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Wednesday, November 26, 2025
प्राकृतिक या कृत्रिम
Saturday, November 15, 2025
लोकतन्त्र के महापर्व का विमर्श
Wednesday, November 12, 2025
जनता जनार्दन और शक्ति का अस्थाई हस्तांतरण
Wednesday, November 5, 2025
दुःख का चरित्र
दुःख युधिष्ठिर के कुत्ते के समान है — जहाँ भी जाओ, यह पीछे-पीछे चलता है, पीछा नहीं छोड़ता। स्वर्ग देखा तो नहीं, पर वहां भी दुःख विद्यमान है। अगर दुःख वहां न होता तो इंद्रराज हर बात पर यूं विचलित न होते।
भाई, बंधु, सखा, हितैषी — सब साथ छोड़ दें, लेकिन दुःख सदा साथ रहता है।
यह आपके जूतों में छिपे उस कंकड़ की तरह है — अपने जूते में हो तो जान निकाल दे, पर किसी और के जूते में हो तो दिखाई भी नहीं देता।
अपना दुःख दिल-दिमाग में बस जाने वाला वह बिना किराया चुकाए रहने वाला ज़िद्दी किरायेदार है, जिसे जितना भी कहो, मकान खाली नहीं करता।
दुःख वह पाठ है जो चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ समय के लिए स्मृति से उतर भी जाए, तो भी आस-पास कहीं छिपा रहता है, और अवसर मिलते ही फिर से सामने आ खड़ा होता है।
दुःख वह सूदखोर महाजन है, जिसकी किश्तें हर हाल में चुकानी ही पड़ती हैं — चाहे जैसा भी समय हो।
दुःख जीवन की सामान्य अवस्था है —
जीवन यात्रा का वह सराय है जहाँ से हर सफर शुरू होता है और जहाँ हर सफर का अंत भी होता है। बचपन में खिलौने टूटने का दुःख है, जवानी में सपनों के टूटने का दुःख सालता है तो बुढ़ापा रिश्तों, स्वास्थ्य, उम्मीदें और शरीर गंवाने का दुख लेकर आता है।
हर रिश्ते की डोर का पहला और आख़िरी छोर भी दुःख ही है। दुख ऐसा है कि सर्वव्यापी है, वर्तमान का दुख तो दुःख देता ही है, भूतकाल का दुःख याद करने पर दुःख देता है, और आने वाले दुःख की चिंता दुःख का कारण बनती है।
दुःख वो बेताल है जो आपकी पीठ पर बैठा रहता है, आपको डराता है, आपसे तरह तरह के सवाल पूछा करता है। और दुखों को जवाब देकर भी क्या फायदा। उसे न सही उत्तर में कोई दिलचस्पी है और न गलत उत्तरों की कोई जिज्ञासा। आपकी पीठ पर बैठा बेताल रूपी दुःख आपसे कुछ दूर दूर भी जाने लगे तो आपके अंदर का विक्रम उसके पीछे दौड़ कर खुद पकड़ लेता है।
दुःख जीवन का ध्रुव तारा है, उसे देख कर ही जीवन निरंतर आगे बढ़ता रहता है। सभी सुख प्राप्त हो जाने पर आगे का सफर तय करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी।
दुःख का एक दूर का सौतेला भाई है — सुख।
दोनों में कभी बनती नहीं।
सुख का स्वरूप दुख से भले अलग प्रतीत हो , वास्तव में अलग नहीं है। अन्यथा दूसरों का सुख देख कर मनुष्य दुखी क्यों होता और सुख भोगता मनुष्य भी संभावित दुःख को विचार कर दुःखी क्यों होता।
ज्यादा सुख पा रहा व्यक्ति अपने से कम सुख में रह रहे व्यक्ति को दुखी क्यों मानता। और पहले से सुखी व्यक्ति दूसरे का अधिक सुख देख कर दुःखी क्यों हो जाता।
सुख और दुःख जीवन की चाकी के दो पाट हैं —
दुःख नीचे वाला पाट है, जो स्थिर रहता है,
और सुख ऊपर वाला — जो कभी चलता है, कभी ठहर जाता है।
पर दुःख वाला पाट हमेशा वहीं रहता है,
अडिग, अचल, सदा साथ।
और जो जीवन में अटल है, अचल है, उसका दुःख कैसा??
Saturday, October 25, 2025
जीवन चक्र
Saturday, October 18, 2025
नीले निशान का गीत
Thursday, September 25, 2025
अंधा कुआं
Wednesday, September 17, 2025
विश्वकर्मा दिवस पर विशेष
Thursday, September 11, 2025
सोशल गुरुकुल
Saturday, September 6, 2025
ट्रंप चचा के नाम एक पत्र
Thursday, September 4, 2025
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Sunday, August 31, 2025
Wednesday, August 27, 2025
1893 : भारतीय आत्मजागरण का वर्ष
Saturday, August 23, 2025
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Wednesday, May 28, 2025
सस्ता और घटिया
Sunday, May 18, 2025
राग सरकारी और गेंदा फूल
एक गाना कुछ सालों पहले चला था। ससुराल गेंदा फूल। कभी कभी लगता है, ससुराल गेंदा फूल की जगह सरकारी ऑफिस गेंदा फूल होना चाहिए। अगर आप किसी सरकारी कार्यालय के बाहर पीले-नारंगी गेंदा माला की लटकती झालरों को नहीं देख पा रहे हैं, तो समझ लीजिए वो ऑफिस मृतप्राय ही है।—या तो लंबे समय से वहां कोई नया अधिकारी आया नहीं है, या कोई विदा नहीं हुआ, कोई समारोह नहीं हुआ और न ही कोई नेता जी उस ऑफिस को झांकने आए हैं। अब भला वह भी कोई ऑफिस हुआ जहां यह सब हमेशा लगा न रहे। बिना गेंदा के प्रशासन वैसा ही है जैसे बिना IMF की मदद के पाकिस्तान। बेकार , निस्तेज और नकारा।
गेंदा फूल, वह महान पुष्प, जो विदाई और स्वागत—दोनों ही क्रियाओं का एकमात्र साक्षी है। चाहे डीएम साहब रिटायर हो रहे हों, या बड़े बाबू का प्रमोशन हुआ हो, जब तक उनकी गरदन में कम से कम तीन किलो की गेंदा माला न पड़े, तब तक कार्यक्रम "अवैध" माना जाता है।
एक समय था जब संविधान की शपथ दिलाई जाती थी, अब गेंदा माला पहनाई जाती है। माला पहनते ही आदमी का दर्जा बढ़ जाता है—उसकी चाल बदल जाती है, चेहरे पर फूलों की सुगंध नहीं, सत्ता की गंध आने लगती है।
गांव के हलवाई से लेकर शहर के फ्लोरिस्ट तक, सबको पता है कि अफसर साहब की विदाई है तो "गेंदा" ही चाहिए। गुलाब और रजनीगंधा तो अब आम जनता के विवाह-शादी में चले गए। गेंदा फूल, अब वीआईपी फूल बन चुका है।
और ये कोई साधारण फूल नहीं है। यह फूल सरकार की नीतियों की तरह लचीला है, अफसर की तरह दिखावटी है, और नेता की तरह टिकाऊ है। उसकी गंध भी कुछ वैसी ही है—थोड़ी तेज, थोड़ी अजीब, लेकिन ध्यान खींचने वाली।
सरकारी आयोजनों में यह फूल अनिवार्य हो चुका है। एक दफा तो किसी अफसर ने शिकायत कर दी थी कि माला में गेंदा कम था, रजनीगंधा ज्यादा—कार्यक्रम को अपवित्र घोषित कर दिया गया।
कभी-कभी सोचता हूँ, यदि संविधान में एक 399वां अनुच्छेद जोड़ दिया जाए: "कोई भी सम्मान या विदाई कार्यक्रम बिना गेंदा माला के अमान्य माना जाएगा।" इससे न तो कोई दुविधा होगी, न ही कोई प्रशासनिक चूक।
तो अगली बार जब आप किसी सरकारी आयोजन में जाएं, और गेंदा माला न दिखे—तो समझ जाइए, कुछ बड़ा गलत हो गया है। भारी ब्लंडर। शायद संविधान का उल्लंघन, शायद कार्यक्रम आयोजक को स्पष्टीकरण पूछने का समय आ चुका है कि गेंदा को भूल कैसे गए।
गुलाब भले ही इश्क का फूल हो, लेकिन जहां प्रशासन वाला रिस्क इन्वॉल्व्ड हो , वहां गेंदा ही काम आता है। गेंदा फूल सिर्फ एक फूल नहीं है, यह भारतीय सरकारी संस्कृति का प्रतीक बन चुका है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सस्ता है, कांटों से रहित है, और सबसे बड़ी बात—कभी शिकायत नहीं करता। अब बताइए, एक आदर्श सरकारी अफसर में और क्या गुण चाहिए?
