of doing all these. 

‌Desperate times ask for desperate measures. #ModiMustResign #YechuriMustLead #KanhaiyaOnlyHope #TheWireIsTheFire

Message composed on my Xiaomi phone.

Tuesday, June 16, 2020

Stick to the basics ... With Love, from Chankya

Three disclaimer before you read this long post..
a) I am not an international relations expert. These thoughts at best should be taken as that of an amateur enthusiast.
b) I have not read the book referred to here in this article but all the references here are based on publicly available information on blogs and expert interviews.
c) bit odd it may sound, but I am writing this in English just to ensure its reach to a particular section of people who need to read this but aren't very much comfortable in Hindi. I will try to come up with a Hindi translation of this text given the time available. So here we go..

As our ancient texts says there are four aspects of human life.. Dharm, Arth, Kaam and Moksha. People in India are somewhat aware of our Dharm shashtras. They somewhat know what good bad evil traits are, What is permitted as moral behaviour and what is Paap and what is Punya. Since Moksha is not for common men, it is not even expected that a common man will know about Moksha. Thats a niche area and only sages are expected to know that.

Sad part is our ignorance towards shashtras related to Arth and Kaam. Situation is that we learn about Kaamsutra, our text around Kaam, from a semi porn erotic movie and rest of the our public knowledge comes from some pulp magazines hidden in our closets. Most of the our young generation think Of kaamsutra as an erotic text like Playboy. But thats a topic for some other day.. Let us talk about the remaining aspect Arth and our ancient text around it named Arthshastra.

Year 1905, a Tamil brahmin in Tanjavur presents an ancient text written over palm leaves to Mysore orient library. Librarian identifies the text as Arthshastra by Kautilya, assumed lost since Gupta period. It is published in 1907 and its first English translation is published in 1915. There are 17 versions of Arthshastra, most reliable one written by Kautilya, prime minister of Chandragupta Maurya and Bindusara. These scriptures were written by a person who had the idea, created the plan and ensured successful execution to establish the biggest empire known to us with secure borders and happy people. Till this person was alive, no foreign power could put their little toe our land Bharatvarsh.

Today when we are surrounded by hostile neighborhood and at the time of writing this article at least 20 of our finest men have martyred in Ladakh, it is natural to think what is wrong with our foreign policy or international relations.

Though this Arthshastra was discovered 42 years before we got our independence, why it was not referred to while forming our foreign policy. Why Arthshastra is not taught in our universities from where our burocrates come who form our foreign policy. Why do we base our foreign policy on western principles which has given us colonialism, 2 world wars, cold wars and such a divided world. Answer lies in a our own inferiority complex and a western imposed morality. Just because Arthshastra mentions and does not protest Varna system, it was considered to be an medieval text and discarded. Its a classic case of throwing the baby out with the bathwater. We could have easily retained the principles of international relations to form the basis of our foreign policy, and then, may be we wouldn't have faced what we are facing now.

Arthshastra details everything about relationship between states, internal administration, espionage, bureaucracy and even land reforms. Many of these topics are not even mentioned by Machiavelli whom we consider the father of political science. Most of our generation, almost complete political leadership and also writer of this article are unaware of Kautilya and his writings. Whole Arthshastra deals with only two themes ' Yogakshem' and 'Raksham', i.e. welfare and security of people. As shown by Covid and China aggression, it seems we struggle miserably on both fronts.

Atmnirnbhar Bharat cannot happen unless we look deep inside our knowledge treasures and learn from them. Borrowed and copied knowledge and its incompatible application to our state policies has brought us where we stand today.

As we often see in cricket, when any team struggle in a tough match, coach shouts.. stick to the basics.. In case of India also, we need to first learn our basics which we have ignored, forgotten and are somewhat ashamed of and then stick to it. Then only we are worthy of calling ourselves descendants of Chanakya. Once we do that that, it will be the real master-stroke.

Sunday, June 14, 2020

कुंगफू के चक्कर में इनर पीस को ना भूल जाएं

वर्ष 1893, शिकागो। भारत का एक गेरुआ वस्त्र धारी जो अपने आप को विवेकानन्द कहने लगा था, पाश्चात्य विश्व के पटल पर अवतरित हुआ। उसने जो कहा वो तो इतिहास है ही उसके प्रभाव और इस घटना के मायने भी कम नहीं है। औद्योगिक क्रांति और पुनर्जागरण बाद पाश्चात्य विश्व में समृद्धि बहुतायत में थी, सुख नहीं था। विवेकानंद के उस संभाषण ने विश्व को यह बताया कि समृद्धि का मार्ग भले ही पाश्चात्य दर्शन से मिलता हो, शांति और सुख का मार्ग भारत के दर्शन से ही मिल सकता है। उस एक संभाषण ने भारतीय दर्शन को एक झटके में पाश्चात्य दर्शन के समकक्ष लाकर खड़ा किया और हिन्दू जीवन शैली और धर्म का परिचय आधुनिक विश्व  को मिला। 


सुशांत सिंह की आकस्मिक आत्महत्या से स्वामी जी का प्रसंग याद आना दो कारणों से है। पहला भौतिक जीवन की समृद्धि से आंतरिक सुख का मेल आवश्यक है। आंतरिक सुख भौतिक साधनों के सामान्य परिणीति नहीं है, वह एक अलग क्षेत्र है जिसपर भी मेहनत करने की आवश्यकता है। सुशांत के जीवन पर यह उक्ति सटीक बैठती है। यह एक विडम्बना ही है कि सुशांत नाम का व्यक्ति आंतरिक रूप से इतना अशांत था।
‌दूसरा कारण है स्वामी जी के तरह सुशांत का भी कम उम्र में चला जाना। दोनो प्रतिभाशाली थे, दोनो के सामने पूरा जीवन पड़ा था, लेकिन दोनों समय से पहले जीवन को छोड़ चले गए। सुशांत के जीवन की आंतरिक बातों को शायद हम ना जाने, लेकिन इतना तो तय है कि पाश्चात्य दर्शन के अधूरेपन का एक और उदाहरण है उनका जीवन।
‌ हम सब फिल्म कुंगफू पांडा के पो की तरह हैं। कुंग फू सीखना तो सिर्फ पहला कदम है, वास्तविक लक्ष्य तो है इनर पीस यानी मन की शांति। मास्टर उग्वे और शिफू वास्तव में कुंगफू के नहीं इनर पीस के शिक्षक हैं। कुंगफू दिखता है इनर पीस नहीं दिखता। पर कुंगफू सीखते समय हमेशा याद रहे कि कुंगफू एक सीढ़ी भर है मन की शांति तक पहुंचने का। समृद्धि के साथ साथ सुख का आराधन ही जीवन को पूर्णता दे सकता है।
‌ईश्वर सुशांत को अपने श्री चरणों में स्थान दें। ॐ शांति।।

Saturday, June 13, 2020

चीनी आक्रामकता का प्रत्युत्तर

कोविड 19 के संकट से जूझते देशों को देखकर भारत के नीति निर्माताओं को इसके जनस्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ने  वाले असर का अंदाजा भले ही लग गया हो, सीमा संकट के रूप इसकी परिणीति की आशा शायद ही थी  | गलवान घाटी पर चल रहे विवाद की जड़ें भी कोविड से जुडी हैं | इतिहास में  देखें तो 1962 में चीनी आक्रमण की एक वजह थी, दुर्भिक्ष से त्रस्त चीनी जनता को राष्ट्रवाद का विकर्षण प्रदान करना और  गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कारण  भारत के बढ़ते अंतराष्ट्रीय कद को रोकना | आज की तारीख में देखिए तो यही कारण वर्तमान  सीमा संकट के पीछे हैं

 

कोरोना संकट के कारण एक तरफ चीनी अर्थव्यवस्था जहाँ अंतराष्ट्रीय मांग में कमी के कारण  गहरे दवाब  में है ( अनुमानों के अनुसार जीडीपी में चौथी तिमाही में 7% की कमी आयी है), वहीँ कोरोना के सन्दर्भ में अपनाई गयी अलोकतांत्रिक और अपारदर्शी नीतियों ने चीन की अन्तराष्ट्रीय छवि पर अविश्वास का गहरा बट्टा लगाया है | जहाँ चीनी जनता में भारी असंतोष का भाव है वहीँ जापान , अमेरिका समेत कई  देश चीन में स्थापित अपनी विनिर्माण कंपनियों को बाहर निकालने की तैयारी कर रही  हैं | यह  कंपनियाँ अगले पड़ाव के रूप में भारत को देख रही हैं जो डेमोक्रेसी , डेमोग्राफी और डिमांड के मणिकांचन योग के कारण एक सशक्त विकल्प के रूप में उपस्थित  है | चीन की दीर्धकालिक नीतियों के जानकार यह समझते हैं कि  उसकी नीतियाँ हमेशा से भारत को तरह तरह की समस्याओं में उलझा कर एक क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति के रूप उसके उभार को रोकने की रही हैगलवान वैली में चीनी सेना के अतिक्रमण की नीति एक तरफ राष्ट्रवाद के द्वारा अंदरूनी असंतोष का समाधान करती है, वहीँ भारत की  एक वांछित  वैकल्पिक विनिर्माण गंतव्य की छवि को धूमिल कर उसे एक  अस्थिर असुरक्षित राज्य के रूप में प्रस्तुत करती है | यह कोई एकलौता मामला नहीं है बल्कि नेपाल के लिपुलेख मामला , म्यांमार के रखाइन  स्टेट में कलादान प्रोजेक्ट को बाधित करना और भारतीय तेल कंपनियों के दक्षिणी चीन सागर में तेल उत्खनन के वियतनाम  समझौते  में अड़ंगा डालना भी चीन की इसी नीति के फलन  हैं

 समाधान के कदम 

 एक बात तो निश्चित है कि सीमा पर युद्ध चीन चाहता है और भारत | क्या अपने मोबाइल फ़ोन से टिकटोक और ब्यूटीप्लस ऐप को डिलीट कर के चीन का मुकाबला किया जा सकता है? या दीवाली में चीनी फुलझड़ियों का बहिष्कार करके कुछ हासिल हो  सकता हैशायद नहीं | इन क़दमों से आपको कुछ  मानसिक  संतुष्टि भले ही मिले , वास्तविक अर्थों में यह कमल नाल से ड्रैगन को बाँधने की कोशिश मात्र है

 इसका उपाय दीर्घकालिक ही हो सकता है| चीन दक्षिण पूर्व देशों खास कर आसियान देशों को अपना विकल्प बनाना चाहता है, ताकि भले ही कंपनियां  चीन से निकल जाएँ लेकिन वह भारत जाकर वियतनाम और मलेशिया जैसे देशों का रुख करे| आसियान देशों को अपनी सैटेलाइट अर्थव्यवस्था  बना कर चीन अपने वैश्विक पार्थक्य के जोखिम का शमन करना चाहता है, जहां चीनी बहिष्कार की स्थिति में भी इनके माध्यम से उसका व्यापार पूर्ववत रहे।

पहला कदम है देश के अंदर चल रहे सुधारों में तीव्रता लाना | इसके तरह नीतिगत सुधारों जैसे श्रम कानूनों , सरलीकृत  कर प्रणाली और निवेश प्रोत्साहक नीतियों पर अधिक बल  दिया जाना चाहिये | व्यापार सुगमता सूचकाँक में चीन ( 28वां  स्थान ) अभी भी भारत( 63वां  स्थान) से कहीं  आगे है| राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन  कार्यक्रम के तहत  ऊर्जा , रेलवे, सड़क, पत्तन  निर्माण और डिजिटल कनेक्टिविटी  में  वर्ष 2025  तक प्रस्तावित 100 लाख करोड़  निवेश की परियोजनाओं को गंभीरता से समयबद्ध तरीके में पूरा करने की आवश्यकता है|  हमारी  स्थिति उस किसान की तरह हो  जिसकी खेत पर बारिश तो हुई लेकिन उसने  मेड नहीं बना रखी थी|

 

दूसरा कदम है, एक्ट ईस्ट की नीति के तहत चल रहे कनेक्टिवी कार्यक्रमों जैसे भारत - म्यांमार-थाइलैंड त्रिभुजीय सड़क परियोजना, म्यांमार में सिटवे बंदरगाह को भारत-म्यांमार सीमा से जोड़ती कलादान परियोजनाकम्बोडिया  लाओस म्यांमांर और वियतनाम के साथ प्रस्तावित मेकांग - भारत आर्थिक गलियारा परियोजना को वरीयता देकर पूरा करना | दक्षिण एशियाई देश अभी चीन के ज्यादा निकट हैं, हमारी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही उनमें  चीनी आकर्षण को कम करेगी| सुदूर पूर्व जापान के साथ दक्षिण चीन सागर में मुक्त नौवहन और क्षेत्र में सबके लिए सुरक्षा और विकास (SAGAR) पहल के लिए अंतराष्ट्रीय दवाब बना कर तटीय देशों फिलीपींस , ताइवान के सामुद्रिक हितों की रक्षा में हमें मुखर भूमिका निभानी होगी | इन प्रयासों से ना केवल आसियान देशों से हमारे व्यापारिक संबंध प्रगाढ़ होंगे ( 2018-19 व्यापार 97 बिलियन डॉलर मात्र) बल्कि भारत और इनके बीच की हमारी कुंजी  उत्तर पूर्वी राज्यों में लंबित अवसंरचना का विकास होगा। अरुणाचल और सिक्किम में चीनी दख़ल का कारण भारत द्वारा इन क्षेत्रों की अवहेलना भी है।

 तीसरा कदम हैपडोसी-पहले’ की नीति के तहत नेपाल के साथ रिश्तों में आयी हालिया खटास को जल्द दूर करना | भारत-नेपाल के अंतरंग और विशिष्ट संबंधों की रक्षा के लिए उच्चतम स्तर पर बातचीत नेपाल के राजनीतिक गलियारों में भारत के प्रति विश्वास बहाली आवश्यक है| दूसरी तरफ  श्रीलंका , मालदीव को चीन के ऋण जाल से बचाने के लिए वहां भारतीय निवेश बढ़ाना जरूरी होगा |  

 संत तिरुवल्लुवर ने कहा था " धनार्जन करो | अपने दुश्मनों के दर्पदलन के लिए इससे कारगर कोई हथियार नहीं है" | चीनी आक्रामकता का प्रत्युत्तर दीर्घकालिक और धनात्मक आर्थिक नीतियों में छुपा है, न कि कुछ चायनीज ऍप को डिलीट और रेटिंग ख़राब करने  की उथली और नकारात्मक नीतियों में |   

 


Tuesday, June 9, 2020

पलायन समस्या का समाधान

जनसंख्या का  एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेहतर अवसरों की तलाश में जाने की सामान्य मानवीय प्रक्रिया समस्या तब बन जाती है  जब इसकी दर इतनी अधिक हो जाय  कि यह सामाजिक आर्थिक अवसंरचना के लिए दुष्कर हो जाए भारत में पलायन की समस्या कोई नई नहीं है। विभाजन , बांग्लादेश युद्ध के समय भी अत्यधिक पलायन हुआ था, लेकिन वर्तमान कोरोना संकट के दौरान शहरों से गांवों की ओर होता उत्क्रमित पलायन का गंभीर संकट हमारे सामने है। 

वर्तमान पलायन समस्या एतिहासिक दृष्टांतो  से अग्रलिखित संदर्भों में अलग है।
) पलायन की दिशा : सामान्यता: कृषि के उत्तरोत्तर अलाभकारी होने और जनसंख्या के अत्यधिक दवाब कारण ग्रामीण युवा जनसंख्या का शहरी क्षेत्रों में पलायन निरंतर होता रहा है। इस प्रवासी जनसंख्या के पूर्ण आकार की एकाध झलक हमें हर साल दीवाली और छठ के दौरान पूर्वी भारत की ओर जाती ठसाठस भरी रेलगाड़ियों को देख कर मिलती है लेकिन उस जनसंख्या का पूरा अंदाजा हमें अब लगा है। प्रवासी कामगारों का एक निश्चित डाटाबेस उपलब्ध नहीं है |


) पलायन का कारण : विभाजन और 71 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान भले ही राजनीतिक कारण प्रमुख रहे हों, अन्तर्देशीय पलायन का कारक मुख्यतः आर्थिक ही रहा है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि स्वास्थ्य कारणों और उससे जनित आर्थिक कारणों से पलायन हो रहा है।

) पलायन की गति: विभाजन और 1971 के युद्ध को छोड़ दें तो शायद वर्तमान पलायन की गति और मात्रा का कोई सानी हमारे इतिहास में नहीं मिलता। आलेख लिखे जाने तक करीब 8 लाख प्रवासी कामगार बिहार लौट चुके थे। यूपी, ओडिशा, बंगाल और झारखंड को जोड़ लें तो यह संख्या 2 करोड़ से भी ज्यादा हो सकती है। यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जिससे निपटने के लिए सारी पुरानी रणनीति अपर्याप्त सिद्ध है।

पलायन के कारण:
यद्यपि लाकडाउन के कारण ठप पड़ी आर्थिक  गतिविधियों के कारण रोजगार छिनने और स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताओं को उपरी रूप से पलायन का मुख्य कारण माना जा सकता है, लेकिन गहरी छानबीन अन्य कारणों को सामने लाती है। पहला कारण है केंद्र और राज्य सरकार की संवाद हीनता : लॉक डाउन के दौरान केंद्र और रांज्य सरकारों का मजदूरों के प्रति संवाद हीनता की स्थिति दिखी है। प्रवासी मजदूरों में यह विश्वास बहाली नहीं हो पाई कि वे जहां है सुरक्षित हैं। धरातल पर कामगारों को राशन मुहैया, किराया माफी, नकद अंतरण तथा वेतन सुनिश्चित करने का कार्य अक्षम तरीके से हुआ। सरकारी आधिकारिक घोषणाओं के अभाव में अफवाहों ने डर का माहौल उत्पन्न किया। कोरोना को प्लेग की तरह जानलेवा महामारी मान बैठने की जनश्रुति सी फैल गई। आनंदविहार, गाजीपुर बॉर्डर और बांद्रा स्टेशन पर जमा भीड़ यही दिखाती है अफवाहों ने कितनी गहरी पैठ बना रखी थी। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत कामगार पहले से ही रोजगार अनिश्चितता से ग्रसित थे, वहीँ कोरोना संकट  जीवन मरण का प्रश्न बन गया । प्रवासी कामगारों की सही संख्या का कोई विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं होने के कारण प्रशासन समस्या के प्रभावी समाधान ढूंढ़ने में विफल रहा। केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के बीच समन्वय के अभाव ने इस विकराल समस्या को जन्म दिया।


पलायन समस्या का समाधान भी समस्या के अनुरूप विस्तृत होना आवश्यक है जिसमें तात्कालिक और दीर्घकालिक उपायों के मेल होना चाहिये|

लघु कालिक उपाय:
रेलवे , राज्य परिवहन निगम , निजी वाहन चालकों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के संयुक्त प्रयास से पैदल चलकर घर जाने को मजबूत कामगारों को सबसे पहले यातायात के साधन उपलब्ध करवाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए|

विस्थापितों की तात्कालिक सहायता के लिए जन धन खातों में सीधा नकद अंतरण तथा उनके गंतव्य पर क्वारांटाइन की समुचित व्यवस्था करनी होगी मनरेगा के अन्तर्गत आने वाले कार्यक्षेत्र का विस्तार कर घरेलू कार्यों, आंगनबाड़ी, सेवा क्षेत्र को शामिल करना आवश्यक है। बजट में मनरेगा हेतु आवंटित 60000 करोड़ और अतिरिक्त आवंटित 40000 करोड़ की राशि में और बढ़ोतरी करने की आवश्यकता पड़ेगी। 'एक देश एक राशन कार्ड' के साथ साथ जन वितरण प्राणी द्वारा न्यूनतम खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का कार्य त्वरित  गति से पूरा होना चाहिए.

 

दीर्घकालिक उपाय-
पलायन समस्या ने भारत के समावेशी विकास के समस्त दावों को निर्मूल सिद्ध किया है। देश के पूर्वी और पश्चिमी राज्यों के बीच चुके गहरे आर्थिक विभाजन की खाई को पाटने के लिए दूरगामी और दीर्घकालिक उपायों की आवश्यकता होगी। जीएसटी  लागू होने के बाद राज्यों के स्वतंत्र कर लगाने की क्षमता में कमी आई है. उत्क्रमित पलायन की मार झेल रहे राज्यों की आर्थिक दशा वैसे  ही बुरी थी , कोरोना संकट में राज्यों की अर्थव्यवस्था पर बोझ काफी बढ़ गया है| आरबीआई और केंद्र सरकार की नीतियों  की तरह  राज्यों को बांड जारी कर अतिरिक्त वित्त मुहैया करवाने की दिशा में कदम उठाये गए हैं| श्रम मंत्रालय के अंतर्गत प्रवासी मज़दूर कल्याण फण्ड बनाने का सुझाव अपनाने के साथ एक व्यापक राष्ट्रीय रोजगार नीति अप्रवासी कामगारों के लिए बनाये जाने की आवश्यकता है।

आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत श्रम गहन एमएसएमई क्षेत्र को दी गई तीन लाख करोड़ की प्रतिभूति रहित साख  एमएसएमई क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में मदद करेगी श्रम कानूनों में वर्षों से पड़े लंबित सुधारों को लागू करने का इससे बेहतर अवसर शायद ही मिले। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और मध्य प्रदेश की राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव इस दिशा में पहले कदम हैं। श्रम कानूनों में दीर्घकालिक और सुसंगत बदलाव के साथ सुभेद्य महिलाओं कामगारों और सीमांत कामगारों के हितों और छोटे व्यवसायियों के हितों के बीच सूक्ष्म संतुलन एमएसएमई क्षेत्र में साख बहाली कर सकते हैं।


पूर्वी क्षेत्र में आर्थिक अवसंरचना का कार्य त्वरित गति से करना  और इस कार्य में राज्य सरकारों को विश्व बैंक, न्यू डेवलपमेंट बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी मदद लेना आवश्यक होगा | जन -धन, आधार और मोबाइल आधारित सुदृढ़ सामाजिक सुरक्षा का तंत्र निर्माण  जिसके तहत कामगारों की सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में गृह ऋण सहायता , सामूहिक बीमा , मातृत्व लाभ को शामिल करना होगा | भारत कौशल विकास कार्यक्रम, व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रमों को युद्ध स्तर पर लागू करने का सबसे बेहतर समय अब है|

स्पष्टतया यह समस्या अब तक अपनाई गई विकास नीति का साइड इफेक्ट है। हमारी भविष्योन्मुखी नीति ग्राम स्वराज की परिकल्पना, PURA ( ग्रामीण क्षेत्र में शहरी सुविधाओं की उपलब्धता) पर आधारित होनी चाहिए। कृषि के सहायक गतिविधियों का विकास कर कृषि पर जनसंख्या दवाब कम करना आवश्यक है, वहीं शहरी क्षेत्रों में मलिन बस्ती विकास करना होगा।