Wednesday, November 26, 2025

प्राकृतिक या कृत्रिम

काफ़ी लोग अभिनेता धर्मेंद्र के निधन से दुखी हैं । उनपर दुखों का दूसरा पहाड़ तब टूट पड़ा जब भारत दक्षिण अफ़्रीका से घर पर टेस्ट सीरीज़ हार गई । धर्मेंद्र को ही मैन कहा जाता है जो एक काल्पनिक चरित्र है । किसी कल्पना शील व्यक्ति ने अपनी कल्पना से ही मैन को गढ़ा । धर्मेंद्र में फ़िल्मों में काम करते थे , फिल्में जो कई कल्पनाशील व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास के बाद ही बनती हैं । तो कुछ लोगों बी कल्पित चलचित्र में धर्मेंद्र को देख कर उनमें ही मैन की छवि देखी और उनको ही मैन कहने लगे । 

इससे ऊपर चलिए । कुछ पीढ़ियों की सामूहिक कल्पना शीलता का परिणाम है क्रिकेट का खेल । यह प्रकृति प्रदत्त नहीं है हमारी शारीरिक विशेषताओं जैसे आँख कान नाक की तरह । हमने इस खेल को बनाया है । उसी तरह देशों की अवधारणा भी बिल्कुल मानव की रचना शीलता पर आधारित है । प्रकृति को कोई अन्य जीव देशों साम्राज्यों आदि की सीमाओं को नहीं जानते और नहीं मानते । यही चीज़ें धर्म , प्रेम , ईश्वर , जाति आदि के लिए भी सच है । सारे वाद , सारे विवाद ,सारी विचारधाराये और इनसे जनित सारे संघर्ष और समस्याएं भी इसी में शामिल हैं । मानव ने अपने आप को इन कल्पित संकल्पनाओं के आधार पर संगठित किया है , इन्ही आधारों पर वह अपनी खुशियाँ ढूँढता है जैसे जितने भी त्योहार हैं , मानव द्वारा कल्पित हैं , चाहे होली हो या क्रिसमस । इन्ही आधारों पर मानव दुखी होने का कारण ढूँढ लेता है । जैसे कि क्रिकेट में हार पर फैन उदास हो जाते हैं और जीत पर प्रसन्न हो जाते हैं । दोनों का आधार कल्पित और कृत्रिम है । संसार का कोई भी जीव ऐसे कारणों से ना उदास होता है और ना हर्षित । हमारी कल्पना ही है जो निर्जीव चंद्रमा में अपने महबूब को और सुदूर तारों में अपने मृत पूर्वजों को खोज लेता है । 
यह कल्पना शीलता ही मानव सभ्यता का आधार है जो ख़ुद की बनायी चीज़ों को उनके मूल रूप से अलग रूप में देख कर अपने जीवन को अलग अलग रूप से कभी धनात्मक और कभी ऋणात्मक रूप से प्रभावित करता है । 

थोड़ा विचार करके देखिए तो यह सारा मायाजाल हमारे दिमाग़ की उपज है । आप इन संकल्पनाओं को माने या ना माने आपकी प्राकृतिक संरचना में कोई बदलाव नहीं आने वाला । 

आप आप चाहें तो भारतीय अभिनेता के जाने और भारत के क्रिकेट श्रृंखला की पराजय का दुख महसूस कर सकते हैं या विचार कर सकते हैं कि यह दुख महसूस करना या ना करना आपकी चॉइस हैं कोई प्रकृति सिद्ध नियम नहीं । प्रकृति की नज़र में हम सिर्फ़ एक प्राणी हैं जिसके नियम सिर्फ़ हमारी क्षुधा , निद्रा और मैथुन और मृत्यु तक सीमित हैं । बाक़ी आपकी भावनाएँ सब कृत्रिम हैं बनावटी हैं मानव जनित हैं और सिर्फ़ आप पर निर्भर करती हैं कि यह कृत्रिम संसार आप पर वास्तविक प्रभाव डाल सकता है या नहीं । 

Saturday, November 15, 2025

लोकतन्त्र के महापर्व का विमर्श

भारतीय लोकतंत्र में चुनावों को प्रायः “महापर्व” कहा जाता है। पर्व का सामान्य अर्थ है उत्सव । अतः चुनावों को महापर्व की उपमा देने की प्रक्रिया सतही दृष्टि से केवल चुनावी उत्साह, जनभागीदारी और राजनीतिक गतिविधियों की चहल-पहल का संकेत प्रतीत हो सकती है; किंतु गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि “महापर्व” शब्द की वास्तविक व्यंजना उत्सव से कहीं अधिक व्यापक है। भारतीय परंपरा में पर्व केवल आनंद या अनुष्ठान का समय नहीं, बल्कि किसी कथा, किसी विचार या किसी व्यवस्था के विकास का महत्वपूर्ण अध्याय भी माना जाता है। महाभारत महाकाव्य के अठारह अध्यायों को अठारह पर्व कहा गया है, यथा भीष्म पर्व, शान्ति पर्व, आदि पर्व और स्वर्गारोहण पर्व। प्रत्येक पर्व कहानी को नई दिशा देता है, नए पात्र प्रस्तुत करता है और पुराने घटनाचक्रों का पटाक्षेप करता है। इसी दृष्टि से देखें तो भारतीय लोकतंत्र के प्रत्येक चुनाव को “महापर्व” कहना अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है।

चुनाव लोकतंत्र का मात्र तकनीकी पक्ष नहीं, बल्कि उसका आत्मा-भाग है। प्रत्येक चुनाव देश की सामूहिक चेतना के नए विचारों, नई आकांक्षाओं और नए विमर्शों को सामने लाता है। किसी पर्व में आर्थिक सुधार जनमत का केंद्र बनता है, तो कभी सामाजिक न्याय, कभी पारदर्शिता और लोक व्यवहार में शुचिता जनता के चिंतन के मध्य में विराजमान होता है तो कभी सुरक्षा तो कभी क्षेत्रीय पहचान। सामान्य और बोलचाल की भाषा में कहें तो हर चुनाव का अपना एजेंडा या नैरेटिव होता है। इसलिए हर चुनाव भारतीय जनतंत्र के इतिहास में एक नए अध्याय का उद्घाटन करता है। यह अध्याय न केवल सरकार के गठन से संबंधित होता है, बल्कि यह भविष्य की नीति-रेखाओं और शासन के चरित्र को भी निर्धारित करता है। जिस प्रकार महाभारत का प्रत्येक पर्व आगे की कथा का स्वर निर्धारित करता है, वैसे ही भारतीय चुनाव आगे के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मार्ग का निर्धारक बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, चुनाव नए राजनीतिक पात्रों के उद्भव का मंच भी है। कोई युवा नेतृत्व पहली बार राष्ट्रीय पहचान प्राप्त करता है, कोई क्षेत्रीय शक्ति राजनीतिक विमर्श को व्यापक आकार देती है, और कोई नई विचारधारा जनमानस में अपनी जगह बनाती है। इसी प्रक्रिया में कुछ पुराने पात्र धीरे-धीरे राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होते जाते हैं। इस प्रकार चुनाव जनतंत्र में पात्र-परिवर्तन की स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। यह परिवर्तन लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखता है, उसे स्थिरता और गतिशीलता दोनों का संतुलन प्रदान करता है।

चुनाव सामाजिक और राजनीतिक मानदंडों का भी पुनर्सृजन करते हैं। प्रत्येक चुनाव में यह स्पष्ट होता है कि जनता किन मूल्यों को महत्वपूर्ण मानती है—समानता, विकास, सुरक्षा, पहचान, या अवसर-सृजन। यह प्राथमिकता समय के साथ बदलती रहती है, और इसके साथ ही बदलते हैं नीतिगत निर्णय, चुनावी भाष्य और शासन का दृष्टिकोण। इस परिवर्तनशीलता में ही लोकतंत्र की शक्ति निहित है। इसलिए हर चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मनोवृत्ति का सूचक भी होता है।

अंततः, चुनाव लोकतंत्र के भविष्य की दिशा निर्धारित करते हैं। वे इस बात का निर्णय करते हैं कि देश किस प्रकार की आर्थिक नीति अपनाएगा, किन सामाजिक मूल्यों को प्राथमिकता देगा, विश्व मंच पर अपनी भूमिका कैसे परिभाषित करेगा, और जन-संस्थाएँ किस रूप में आगे बढ़ेंगी। अपने प्रभाव में चुनाव केवल दिन या सप्ताह की घटना नहीं हैं; वे वर्षों तक चलने वाली राष्ट्रीय यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस दृष्टि से वे वास्तव में भविष्य-सृजन के पर्व हैं।

इन सभी आयामों को समेटते हुए कहा जा सकता है कि चुनावों को “महापर्व” कहने की भारतीय परंपरा अत्यंत उपयुक्त और गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है। यहाँ पर्व का अर्थ केवल उत्सव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सतत चलने वाली कथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है—एक ऐसा अध्याय जो देश की दिशा, दशा और संवेदना को बदल सकता है।

इस प्रकार, भारतीय लोकतंत्र का प्रत्येक चुनाव न केवल मतदान का अवसर है, बल्कि एक नये युग का आरंभ, एक नए विमर्श का उद्घाटन और राष्ट्र-निर्माण की दीर्घकालिक प्रक्रिया का सशक्त चरण है। वास्तव में, चुनाव भारतीय जनतंत्र का वह महापर्व है जिसमें जनता स्वयं अपने भविष्य का लेखन करती है।

Wednesday, November 12, 2025

जनता जनार्दन और शक्ति का अस्थाई हस्तांतरण

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ शासन प्रणालियों का स्वरूप भी बदलता रहा है। कभी राजतंत्र था, जहाँ सत्ता राजा के हाथों में केंद्रित रहती थी; कभी अभिजाततंत्र और निरंकुशतंत्र, जहाँ कुछ गिने-चुने वर्ग जनता पर शासन करते थे। इन व्यवस्थाओं ने कभी-कभी त्वरित निर्णय और तीव्र विकास की दिशा तो दी, परंतु जनता से दूरी और सत्ता के दुरुपयोग ने अंततः उन्हें अस्थिर बना दिया। इतिहास का अनुभव बताता है कि जब भी शक्ति और सत्ता का स्थायी हस्तांतरण हुआ, वहाँ अन्याय और शोषण ने जड़ें जमा लीं।

लोकतंत्र इन सभी व्यवस्थाओं से भिन्न और श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह शक्ति और सत्ता को सशर्त, सीमित और अस्थायी रूप से सौंपता है। यह मान्यता कि “सत्ता जनता से आती है” ही लोकतंत्र की आत्मा है। यही कारण है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह व्यवस्था आज भी सबसे उपयुक्त सिद्ध हो रही है। लोकतंत्र में सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यवस्था सर्वोपरि होती है। यहाँ शासन करने का अधिकार किसी व्यक्ति या वंश की स्थायी संपत्ति नहीं, बल्कि जनता द्वारा दिया गया अस्थायी दायित्व होता है।

“जनता जनार्दन” — यह केवल एक कहावत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की दार्शनिक नींव है। जनता ही वह शक्ति है जो सत्ता को जन्म देती है, उसे नियंत्रित करती है, और आवश्यकता पड़ने पर बदल भी देती है। यही परिवर्तनशीलता लोकतंत्र को जीवंत और आत्मसुधारक बनाती है। अन्य व्यवस्थाएँ जहाँ स्थायित्व के नाम पर जड़ता और तानाशाही को जन्म देती हैं, वहीं लोकतंत्र अपनी लचक और जवाबदेही के कारण निरंतर प्रगतिशील रहता है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह सत्ता और सत्ताधारी दोनों को अस्थायी रखता है। यह अस्थायित्व ही जनता के स्थायी कल्याण की गारंटी है। जब किसी शासक को यह ज्ञात होता है कि उसे समय पर जनता के समक्ष जवाब देना है, तो वह जनता के हित में कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इसके विपरीत जहाँ सत्ता स्थायी होती है, वहाँ जवाबदेही समाप्त हो जाती है और शक्ति का दुरुपयोग अनिवार्य रूप से बढ़ जाता है। हमने पौराणिक कहानियों में पढ़ा है कि भगवान जब भी किसी को आशीर्वाद या वरदान देते थे तो कोई न कोई शर्त रख कर ही देते थे जिससे कि वह वरदान नियमों के उल्लंघन के बाद निष्प्रभावी हो जाता था। जनता भी जनार्दन की तरह अपना वरदान शर्तों से आधीन कर ही देती है, इसीलिए जनता जनार्दन कहलाती है । बिना शर्तों के दिया गया वरदान हिरण्यकश्यप और भस्मासुर ही पैदा करती है। लोकतंत्र में जनता जनार्दन हमेशा इसका ध्यान रखती है कि उसका वरदान किसी भस्मासुर को उत्पन्न न कर दे। 

समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, और इसी परिवर्तनशीलता के साथ समाज को भी नये नेतृत्व, नयी नीतियों और नयी दृष्टि की आवश्यकता होती है। लोकतंत्र इस सतत परिवर्तन की प्रक्रिया को सहज बनाता है। यह जनता को अवसर देता है कि वह अपने समय, देश और काल के अनुरूप नेतृत्व का चयन करे। व्यक्ति चाहे वही रहे, उसकी सोच को समय के अनुसार बदलना ही पड़ता है — यही लोकतंत्र का आत्म-संशोधन तंत्र है।

अंततः यही सत्य है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक व्यवस्था नहीं, बल्कि शक्ति के संतुलन की एक सतत प्रक्रिया है। यह व्यवस्था हमें यह सिखाती है कि सत्ता को कभी भी स्थायी नहीं होना चाहिए — क्योंकि जहाँ शक्ति स्थायी होती है, वहीं से उसके दुरुपयोग की शुरुआत होती है।

इतिहास गवाह है कि जब शक्ति सीमाहीन हो जाती है, तो वह मानवता को ग्रस लेती है। यही कारण है कि लोकतंत्र सत्ता को सीमित और सशर्त रखकर समाज को सुरक्षित बनाता है। इस संदर्भ में यह कहावत अत्यंत सार्थक प्रतीत होती है —

“Power is poison.”

शक्ति जब जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो वह विष बन जाती है — जो अंततः शासन, समाज और नैतिकता — तीनों को क्षीण कर देती है।
लोकतंत्र इस विष को औषधि में बदल देता है, क्योंकि इसमें शक्ति का विष हर चुनाव में, हर जनमत में, जनता के विवेक से निरंतर निष्क्रिय किया जाता है।

यही लोकतंत्र की अमर विशेषता है —
सत्ता अस्थायी है, पर “जनता जनार्दन” शाश्वत है।

 रश्मिरथी में जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि 
"सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।"
संभवतः वे लोकतंत्र में जनता की ही बात करते हैं जहां शक्ति और सत्ता का अंतिम स्रोत जनता जनार्दन ही है। 

Wednesday, November 5, 2025

दुःख का चरित्र

दुःख युधिष्ठिर के कुत्ते के समान है — जहाँ भी जाओ, यह पीछे-पीछे चलता है, पीछा नहीं छोड़ता। स्वर्ग देखा तो नहीं, पर वहां भी दुःख विद्यमान है। अगर दुःख वहां न होता तो इंद्रराज हर बात पर यूं विचलित न होते।


भाई, बंधु, सखा, हितैषी — सब साथ छोड़ दें, लेकिन दुःख सदा साथ रहता है।
यह आपके जूतों में छिपे उस कंकड़ की तरह है — अपने जूते में हो तो जान निकाल दे, पर किसी और के जूते में हो तो दिखाई भी नहीं देता।
अपना दुःख दिल-दिमाग में बस जाने वाला वह बिना किराया चुकाए रहने वाला ज़िद्दी किरायेदार है, जिसे जितना भी कहो, मकान खाली नहीं करता।


दुःख वह पाठ है जो चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ समय के लिए स्मृति से उतर भी जाए, तो भी आस-पास कहीं छिपा रहता है, और अवसर मिलते ही फिर से सामने आ खड़ा होता है। दुःख वह सूदखोर महाजन है, जिसकी किश्तें हर हाल में चुकानी ही पड़ती हैं — चाहे जैसा भी समय हो।

दुःख जीवन की सामान्य अवस्था है —
जीवन यात्रा का वह सराय है जहाँ से हर सफर शुरू होता है और जहाँ हर सफर का अंत भी होता है। बचपन में खिलौने टूटने का दुःख है, जवानी में सपनों के टूटने का दुःख सालता है तो बुढ़ापा रिश्तों, स्वास्थ्य, उम्मीदें और शरीर गंवाने का दुख लेकर आता है।
हर रिश्ते की डोर का पहला और आख़िरी छोर भी दुःख ही है। दुख ऐसा है कि सर्वव्यापी है, वर्तमान का दुख तो दुःख देता ही है, भूतकाल का दुःख याद करने पर दुःख देता है, और आने वाले दुःख की चिंता दुःख का कारण बनती है।

 
दुःख वो बेताल है जो आपकी पीठ पर बैठा रहता है, आपको डराता है, आपसे तरह तरह के सवाल पूछा करता है। और दुखों को जवाब देकर भी क्या फायदा। उसे न सही उत्तर में कोई दिलचस्पी है और न गलत उत्तरों की कोई जिज्ञासा। आपकी पीठ पर बैठा बेताल रूपी दुःख आपसे कुछ दूर दूर भी जाने लगे तो आपके अंदर का विक्रम उसके पीछे दौड़ कर खुद पकड़ लेता है।


दुःख जीवन का ध्रुव तारा है, उसे देख कर ही जीवन निरंतर आगे बढ़ता रहता है। सभी सुख प्राप्त हो जाने पर आगे का सफर तय करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी।

दुःख का एक दूर का सौतेला भाई है — सुख।
दोनों में कभी बनती नहीं।


सुख का स्वरूप दुख से भले अलग प्रतीत हो , वास्तव में  अलग नहीं है। अन्यथा दूसरों का सुख देख कर मनुष्य दुखी क्यों होता और सुख भोगता मनुष्य भी संभावित दुःख को विचार कर दुःखी क्यों होता।
ज्यादा सुख पा रहा व्यक्ति अपने से कम सुख में रह रहे व्यक्ति को दुखी क्यों मानता। और पहले से सुखी व्यक्ति दूसरे का अधिक सुख देख कर दुःखी क्यों हो जाता।

सुख और दुःख जीवन की चाकी के दो पाट हैं —
दुःख नीचे वाला पाट है, जो स्थिर रहता है,
और सुख ऊपर वाला — जो कभी चलता है, कभी ठहर जाता है।
पर दुःख वाला पाट हमेशा वहीं रहता है,
अडिग, अचल, सदा साथ।

और जो जीवन में अटल है, अचल है, उसका दुःख कैसा?? 



Saturday, October 25, 2025

जीवन चक्र

यौवन रात्रि है —
नव ओस से भीगी, स्वप्नों से सजी।
यह रात्रि गंध से भरपूर है,
जैसे किसी कमल पर चाँदनी उतर आई हो।
हर तारा कोई अव्यक्त स्वप्न है, दूर से टिमटिमाता सा
अपनी ओर बुलाता सा।
हवा का हर झोंका है
मानो किसी अदृश्य आलिंगन का निमंत्रण।
मन में लहरें हैं — जो शब्द नहीं जानतीं,
केवल गुनगुनाती हैं,
“मैं हूँ, मैं चाहती हूँ, मैं जीना चाहती हूँ…”

यौवन की यह रात है चपल 
स्पंदित तरंगित विचलित
थिरकती है —जैसे कृष्ण बांसुरी की धुन पर झूमती गोपियां।
इसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं,
पर अनुभूति की दीप्ति है।
यह रात्रि प्रेम की है, संगीत की है,
मृगतृष्णा की भी है —
पर मृगतृष्णा भी तो एक सौंदर्य ही है।


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फिर पूरब में अरुणिमा जागती है।
रात्रि की कोमल छाँवें सिमट जाती हैं,
और यथार्थ का सूर्य सिर पर आता है।
अब सपने धरती मांगते हैं,
अब भावना श्रम बनती है।
माँग में सिंदूर नहीं, पसीना भरता है।
प्रेम अब शबनम की नाजुक बूंद नहीं,
खेत की मिट्टी की नमी बन जाता है।
दिन में आँखें खुली रहती हैं,
पर दृष्टि थकी हुई।
अब चाँदनी की शीतलता नहीं,
प्रकाश की तीव्रता है —
जो सुंदर नहीं,
पर आवश्यक है।

यह मध्यवय है —
जहाँ आत्मा तपती है,
शरीर पर हावी होने लगती है जरा
निश्छल चेहरे पर आ जाती हैं
लकीरें निशान और भर चुके घाव के निशान
मानों गुजरते वक्त के छोड़ दिए हों अपने हस्ताक्षर
पर भीतर कहीं रात्रि की कोमल याद 
अब भी ठहरी रहती है।


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धीरे-धीरे दिन ढलता है।
धूप की तीखी रेखाएँ नरम पड़ती हैं।
क्षितिज पर जब सूर्य थककर बैठता है,
तो लगता है — जीवन ने एक लंबा अध्याय पूरा किया।

अब मन में कोई अधूरी चाह नहीं,
केवल स्मृतियों की मृदुल गूँज है।
अब आँखों में तारे नहीं,
पर उन तारों की याद है
जिन्होंने कभी यौवन की रात में साथ दिया था।

सांझ की हवा में एक शांति है —
जैसे कोई दीया अपने अंतिम क्षण में
सबसे उजली लौ बन जाए।
यह सांझ यौवन की वापसी नहीं,
उसकी परिपूर्णता है।

यौवन ने जो स्वप्न देखा,
दिन ने जो कर्म से पूरा किया,
सांझ उसी का सार है —
एक गहरी तृप्ति,
एक मौन प्रकाश।

भोर की कोमल मुस्कान से लेकर
रात्रि की निस्तब्ध शांति तक —
जीवन एक ही दिन है।

हर अवस्था —
भोर, रात्रि, दिन, सांझ —
एक-दूसरे में विलीन।
जैसे लहरें समुद्र से निकलकर
फिर उसी में लौट जाती हैं।
यौवन की रात में आत्मा ने जो जाना,
सांझ में वही आत्मा उसे पहचानती है।
और तब समझ आता है —
जीवन बीता नहीं,
केवल संपूर्ण हुआ है।

Saturday, October 18, 2025

नीले निशान का गीत

देखता हूं —
युवा पीढ़ी को उंगली में स्याही लगा के
सेल्फी लेते हुए।
कैमरे के सामने मुस्कुराते हैं,
जैसे कोई युद्ध जीत आए हों
या जैसे लोकतंत्र
उनकी उंगली पर सिमट आया हो।

पर मैं जानता हूं —
यह स्याही यूं ही नहीं लगती।
इसका रंग बना है
असंख्य शिक्षकों के पसीने से,
जो घर-घर जाते हैं,
नाम पुकारते हैं —
“कहीं कोई मतदाता छूट तो नहीं गया?”

उनके जूतों में धूल है,
पर आंखों में उजाला —
कि नाम जुड़ते रहें
तो देश जुड़ता रहेगा।

इस स्याही में मिला है
उन सिपाहियों का त्याग,
जो अपने घरों से दूर
वीरान स्कूलों में ठहरते हैं —
जहां बिजली नहीं,
पर मच्छर जरूर होते हैं।
वे कहते हैं —
“ड्यूटी इज़ ऑन, सर।”
और उस एक वाक्य में
सारा राष्ट्र गूंजता है।

यह स्याही बनी है
उन अधिकारियों की थकी  सूखी आंखों से
जो भूल चुके हैं
अपना घर, अपनी छुट्टियां, अपनी नींद।
फाइलों के बोझे तले
वे खोजते हैं लोकतंत्र का चेहरा —
हर बार नए नाम से, नई सटीकता से।

और जब कोई युवा
अपनी स्याही लगी उंगली
सोशल मीडिया पर दिखाता है —
मुझे लगता है
जैसे किसी नदी ने
अपना जल लौटाया है बादलों को।

यह स्याही का काला टीका
सिर्फ़ निशान नहीं —
एक वादा है,
एक स्मरण है,
कि हम इस सपने को सहेज कर रखेंगे,
और स्नेह भरा एक दबा सा डर
कि अपनी जम्हूरियत पर
कभी किसी की नज़र न लगे।

हर कुछ वर्षों में
यह स्याही फिर लगनी चाहिए —
जैसे दीपावली में दिया जलता है,
वैसे ही चुनाव में लोकतंत्र।

क्योंकि यही तो वह रंग है
जिससे भरी जाती है आशा की मतपेटी।
हर वोट — एक कली है
जो खिलती है विश्वास के मौसम में
और बनाती है अपना लोकतंत्र का बागीचा।

तो जब उंगली पर स्याही लगे —
थोड़ा ठहर कर देखना,
यह सिर्फ़ नीला काला  रंग नहीं है —
यह मेहनत, यह त्याग, यह उम्मीद का रंग है।

और इस रंग को
बीच-बीच में लगाना ज़रूरी है —
कि याद रहे,
हम अब भी ज़िंदा हैं
एक लोकतंत्र में,
जहां स्याही सूखती नहीं,
बस अगली सुबह तक
सम्भाल कर रखी रहती है।

Thursday, September 25, 2025

अंधा कुआं

कभी सोचा है, ये फिकरा कैसे बना होगा
कि गहरे कुएं को कहते हैं अंधा कुआं।
कुआं अंधा नहीं होता,
गिरने वाले भी आंखों से महरूम नहीं होते,
पर भीतर उतरते ही
नज़रें बेकार हो जाती हैं,
रास्ते बंद हो जाते हैं।

नीचे गिरते लोग
बस अपनी ही आवाज़ सुनते रहते हैं,
प्रतिध्वनि की कैद में
और गहरे धँसते जाते हैं।
किसी और की बात
उनके कानों तक पहुँचती ही नहीं,
क्योंकि उनका सारा अस्तित्व
अपने ही शोर में डूबा होता है।

यही तो है असली अंधापन—
न कहीं जाना,
न किसी और को सुनना,
सिर्फ़ गिरते रहना
और अपनी ही आवाज़ में कैद हो जाना।

Wednesday, September 17, 2025

विश्वकर्मा दिवस पर विशेष


इंजीनियरिंग सिर्फ़ पुलों और मशीनों की नहीं, ज़िन्दगी की जुगाड़ों की भी भाषा है।

बचपन से ही, हम सबों में एक इंजीनियर छिपा होता है। चाहे रेनॉल्ड्स वाली बॉल पेन, जिसने लिखना बंद कर दिया हो, उसकी निब को हथेलियों के बीच रगड़ कर चलाने की जुगत लगाना हो — या उसी कलम के ढक्कन को रबड़ के छल्ले से गुलेल बनाना हो। उसी कलम से टेप रिकॉर्डर में फँसी ऑडियो कैसेट को निकालना हो।

वो हमारे अंदर का इंजीनियर ही था, जो चाहे हाथ-पैर, चेहरा और कपड़े सबमें ग्रीस की कालिख भले ही लगा ले, पर साइकिल की उतरी हुई चेन खुद ही चढ़ाना चाहता था। बड़े होने पर अपनी स्कूटर को टेढ़ा करके स्टार्ट करने की जुगत करता अधेड़ पड़ोसी अंकल भी इंजीनियर ही तो हैं।

उसी बालकनी में खड़ा अंकल का बेटा, जो बेडशीट और चादर को जोड़ उसमें गांठें लगाता है ताकि दोस्तों के साथ रात का शो देखने के लिए बालकनी से उतर सके — यह भी तो इंजीनियरिंग ही है। होली के समय किस गुब्बारे में कितना पानी भरा जाए, किस एंगल से फेंका जाए कि सीधे ‘गया-करने’ वाले अंकल को लगे, ऐसी जुगत लगाने वाले भी इंजीनियर ही हैं।

बुढ़ापे में अपने टूटे चश्मे को ठीक करता वृद्ध, और उसके बगल में बैठे उसकी फटे कुर्ते को रफ़ू कर पहनने लायक बनाती उसकी जीवनसंगिनी — ये दोनों भी तो इंजीनियर का ही काम कर रहे हैं।

इंजीनियर का असली काम यही है: सीमित साधनों में सैद्धांतिक ज्ञान का प्रयोग करके, कम ख़र्च में जीवन को सरल बनाना।
हाँ, इंजीनियर का अपना जीवन भले आसान न हो, पर आपके जीवन को आसान बनाने के लिए वह हमेशा तत्पर रहता है।

उन सभी को सलाम, जो अपने हुनर से दुनिया को बेहतर बनाते हैं।

विश्वकर्मा पूजा की शुभकामनाएँ और इंजीनियर्स डे की हार्दिक बधाई!


Thursday, September 11, 2025

सोशल गुरुकुल

लोग सोशल मीडिया का मज़ाक उड़ाते हैं, पर अगर ग़ौर से देखें तो ये प्लेटफ़ॉर्म ही ज़िंदगी के फ़लसफ़े समझा रहे हैं —

व्हाट्सएप कहता है – “भाई, अपने स्टेटस का घमंड मत कर, मेरी तरह 24 घंटे बाद गायब हो जाएगा!”

इंस्टाग्राम समझाता है – “सबकी ज़िंदगी एक शॉर्ट स्टोरी है, रील भी… कोई यहाँ ‘हज़ारों साल जीने’ का कॉन्ट्रैक्ट लेकर नहीं आया।”

फेसबुक फुसफुसाता है – “अच्छी चीज़ों को लोग पसंद नहीं करते, लेकिन कोई बुराई दिख जाय तो लोग टूट पड़ते हैं। अच्छे से अच्छा कपड़ा पहन के फोटो डालो तो कोई लाइक नहीं, लेकिन अगर उसी कपड़े की सिलाई थोड़ी सी उधड़ गई दिखी तो शेयर पर शेयर होंगे!”

ट्विटर याद दिलाता है – “कोई भी ‘ट्रेंड’ हमेशा के लिए नहीं होता, इसलिए अपना गुस्सा भी 280 कैरेक्टर में समेट लो।”

ज़िंदगी भी किसी यूट्यूब वीडियो जैसी है — बीच-बीच में “दुख” नाम के विज्ञापन आ ही जाते हैं।
तुम चाहे कितने ही अच्छे चैनल पर सब्सक्राइब क्यों न किए हो, ये तो होना ही है। गुस्से में स्क्रीन मत तोड़ो, वीडियो देखना मत छोड़ो, धैर्य से 5 सेकंड रुको… फिर “Skip Ad” का बटन अपने-आप दिखने लगेगा।

और ऑरकुट दादा कह गए थे – “बेटा, प्रोफ़ाइल कितनी भी सजाओ, लेकिन आख़िर में ‘डिलीट अकाउंट’ का बटन दबाना ही है।”


Saturday, September 6, 2025

ट्रंप चचा के नाम एक पत्र

चचा ट्रंप,
पाय लागू। 

ई क्या लगा रखे हो। रोज नया टैरिफ हर घंटे नया ट्वीट। चचा हम लोग भारतीय हैं और भारतीय इतनी आसानी से डरने वाले नहीं हैं। बागी 4, हाउसफुल 5, भूल भुलैया 3 और वार 2 देखकर हम भारतीयों को कुछ नहीं हुआ और तुम्हें  लगता है कि हम लोग टैरिफ से डर जायेंगे। मत भूल ट्रंप हम लोग न्यूक्लियर पावर हैं। हमें न्यूक्लियर पावर इस्तेमाल करने के लिए बाध्य नहीं करो। इधर हमने न्यूक्लियर बटन दबाया नहीं कि बॉलीवुड वाले स्टूडेंट्स ऑफ द ईयर 3 और हाउसफुल 6 बना के न्यूयॉर्क में रिलीज़ कर देंगे। तुम्हारे सिनेमा थियेटर से लोग ऐसे घायल होकर निकलेंगे मानो शिंडलर्स लिस्ट 2 की शूटिंग के बाद जूनियर आर्टिस्ट निकल रहे हों। और यह तो सिर्फ नमूना है। तुम्हारी हुड़कचुल्लू वाली आदतें बनी रही तो भारत वाले विपंस ऑफ मास डिस्ट्रक्शन बनाने में पीछे नहीं रहेगा। 

वह तो हम लोगों का दिल बड़ा है कि हम अब तक तुम्हें इग्नोर कर रहे हैं। नहीं तो देशद्रोही 2, राम गोपाल वर्मा की आग रिटर्न्स, और सड़क 3 : महेश भट्ट स्ट्राइक्स अगेन जैसे weapons off mass destruction बना के तुम्हारे देश में रिलीज़ कर देंगे। कोरोना से तो बच गए क्योंकि वह चाइनीज वायरस था और चाइनीज सामान का वैसे भी कोई गारंटी नहीं होता। हमारे हथियार के भंडार में देशद्रोही 2 और सड़क 3 जैसे खांटी देसी हथियार हैं, इनसे  बच नहीं पाओगे। अभी तो बहुत अंग्रेजी में इधर टैरिफ उधर टैक्स लगाते रहते हो , एक बार किसी का भाई किसी की जान का सीक्वल सिर्फ एनाउंस कर दिया न तो तुम्हारी हालत उस मुकेश की तरह हो जाएगी तो हर फिल्म के शुरू  होने से पहले ही ओरल कैंसर से मर जाता है। 

बाकी तुम बूढ़े हो रहे हो और बूढ़े बुजुर्ग का की हम लोग इज्जत करते हैं। लेकिन अपनी इज्जत अपने हाथ में होती है। जो भी तुम्हारी इज्जत बची खुची है, उसको भी बर्बाद करने के लिए विवेक अग्निहोत्री को बोल कर द डोनाल्ड ट्रंप फाइल्स नाम से फिल्म बनाने से कोई हमें रोक नहीं सकता। एक बार द डोनाल्ड ट्रंप फाइल्स वाली फिल्म वाशिंगटन में रिलीज़ हो गई तो तुम्हारी भी उतनी ही इज्जत बचेगी जितनी बोलो जुबां केसरी का विज्ञापन करने के बाद अजय देवगन की बची है। देवगन साब से याद आया सन ऑफ सरदार 3 से अगर बचना है तो सुधर जाओ और यह टैरिफ वाला खेला बंद करो। तुम्हारा  यह टैरिफ वाला खेला उतना ही दिन चलेगा जितने दिन आमिर खान और ट्विंकल खन्ना की फिल्म मेला सिनेमाघरों में चली थी। 

अगर मेला 2 के कहर बचना है , तो ध्यान से सुनो। हम लोग सिर्फ मदर इंडिया और लगान बनाने वाले देश नहीं है, हमारा गुस्सा मत जगाओ। याद रखना हमारे डायरेक्टर्स साजिद खान, कांति शाह ने फिल्म बनाना छोड़ा है , वो फिल्म बनाना भूले नहीं हैं। अब मैं चला अकेले थिएटर में बैठकर बागी 4 देखने। आशा करता हूं कि जिस प्रकार देर से ही सही लेकिन टाइगर श्रॉफ की थोड़ी थोड़ी दाढ़ी आ गई है, तुम्हें भी देर सबेर अकल आ ही जाएगी। 

तुम्हारा शुभचिंतक,
एक साधारण बॉलीवुड फैन

Thursday, September 4, 2025

शिक्षक दिवस पर विशेष

धरती पर सबसे ज्यादा पानी किसके पास है? आप कहेंगे सागर में। क्या आप उसका पानी पी कर अपनी प्यास बुझा सकते हैं? उत्तर होगा नहीं। उसका पानी तो। खरा है और खरा पानी पी नहीं सकते। अच्छा तो आप खारा पानी नहीं पी सकते। पीने के लिए तो मीठा पानी चाहिए। कोई बात नहीं सबसे बड़ा मीठे पानी का स्रोत क्या है? बहुत सारे हैं , भादो का महीना है तो चलिए मान लेते हैं बादल और मानसून। आपको अभी प्यास लगी है , कहिए मानसून को कि आपको एक ग्लास पानी पिला दे। आप कहेंगे कि पागल हो गया है क्या? बादल आपको कहीं एक ग्लास पानी देगा। उसको बोलना भी मत, कहीं फट गया तो तुम और तुम्हारा ग्लास कहीं बह के चल जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। मीठे पानी वाला बादल कितना मीठा होता है वो हिमाचल वालों से जाकर पूछ लो।

चलिए गणित की ही बात करते हैं। सबसे बड़े गणितज्ञ कौन हुए हैं? फ्रेडरिक गॉस, पाइथागोरस, आर्यभट ,  रामानुजम ?? तो बताइए कि आपने कितनी बार गणित सीखने के लिए रामानुजम की किताब पढ़ी है या सीधे आर्यभट के लिखे संस्कृत के ग्रंथों का अध्ययन किया है। आप कहेंगे कि आज क्या बेतुके सवाल पूछ रहा है? रामानुजम का तो मैने नाम सुना है बस, गणित तो मैने अपने मैथ्स सर से सीखा है। थोड़ा गुस्सैल थे लेकिन जो भी सीखा उन्हीं से सीखा। वैसे ये गॉस कौन था, नाम सुना सुना लग रहा है।

Exactly.... शिक्षक किसी विषय का सबसे ज्ञानी व्यक्ति नहीं होता। न ही सबसे नामी व्यक्ति होता है। जिस प्रकार भूख मिटाने के लिए मां के हाथ की दो रोटी चाहिए होती है ना कि गीदम में रखे गेहूं के बोरे। वैसे ही प्यास तो घर का छोटा सा नल ही बुझाता है , न कि मानसून और समंदर।

शिक्षक उसी मां के हाथ की बनी रोटी और घर के नल की तरह है जो आपकी भूख और प्यास बुझाता है।
शिक्षक  जीवन ज्ञान और उसके निहित दर्शन को आपके सामने सरलतम रूप में , ग्राह्य रूप में आर सुपाच्य रूप में आपके सामने प्रस्तुत करता है। यही मानव सभ्यता के विकास का आधार है। ज्ञान और जीवन अनुभवों का सतत , सुगम , सरल और सुग्राह्य रूप में प्रवाह।

सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।
 


Sunday, August 31, 2025

अब क्या बेच कर सोएं?















Wednesday, August 27, 2025

1893 : भारतीय आत्मजागरण का वर्ष



पहली कहानी – पीटर मार्टिजबर्ग स्टेशन , दक्षिण अफ्रीका की रात

दक्षिण अफ्रीका की एक ठंडी रात। प्रिटोरिया जाने वाली ट्रेन के डिब्बे में एक नौजवान बैरिस्टर अपने रिज़र्व्ड टिकट के बावजूद धक्का देकर बाहर फेंक दिया जाता है—केवल इसलिए कि उसकी त्वचा सांवली है। प्लेटफॉर्म की सर्द हवा में पड़े मोहनदास करमचंद गांधी के भीतर कुछ टूटता नहीं, बल्कि कुछ नया जन्म लेता है। उसी रात बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने का बीज फूटता है।
"अन्याय के आगे झुकना भी अन्याय है,
और अन्याय से लड़ना ही सच्चा न्याय है।"

दूसरी कहानी – शिकागो का मंच
उधर, समुद्र पार अमेरिका में शिकागो की Parliament of Religions में एक दुबला-पतला, तेजस्वी संन्यासी नरेंद्र खड़ा है।
“Sisters and Brothers of America…”
यह संबोधन सुनकर हॉल तालियों से गूंज उठता है। यह नरेंद्र अब केवल नरेंद्र नहीं रहता—स्वामी विवेकानंद बन जाता है, जो भारत की आत्मा को पूरी दुनिया के सामने गर्व से प्रस्तुत करता है।
"न स्वयं पतन्ति, न सतां समीपात् पतन्ति —
जो स्वयं ऊँचाई पर होते हैं, वे दूसरों को भी उठाते हैं।"

तीसरी कहानी – पुणे की गलियां
इधर भारत में, पुणे की तंग गलियों में लोकमान्य तिलक गणेश चतुर्थी को घर की पूजा से बाहर निकालकर जन-जन का उत्सव बना रहे हैं। वह लोगों को प्रेरित करते हैं कि घर के छोटे से पूजा घर की जगह गणपति की पूजा बड़े बड़े सार्वजनिक पंडालों में की जाय। उनका मकसद केवल पूजा नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति की मशाल जलाना है। गणपति बप्पा की प्रतिमा के सामने देशभक्ति के गीत गूंजते हैं, व्याख्यान और नाटक होते हैं, लोग संगठित होते हैं। यही वह बीज है जिससे आगे चलकर आज़ादी का विराट वृक्ष पनपता है।
"वन्दे मातरम् के स्वर जहाँ गूँजते हैं,
वहीं से स्वराज्य का सूर्योदय होता है।"

तीन कहानियां, एक ही साल – 1893

1893 कोई साधारण वर्ष नहीं था।

पीटरमार्टिजबर्ग की रात ने हमें सत्याग्रह का संकल्प दिया। “अहिंसा ही सबसे बड़ा शस्त्र है"।

शिकागो के मंच ने हमें आत्मगौरव का संदेश दिया। “उठो, जागो और अपने महान् होने का बोध करो।”

पुणे की गलियां ने हमें संगठित राष्ट्रवाद का मार्ग दिया । “धर्म और संस्कृति से बड़ा प्रेरणा स्रोत कोई नहीं।”

यह वह साल था जब भारत ने महसूस किया कि वह केवल सोने की चिड़िया नहीं, बल्कि जीवित आत्मा है।

"स्वत्व जागरणे राष्ट्रं जागरति।
जब व्यक्ति अपनी शक्ति पहचानता है, तब राष्ट्र भी जाग उठता है।"

आज जब पूरा राष्ट्र गणेश चतुर्थी मना रहा है, तो स्वाभाविक है कि इसके स्वरूप को बदलने वाले बाल गंगाधर तिलक को भी प्रणाम करें। प्रणाम करें स्वामी विवेकानंद को और राष्ट्रपिता को। एक तरह से देखें तो सबका जन्म 1893 में ही हुआ। 
 
गणपति बप्पा मोरया! मंगलमुर्ति मोरया!  

गणेश चतुर्थी की  हार्दिक शुभकामनाएं।।

Saturday, August 23, 2025

परदा है... परदा है परदा...

परदा भी बड़ा दिलचस्प आविष्कार है। किसी ने कपड़ा लिया, डोरी पर टांगा, और अचानक ही ज़िंदगी रहस्यमयी हो गई। नाटक हो या हकीकत — परदा उठते ही अभिनय शुरू, परदा गिरते ही असली चेहरे वापस।

पर्दाफ़ाश करने वालों को बड़ा शौक़ है। उन्हें लगता है कि हर परदे के पीछे कोई गुप्त साज़िश पक रही है — जैसे बिरयानी के भगोने में मसाला। असल में वे चाहते हैं कि सब नाटक करें। जब तक परदा गिरा है, लोग अपनी पुरानी चप्पल पहनकर घूमते हैं; जैसे ही परदा उठता है, वे चमचमाते जूते में सजधजकर बाहर आ जाते हैं।

और फिर हैं पर्दानशी लोग। जो कहते हैं, “हम परदे के पीछे हैं… मगर हमें मत देखो, लेकिन परदे के पीछे से हम आपको जरूर देखेंगे ।” यह वैसा ही है  कि चचा ट्रंप कहें कि हम पुतिन से तेल खरीदेंगे लेकिन अगर तुम खरीदो तो तुम्हारा तेल निकाल देंगे।

फैशन जगत का भी अपना नज़रिया है। Devil Wears Prada जैसी फिल्म साफ़ बताती है — शैतान भी अगर फैशन में आए, तो परदा पहन लेता है। प्राडा का परदा तो ऐसा होता है कि उसमें झाँकने के लिए वीज़ा और आधार दोनों चाहिए। सोचिए, अगर आम घरों में ऐसे परदे लग जाएँ, तो पड़ोसी भी यह तय नहीं कर पाएंगे कि आप चाय पी रहे हैं या दुनिया की अर्थव्यवस्था हिला रहे हैं।
राजनीति में तो परदा कभी छुट्टी पर नहीं जाता। कोई बोले तो कहा जाता है — “देखो, पर्दे के पीछे कुछ है।” कोई चुप रहे तो कहा जाता है — “देखो, पर्दे के पीछे बहुत कुछ पक रहा है।” लोकतंत्र में परदा एक तरह से रिमोट कंट्रोल है — बस चैनल बदलते रहिए, शो चलता रहेगा।

और अब आते हैं उस पुराने गीत पर —
“पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ…”
शायद गीतकार ने जनता को चेतावनी दी थी — “देखो, अगर पर्दा उठाया, तो नाटक शुरू हो जाएगा, और टिकट भी खुद खरीदनी पड़ेगी।”

लेकिन याद आता है एक और गीत कि "पर्दानशी को बेपर्दा न कर दूं तो अकबर मेरा नाम नहीं है"। जहां एक तरफ दूसरे के परदा हटा देने के दंभ भरने वाले अपने आप को अकबर कहते रहे हैं वहीं हालिया सुर्खियां बताती हैं कि अकबर महान के ऊपर भी पड़े परदे को खींच डालने की सारी तैयारी कर ली गई है।

तो जनाब, परदा गिरा रहने दीजिये या उठा दीजिए। कुछ भी करिए, परदा है तो कुछ न कुछ मनोरंजन होता ही रहेगा। क्योंकि परदा है तो जिंदगी गर्दा है। 

Friday, August 8, 2025

नायक मरते नहीं

नायक मरते नहीं।
वे बस… जीते रहते हैं—
एक लंबा, अनथक जीवन,
जिसमें मृत्यु
भी एक विलास है।

भीष्म की तरह
वे उठाए रहते हैं
भाइयों का भार।
अंबा का शाप
उनके भीतर धड़कता है।
अर्जुन के बाण
रक्त से नहीं,
समय से घायल करते हैं।

वे सहते हैं —
वृहन्नला का अपमान,
लक्षगृह की आग,
अभिमन्यु का न लौटना।

धर्म —
उनके हाथ में एक कसक है,
जिससे वे द्रोण को छलते हैं,
और सिर झुकाकर
गांधारी की आँखों में
अपने लिए राख देखते हैं।
नायक राजा नहीं होते।
वे यात्राएँ होते हैं —
लंबी, कठिन,
जिसमें किसी भी मोड़ पर
गंतव्य नहीं।

इच्छा-मृत्यु?
हाँ।
पर इच्छा अधूरी—
और मृत्यु
बस टलती हुई।

Thursday, July 31, 2025

दो अलग यात्राए... ं एक समान लक्ष्य

सुबह 4:10 बजे — वर्ष 2019, नवंबर 24..= दिल्ली एयरपोर्ट।

ऑफिस के काम से तिरुवनंतपुरम जाना था — एक महत्वपूर्ण बैठक थी। वही सुबह उठकर फॉर्मल कपड़े पहनना, अपना लैपटॉप बैग लेना और साथ में एक टाई रख लेना जो मीटिंग से पहले गले में डाल सकूं।
मैं हमेशा की तरह समय से तीन घंटे पहले एयरपोर्ट पहुँच गया, कैपुचीनो के साथ लैपटॉप खोल कर ईमेल खंगाल रहा था और प्रेजेंटेशन में फाइनल टच दे रहा था।
तभी देखा — श्रीनिवासन सर, हमारे डायरेक्टर साहब… पर वो जैसे पहले कभी दिखे ही नहीं थे।
नंगे पाँव।
काले कपड़े।
गले में रुद्राक्ष, माथे पर चंदन। एक पल को लगा, शायद किसी धार्मिक सीरीज़ की शूटिंग कर रहे हैं।
लेकिन नहीं। वे गंभीर थे, शांत थे, और भीतर से बेहद प्रसन्न दिख रहे थे। "सर?" मैंने चौंकते हुए कहा।
उन्होंने मुस्कराकर सिर झुकाया।
"सबरीमाला," उन्होंने धीरे से कहा।
"स्वामी अय्यप्पा का बुलावा आया है। 41 दिन का व्रतम पूरा हुआ, अब यात्रा के अंतिम चरण पर हूँ।"

मैं सन्न रह गया।
एक कॉरपोरेट वर्ल्ड का सख्त, प्रोसेस-ड्रिवन व्यक्ति, जो रोज़ KPI और ROI में उलझा रहता है…
आज एक श्रद्धालु बनकर मेरे सामने खड़ा था — वह भी नंगे पाँव।

मैं पूरी फ्लाइट में सोचता रहा —
कौन सा बल होता है, जो इंसान को इस तरह बदल देता है? उस दिन पहली बार सबरीमाला की कठिन यात्रा के बारे में उनसे सुना और जान कर भक्ति रस में सराबोर हो गया।

सालों बाद आज 31 जुलाई 2025 में— ट्रेन में, पटना से भागलपुर जा रहा हूं। बहुत कुछ बदल गया है इस बीच में। कॉर्पोरेट जीवन को विदा कह चुका हूं। अब बिहार में बस गया हूं। पर बिहार से बाहर रहने के बाद बिहार अब भी चमत्कृत कर जाता है।

सावन भले ही अपने आखिरी चरण में हो, सावन के भक्त गण बोल बम कांवड़िए अपने पूरे उफान पर हैं। पूरी ट्रेन जैसे भगवा में रंग गई हो। "बोल बम" के नारे किसी राग की तरह गूंजते हैं।

मुझे बिहार में जन्मे हुए चार दशक हो चुके हैं।
कांवड़ यात्रा मेरे लिए कोई नई बात नहीं —
पर इस बार कुछ बदल गया है।
शायद नज़रिया।

मेरे सामने एक कांवड़ियों का जत्था बैठा है।
सिर पर गमछा, कंधे पर कांवड़, पैरों में छाले…
फिर भी चेहरों पर थकान नहीं — एक संतोष है, उत्साह है।
तभी मेरी आंखें उस पल से टकराईं, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता —एक दृष्टिबाधित कांवड़ियों का जत्था।
एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने वाले वो श्रद्धालु —
जिनकी आंखें नहीं थीं, लेकिन आस्था की रोशनी उनमें इतनी थी, कि रास्ता खुद उनके लिए झुककर बन रहा था। मैं देर तक उन्हें देखता रहा।

एक किशोर लड़का एक वृद्ध को थामे चल रहा था।
शायद वही उनका "नेता" था।
उनकी कांवड़ें कपड़े से सजी थीं — किसी ने उनके माथे पर “ॐ नमः शिवाय” का अस्थाई ही सही चंदन वाला टैटू बना रखा था। मुझे अपने बचपन के वो दिन याद आ गए, जब हमारे गांव में भी कांवड़ियों का जत्था रुकता और पूरा गांव उनकी सेवा में लगा रहता।

 हर हर महादेव का स्वर पूरे गांव में गुंजायमान रहता।
मैं उनके साथ गंगाजल भरता, और सोचता —
क्या भगवान सच में इतने दूर हैं कि इतने लंबे सफर की ज़रूरत है?
आज समझ में आया —
सफर भगवान के लिए नहीं होता… अपने भीतर के विश्वास तक पहुँचने के लिए होता है।
आज मन भीतर से भीगा है।
मैंने दो यात्राएं कीं —
एक कॉरपोरेट डायरेक्टर के साथ सबरीमाला की ओर,
और एक गरीब, दृष्टिहीन बालक के साथ देवघर की ओर।

पर दोनों यात्राओं में एक ही बात समान थी —
श्रद्धा, जो न उम्र देखती है,
न भाषा, न शरीर की सीमा।

भारत सिर्फ एक भूगोल नहीं है,
यह भक्ति का एक जीवित नक्शा है —
जहाँ हर रास्ता कहीं न कहीं ईश्वर की ओर ले जाता है।

Sunday, July 20, 2025

ब्लिंकिट जेनरेशन और धैर्य का संकट

वीरता, शक्ति, चातुर्य और बुद्धिमत्ता – ये वे गुण हैं जिनकी चर्चा इतिहास से लेकर आज तक होती रही है। शेर को जंगल का राजा भी इन्हीं खूबियों के कारण कहा जाता है। लेकिन जो बात अक्सर अनदेखी रह जाती है, वह है शेर का धैर्य। एक सफल शिकार के बाद अगला शिकार कब और कैसे मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। शेर घंटों, कभी-कभी दिनों तक घात लगाकर शिकार की प्रतीक्षा करता है – बिना हिले, बिना आवाज किए। यह धैर्य ही उसकी ताकत का सबसे बड़ा प्रमाण है।

इतिहास के पन्नों में महाराणा प्रताप का नाम वीरता के लिए स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। लेकिन क्या हम यह याद रखते हैं कि हल्दीघाटी की हार के बाद भी वे अकबर के खिलाफ लड़ते रहे? क्या हमें यह याद रहता है कि शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य का सपना उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने पूरा किया? यह सब केवल पराक्रम या योजना का परिणाम नहीं था, बल्कि गहन और अडिग धैर्य की देन था।

आज की पीढ़ी तकनीक से सम्पन्न है। विज्ञान उन्हें थाल में सजा कर परोसा गया है। सूचना और ज्ञान कभी इतने सहज, इतने सुलभ नहीं रहे। लेकिन इस सहजता ने एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया है – अधीरता की प्रवृत्ति। Blinkit जैसी सेवाएं 10 मिनट में सामान घर पहुंचाती हैं, इंस्टाग्राम हर पल के अपडेट देता है, और व्हाट्सएप की नीली टिक ने प्रतीक्षा को असहज बना दिया है। जो चाहिए, वही चाहिए और अभी चाहिए — यह मानसिकता गहराती जा रही है।

हमारे समय में, दूरदर्शन के 'चित्रहार' और 'रंगोली' जैसे कार्यक्रमों को देखने के लिए लोग पूरे सप्ताह इंतजार करते थे। घरों में पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र आते थे जिनका इंतजार हफ्तों तक किया जाता था। किसी जानकारी के लिए हमें ChatGPT पर एक सेकेंड में उत्तर नहीं मिलता था, बल्कि पुस्तकालयों की धूल भरी आलमारियों को खंगालना पड़ता था। यह इंतजार ही उस ज्ञान, सुख और आनंद को चिरकालीन बना देता था — क्योंकि उस तक पहुँचने की यात्रा में धैर्य, परिश्रम और एक विशेष भावनात्मक जुड़ाव होता था।

रिसर्च बताते हैं कि मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक प्रयोग किशोरों और युवाओं में त्वरित संतुष्टि (instant gratification) की भावना को जन्म दे रहा है। 2023 में American Psychological Association ने एक रिपोर्ट में उल्लेख किया कि स्मार्टफोन पर बिताया गया अत्यधिक समय युवा मस्तिष्क में डोपामिन सेंसिटिविटी को प्रभावित कर रहा है, जिससे धैर्य और सहनशीलता में गिरावट आ रही है।

इसका प्रभाव केवल मानसिक स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना पर भी दिख रहा है। रिश्ते छोटे-छोटे विवादों में टूट जाते हैं, परिवार संवाद की बजाय स्क्रीन पर निर्भर होते जा रहे हैं। WHO की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में भारत में 15-29 आयु वर्ग के युवाओं में आत्महत्या मृत्यु का प्रमुख कारण बन गया। यह केवल मानसिक अवसाद का नहीं, बल्कि असमर्थ धैर्य का भी सूचक है।

शैक्षणिक क्षेत्र में भी इसका प्रभाव दिख रहा है। इस संदर्भ में वेब सीरीज़ Aspirants का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा, जिसमें 'धैर्य' नाम की एक महिला पात्र है। दिलचस्प बात यह है कि 'धैर्य' केवल एक नाम नहीं, बल्कि प्रतीक भी है – प्रतीक उस गुण का, जो किसी भी प्रतियोगी की सफलता की रीढ़ होता है। एक पात्र जो अंततः IAS बन जाता है, लेकिन वह अपने भीतर की अधीरता को कभी त्याग नहीं पाता। नतीजा यह होता है कि 'धैर्य' नाम वाला पात्र उससे अलग हो जाता है। यह रूपक हमें यह समझाने के लिए काफी है कि अगर चरित्र से धैर्य चला जाए, तो सफलता भी अधूरी और अस्थिर हो जाती है।

NEET और JEE जैसी परीक्षाओं में सफलता एक लंबी और चुनौतीपूर्ण यात्रा होती है, जिसमें वर्षों की मेहनत, निरंतरता और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। हाल के वर्षों में इन परीक्षाओं की तैयारी कर रहे कई छात्रों द्वारा आत्महत्या की खबरें हमें झकझोर देती हैं। 2023 में कोटा (राजस्थान) में अकेले 25 से अधिक छात्र आत्महत्या कर चुके थे। यह आँकड़ा केवल परीक्षा के दबाव का नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक सहारे की कमी और धैर्य की अनुपस्थिति का भी प्रमाण है। जैसे-जैसे प्रतियोगी परीक्षाएं कठिन होती जा रही हैं, वैसे-वैसे छात्रों का धैर्य भी टूटता जा रहा है। 

सवाल यह है – हम क्या खो रहे हैं?

हम वह धैर्य खो रहे हैं जो किसी विराट लक्ष्य की बुनियाद बनता है। हम वह इंतजार भूल रहे हैं जिसमें चरित्र निर्माण होता है। हम उस सहनशीलता को नजरअंदाज कर रहे हैं जिसने हमारे इतिहास को गौरवशाली बनाया है।

लेकिन अभी सब कुछ नहीं खोया है। नई पीढ़ी जिज्ञासु है, सीखने को तत्पर है और बदलाव के लिए तैयार है। ज़रूरत है कि हम उन्हें धैर्य की कीमत समझाएं – न केवल उपदेशों से, बल्कि उदाहरणों से। शिक्षा प्रणाली में माइंडफुलनेस और मेडिटेशन को शामिल करना, डिजिटल डिटॉक्स की संस्कृति को बढ़ावा देना और धीमी लेकिन स्थायी सफलता की कहानियों को मंच देना आज की आवश्यकता है। कोटा प्रशासन द्वारा 'हेलो कोटा' हेल्पलाइन, दिल्ली के स्कूलों में 'हैप्पीनेस करिकुलम' जैसी पहलें इस दिशा में सकारात्मक संकेत हैं।

अंत में, यह याद रखना ज़रूरी है कि हर सफलता के पीछे धैर्य की लंबी छाया होती है। शेर की तरह, जो हर दहाड़ से पहले घात लगाकर इंतजार करता है — हमारी जीत भी तभी मुखर होती है जब हमने उसे धैर्य के जंगल में खोजा हो।

अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ न केवल स्मार्ट हों, बल्कि स्थिर और सशक्त भी हों, तो हमें उन्हें धैर्य का महत्व सिखाना ही होगा – वरना Blinkit की तर्ज पर जीवन से भी "Delivery Failed" का संदेश आ सकता है। 

सावधान रहें, सजग बनें – लेकिन आशा मत छोड़ें।

धैर्य की यात्रा कठिन जरूर है, लेकिन अंततः वही सबसे स्थायी फल देती है।

जैसे संत कबीर ने कहा है:

"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।" फिल्म Shawshank redemption में रेड का चरित्र कहता है, Oh, Andy loved geology. I imagine it appealed to his meticulous nature. An ice age here, million years of mountain building there. Geology is the study of pressure and time. That's all it takes, really. Pressure, and time... इस संवाद में धैर्य की ही तो बात की गई है।


यह दोहा केवल खेत या फल की प्रतीक्षा नहीं, बल्कि जीवन की हर सफलता की प्रतीक्षा को दर्शाता है। जब हम समय, धैर्य और निरंतरता के साथ किसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, तभी उसका फल संपूर्णता और स्थायित्व के साथ प्राप्त होता है।

Wednesday, June 18, 2025

मन है तो मनुष्य हूं।

मन से मुक्त होना चाहता हूं,
जैसे कोई
भीतर घुसे साँप को
निष्कासित करना चाहता हो
— बिना स्वयं डंसे हुए।

मैंने अपने भीतर
दीवारें खड़ी कीं,
विचारों की ईंटों से,
संकल्पों के गारे से,
पर वह —
मन —
रेंगता रहा
हर दरार से रिसकर
मेरी ही रीढ़ में काँपता रहा।

मैंने आग जलाई
वासनाओं को भस्म करने,
पर वह राख ओढ़
साधु बन गया —
और तप करने लगा मेरे ही अंतर्मन में।

मैंने मौन साधा,
शब्दों को निर्वासित किया,
पर उसने
मौन की कोख से
नई भाषा जन्म दी —
जिसमें केवल मैं बोलता था
और सुनने वाला भी मैं ही था।

मैंने कहा — “बस!
अब तू नहीं, केवल मैं।”
पर वही क्षण था
जब मैं भी 'मैं' न रह सका।
क्योंकि
जो मन को जीतना चाहता है,
वह पहले स्वयं को हारता है।
जब तक मनुष्य हूं,
लड़ता रहूंगा मन से।

लेकिन क्या बिना मन लगाए 
मन से लड़ी लड़ाई जीत पाऊंगा।
मन के अधीन अब मन नहीं लगता।
और शायद
यही अंतिम सत्य है —
कि मन से ही मानव है।
मन है तो मनुष्य हूं।
मनुष्य हूं क्योंकि मन है।


Wednesday, May 28, 2025

सस्ता और घटिया

अक्सर लोग सस्ता और घटिया को एक समझ लेते हैं। अरे उसने एक सस्ती सी कमीज पहन रखी थी। तुमने उसके जूते देखे? हुंह... सस्ते वाले फुटपाथ वाले जूते। इन वाक्यों में कमीज और जूते के प्रति अनादर का भाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। मानो न केवल जूतों और कमीज वरना उसे पहनने वाले को भी घटिया कहा जा रहा हो। वैसे अगर सस्ता और घटिया एक ही शब्द है फिर दो शब्द बनाने की जरूरत क्यों पड़ती। "सस्ता" शब्द "सह" (साथ) + "स्थ" (स्थिर या रहने वाला) से आया माना जाता है, जिसका अर्थ होता है – जो साथ रह सके अर्थात जिसकी कीमत इतनी कम हो कि हर कोई उसे साथ रख सके। जो आपके साथ स्थिर रहे, अच्छे बुरे वक्त में आपका साथ दे, वही सस्ता है। सत्तू सस्ता है इसीलिए जब आप बीमार पड़ते हैं तब भी आपके साथ बना रहता है, बिरयानी और पुलाव महंगे हैं इसलिए आपको एक छींक आई नहीं, एक दस्त हुआ नहीं, आपका साथ छोड़ देते हैं। घटिया शब्द घाटा या घटना से बना है। वह वस्तु जो आपको घाटा करा सके या या आपमें से कुछ घटा ले, वो घटिया है। इस लहजे से देखें तो महंगी चीजें आपका ज्यादा घाटा कराने की क्षमता रखती हैं। मतलब यह कि महंगी चीजें भी घटिया हो सकती हैं। आप कहेंगे कि सस्ती चीजें भी तो घटिया हो सकती हैं, हां सस्ती चीज तो वह ही हुई जो आपके साथ स्थिर रहे, आपका साथ दे तो ऐसी चीजें तभी घटिया हो सकती हैं अगर उनका मकसद घाटा करवाना ही हो। अब बीड़ी पीने वाले बीड़ी को गाली नहीं दे सकते कि हमारे फेफड़े जला दिए, उसका काम फेफड़ों को ठीक करना थोड़े न था। बीड़ी सस्ती है और घटिया भी। सिगरेट महंगी भी है और घटिया भी। ज्यादा बुरा कौन हुआ , आप ही बताओ। 
चीजें सस्ती होनी चाहिए, तभी वह आपको मूल्यवान लग सकती हैं। या तो चीजें इतनी मूल्यवान हों कि कितनी भी कीमत दे दो आपको सस्ता लगे। किसी अनाथ बच्चे को मां वापस करने के लिए कोई भी कीमत सस्ती है। फिर आप क्या कहेंगे, बच्चे के लिए मां सस्ती हो गई। अगर कोई चीज आपको महंगी लग रही है, मतलब है कि आपको कीमत अखर रही है। पैसे ,समय, रिश्ते, प्रतिष्ठा गंवा कर आपने चीज तो हासिल कर ली लेकिन आपको मूल्य नहीं मिल रहा। 

हमारी सोच ऐसी बन गई है कि हम ‘दाम’ को ‘दरजा’ मान बैठते हैं। यह सोच न केवल हमारे सामाजिक व्यवहार में बल्कि देशों की नीतियों में भी झलकती है। अब देखिए पाकिस्तान को ही—उसने चीन से महंगे दामों में एयर डिफेंस सिस्टम खरीदे। झकास पैकेजिंग, चमचमाता लुक और चीनी इंजीनियरों की मुस्कान के साथ सिस्टम आया तो जरूर, पर हुआ क्या? एक कबूतर उड़ा और रडार ने उसे एफ-16 समझ लिया, फिर खुद ही कन्फ्यूज हो गया और सिस्टम हैंग हो गया। इतना महंगा सिस्टम, लेकिन काम घटिया। अब पाकिस्तान कहेगा कि सिस्टम ने साथ नहीं दिया। अरे भई, जो साथ ना दे वो तो सस्ता हो या महंगा—घटिया ही कहलाएगा न!
तो बात साफ है—मूल्य साथ निभाने से आता है, कीमत से नहीं। जो वस्तु, विचार या व्यक्ति आपके साथ खड़ा रहे, अच्छे-बुरे वक्त में टिके रहे, वही मूल्यवान है। चाहे वो सत्तू हो, पुराना दोस्त हो, मां हो या कोई देश की नीति। इसलिए अगली बार जब आप कुछ खरीदें, अपनाएं या अपनाएं जाने का दावा करें, तो कीमत से पहले यह देखिए कि उसमें ‘सह स्थ’ है या ‘घाटा’। वरना ऐसा न हो कि महंगे सौदे में आपकी ज़िंदगी ही सस्ती पड़ जाए।


Sunday, May 18, 2025

राग सरकारी और गेंदा फूल

एक गाना कुछ सालों पहले चला था। ससुराल गेंदा फूल। कभी कभी लगता है, ससुराल गेंदा फूल की जगह सरकारी ऑफिस गेंदा फूल होना चाहिए। अगर आप किसी सरकारी कार्यालय के बाहर पीले-नारंगी गेंदा माला की लटकती झालरों को नहीं देख पा रहे हैं, तो समझ लीजिए वो ऑफिस मृतप्राय ही है।—या तो लंबे समय से वहां कोई नया अधिकारी आया नहीं है, या कोई विदा नहीं हुआ, कोई समारोह नहीं हुआ और न ही कोई नेता जी उस ऑफिस को झांकने आए हैं। अब भला वह भी कोई ऑफिस हुआ जहां यह सब हमेशा लगा न रहे। बिना गेंदा के प्रशासन वैसा ही है जैसे बिना IMF की मदद के पाकिस्तान। बेकार , निस्तेज और नकारा।

गेंदा फूल, वह महान पुष्प, जो विदाई और स्वागत—दोनों ही क्रियाओं का एकमात्र साक्षी है। चाहे डीएम साहब रिटायर हो रहे हों, या बड़े बाबू का प्रमोशन हुआ हो, जब तक उनकी गरदन में कम से कम तीन किलो की गेंदा माला न पड़े, तब तक कार्यक्रम "अवैध" माना जाता है।

एक समय था जब संविधान की शपथ दिलाई जाती थी, अब गेंदा माला पहनाई जाती है। माला पहनते ही आदमी का दर्जा बढ़ जाता है—उसकी चाल बदल जाती है, चेहरे पर फूलों की सुगंध नहीं, सत्ता की गंध आने लगती है।

गांव के हलवाई से लेकर शहर के फ्लोरिस्ट तक, सबको पता है कि अफसर साहब की विदाई है तो "गेंदा" ही चाहिए। गुलाब और रजनीगंधा तो अब आम जनता के विवाह-शादी में चले गए। गेंदा फूल, अब वीआईपी फूल बन चुका है।

और ये कोई साधारण फूल नहीं है। यह फूल सरकार की नीतियों की तरह लचीला है, अफसर की तरह दिखावटी है, और नेता की तरह टिकाऊ है। उसकी गंध भी कुछ वैसी ही है—थोड़ी तेज, थोड़ी अजीब, लेकिन ध्यान खींचने वाली।

सरकारी आयोजनों में यह फूल  अनिवार्य हो चुका है। एक दफा तो किसी अफसर ने शिकायत कर दी थी कि माला में गेंदा कम था, रजनीगंधा ज्यादा—कार्यक्रम को अपवित्र घोषित कर दिया गया।

कभी-कभी सोचता हूँ, यदि संविधान में एक 399वां अनुच्छेद जोड़ दिया जाए: "कोई भी सम्मान या विदाई कार्यक्रम बिना गेंदा माला के अमान्य माना जाएगा।" इससे न तो कोई दुविधा होगी, न ही कोई प्रशासनिक चूक।

तो अगली बार जब आप किसी सरकारी आयोजन में जाएं, और गेंदा माला न दिखे—तो समझ जाइए, कुछ बड़ा गलत हो गया है। भारी ब्लंडर। शायद संविधान का उल्लंघन, शायद कार्यक्रम आयोजक को स्पष्टीकरण पूछने का समय आ चुका है कि गेंदा को भूल कैसे गए।

 
गुलाब भले ही इश्क का फूल हो, लेकिन जहां प्रशासन वाला रिस्क इन्वॉल्व्ड हो , वहां गेंदा ही काम आता है। गेंदा फूल सिर्फ एक फूल नहीं है, यह भारतीय सरकारी संस्कृति का प्रतीक बन चुका है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सस्ता है, कांटों से रहित है, और सबसे बड़ी बात—कभी शिकायत नहीं करता। अब बताइए, एक आदर्श सरकारी अफसर में और क्या गुण चाहिए?


Wednesday, April 23, 2025

क्रौंच पुनः रोया है

तमसा तट नहीं, यह पहलगाम है,
स्वर्ग नहीं, यह पीड़ा का ग्राम है।
प्रेम की गोदी में विश्राम करता जो,
एक पल में छिन गया जीवन संजो।

वह न सोया—बलि चढ़ा निर्ममता पर,
वह न बोला—पर चीख गूंजती अंतर।
उसके सिरहाने बैठी वह नारी,
बिन शब्दों के बिन आँसू के पुकारी।

क्रौंच की मादा फिर से विलपी,
करुणा की कविता फिर से खिली।
"अरे शिकारी! तू क्यों बना पीड़ा की झोलीं,
वो करुणा नहीं, श्राप था जो आँखों से बोलीं।"
 

 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

श्लोक वो अब सिर्फ ग्रंथों में नहीं,
हर करुण चीख में बहती वहीं।
निर्दोष लहू से जो रेखा बनी है,
काल की मुहर उस दिन ही लगी है।

शब्दों से भी भारी होता है मौन,
जब न्याय रोता है, और शक्ति रहती है गौण,
जिस दिन मासूम की छाती पर वार होता है,
उसी दिन से प्रारंभ अधर्मी का संहार होता है।


मुखौटा पहनने वाले हिंसक वानर


मानव जाति को अक्सर ‘सभ्य प्राणी’ कहा जाता है, पर यदि इतिहास की गहराइयों में उतरें तो यह परिभाषा एक दिखावा प्रतीत होती है—एक ऐसा आवरण जो हमने अपने पशुत्व को ढकने के लिए ओढ़ रखा है। जैविक दृष्टि से मनुष्य होमो सेपियन्स प्रजाति का हिस्सा है, जो लाखों वर्षों के विकास और एक संयोगवश हुए gene mutation का परिणाम है। यह अनोखा मस्तिष्क, जो हमें कल्पना, स्मृति और भाषा की शक्ति देता है, साथ ही हमें धोखा, लालच, हिंसा और छल की क्षमता भी देता है।

हमारी सभ्यता एक लंबे रक्तरंजित इतिहास की उपज है। यदि यह कहा जाए कि मानव सभ्यता एक स्थायी युद्धविराम मात्र है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

मानव इतिहास क्या है? युद्धों की गाथा।

इतिहास की किताबें अक्सर राजाओं की विजय, साम्राज्यों के विस्तार और सैनिक अभियानों की महिमा गान से भरी होती हैं। यद्यपि हम विद्यालयों में इतिहास को "अतीत से शिक्षा" का साधन मानते हैं, वास्तव में इतिहास का अधिकांश भाग हिंसा, सत्ता की लालसा और मानवीय दुर्बलताओं की गाथा है।

रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि युद्धों के औचित्य, नीतिक उलझनों और प्रतिशोध की कहानियाँ हैं। महाभारत का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि कैसे परिजन, गुरु और शिष्य भी जब स्वार्थ, सत्ता और ‘धर्म की रक्षा’ के नाम पर आमने-सामने होते हैं, तो परिणाम विनाश होता है।

मौर्य सम्राट अशोक के जीवन में कलिंग युद्ध एक निर्णायक मोड़ था। वह युद्ध जिसकी परिणति लाखों लोगों की मृत्यु और व्यापक विनाश में हुई—ने एक सम्राट को आत्मबोध की ओर मोड़ा। परंतु यह करुणा, यह करुणा तब आई जब वह अपने हाथों हुए नरसंहार को देख चुका था। इसी तरह अकबर, जिसने अपने आरंभिक जीवन में हिंसा के माध्यम से शासन विस्तार किया, वही आगे चलकर धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाता है—पर यह परिवर्तन भी अनुभव और सत्ता स्थिर होने के बाद ही आता है।


तकनीकी प्रगति का मूल क्या है? युद्ध।
प्रगति का हर यंत्र—चाहे वह पहिया हो या परमाणु बम—कहीं न कहीं भय, प्रतिस्पर्धा या प्रतिरोध से उत्पन्न हुआ है। युद्धों ने विज्ञान को आवश्यकताओं से परिचित कराया और विज्ञान ने युद्धों को नई गति दी।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौरान चिकित्सा, रसायन, एयरोनॉटिक्स और सूचना तकनीक में जो क्रांतियाँ आईं, वे सामान्य समय में दशकों में संभव न होतीं। रडार, रॉकेट, जेट इंजन, परमाणु शक्ति, कंप्यूटर—all these are wartime products. GPS, इंटरनेट, ड्रोन—ये सभी तकनीकें पहले युद्ध के लिए बनीं और बाद में नागरिक जीवन में आईं।

भारत में भी 1974 और 1998 के पोखरण परीक्षणों ने विज्ञान और शक्ति-प्रदर्शन को एक साथ जोड़ा। विज्ञान यहाँ भी एक आत्मरक्षा और शक्ति संतुलन का माध्यम बना, न कि केवल ज्ञान के प्रसार का।

तकनीक अब युद्ध का सबसे परिष्कृत रूप बन चुकी है—जहाँ युद्धक्षेत्र केवल सीमाओं तक सीमित नहीं, बल्कि साइबर स्पेस, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, और सूचना युद्ध तक फैल चुका है।

कश्मीर: हिंसा और 'सभ्यता' के बीच संघर्ष।
कश्मीर घाटी, जो कभी अपनी नैसर्गिक सुंदरता और सूफी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध थी, आज भय, अविश्वास और अस्थिरता की पहचान बन चुकी है।
1947 के विभाजन से लेकर आज तक कश्मीर भारत के लिए न केवल भौगोलिक चुनौती रहा है, बल्कि भावनात्मक और वैचारिक द्वंद्व का भी केंद्र बन चुका है।

घाटी में होने वाले आतंकवादी हमले इस बात का प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता की सबसे बड़ी विफलता शांति स्थापित करने में है। निर्दोष नागरिकों की हत्याएँ, सैनिकों पर घात लगाकर हमले, और धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा—ये सब केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपे आदिम पशुत्व का पुनः प्रकटीकरण हैं।
हाल के वर्षों में पहलगाम राजौरी, पुलवामा, और अनंतनाग जैसे क्षेत्रों में हुए हमले यह दिखाते हैं कि आतंकवाद न केवल हथियारों का खेल है, बल्कि वह वैचारिक ज़हर भी है, जो लोगों को यह विश्वास दिला देता है कि हिंसा ही समाधान है।

कश्मीर इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे ‘सभ्यता’ का मुखौटा फटता है, और नीचे वही आदिम वानर बाहर आता है—जिसे केवल अपनी अस्मिता और वर्चस्व दिखाना है, भले ही उसके लिए वह किसी भी हद तक जाए।

हिंदी साहित्य में भी यह द्वंद्व स्पष्ट है।
हिंदी साहित्य ने हमेशा मानवीय मनोविज्ञान के इस अंतर्विरोध को गहराई से समझा है। प्रेमचंद की कहानियाँ भले ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत करती हों, पर उनमें भी संघर्ष, लालच, अन्याय और कभी-कभी उत्पीड़न के विरुद्ध हिंसा की छाया दिखती है। उनकी कहानी "पंच परमेश्वर" में न्याय और मित्रता का टकराव इसी नैतिक उलझन को सामने लाता है।

धर्मवीर भारती की “अंधायुग” महाभारत की पृष्ठभूमि में लिखा गया ऐसा नाटक है जो युद्ध के बाद की नैतिक और मानसिक त्रासदी का अद्भुत चित्रण करता है। वहाँ कृष्ण भी मौन हैं, युधिष्ठिर भी संशय में हैं, और अंधों का साम्राज्य हर दृष्टि को धुंधला कर देता है।

दुष्यंत कुमार जैसे कवि जब यह लिखते हैं—
"इस शहर में वो कोई बारूद रख देता कहीं,
और फिर बेनाम हर दीवार उड़ जाती कहीं।"
—तो यह केवल राजनीतिक आलोचना नहीं, बल्कि उस विस्फोटक मानव प्रवृत्ति का संकेत है जो हर शांत चेहरे के पीछे छिपी बैठी है।

सभ्यता: एक पतली परत, नीचे छिपा पशु।
मनोविश्लेषण के जनक सिगमंड फ्रायड ने सभ्यता को हमारे भीतर की इच्छाओं और हिंसक प्रवृत्तियों पर थोपी गई एक सामाजिक व्यवस्था बताया था। हम जिन नियमों का पालन करते हैं, वे वास्तव में हमारे भीतर की बर्बरता को नियंत्रित करने के उपाय हैं। पर जैसे ही कोई संकट, डर, या लालच सामने आता है, यह आवरण चटकने लगता है।

आज हम जितनी भी 'संवेदनशील' बातें करते हैं—शांति सम्मेलन, मानवाधिकार, सह-अस्तित्व—वह सब तब तक हैं जब तक हमारे स्वार्थ सुरक्षित हैं। जैसे ही हमारी सत्ता, धर्म, जाति या पहचान को चुनौती मिलती है, हम उसी आदिम हिंसा की ओर लौट जाते  हैं।

मानव सभ्यता एक बहुपरती भ्रम है—एक ऐसा परदा जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम अपने पशु अतीत से आगे बढ़ चुके हैं। परंतु कश्मीर की घाटियों में गूंजती गोलियों की आवाज़, इतिहास के हर युद्ध की कथा, और तकनीकी विकास के पीछे छिपी सामरिक होड़ यह सिद्ध करती है कि हम आज भी हिंसक वानरों के वंशज हैं—जिन्हें केवल मुखौटा पहनना आ गया है।

हमारे भीतर की हिंसा को पहचानना और उसे नियंत्रित करना ही शायद सच्चा मनुष्यता का मार्ग है। वरना हम इतिहास को दोहराते रहेंगे—हर बार एक नए नाम, एक नए युद्ध और एक नई तकनीक के साथ एक नई जगह पर।

Wednesday, April 16, 2025

नृत्य : सृष्टि का स्पंदन और सत्य की मूर्त अभिव्यक्ति

नृत्य केवल एक कला नहीं, अपितु वह ब्रह्मांड की मूल गति, चेतना का सजीव संप्रेषण तथा सृष्टि का मौलिक स्पंदन है। यह मनुष्य के भीतर सुप्त सौंदर्य और ऊर्जा को जाग्रत करता है। कहा गया है कि ज्ञान और बल से मनुष्य 'नारायण' की ओर उन्मुख हो सकता है, परंतु नृत्य के माध्यम से ही वह मोहिनी रूप धारण कर संहारक भस्मासुर को भी मोहजाल में बांधकर सृष्टि की रक्षा करता है। यही नृत्य की शक्ति है—नवसृजन और रक्षा का अनुपम सामंजस्य।
भारत के खेतों में नाचता मोर हो अथवा अमेज़न के वर्षावनों में थिरकता फ्लेमिंगो—प्रकृति के प्रत्येक जीव का यह लयात्मक प्रदर्शन केवल सौंदर्य या आकर्षण नहीं, अपितु जीवन के आवाहन का संकेत है। नृत्य प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है, और कभी-कभी विरह की अंतर्दाह से उत्पन्न वेदना भी।

"यद् ब्रह्माण्डे, तत् पिण्डे"—इस ऋषि वाक्य की पुष्टि नृत्य के माध्यम से होती है। जिस प्रकार शिव का तांडव ब्रह्माण्ड की लयात्मक गति को दर्शाता है और पार्वती का लास्य सृजन की मधुरता का प्रतीक है, उसी प्रकार नर-मादा का नृत्य भी सृष्टि के अनवरत प्रवाह का प्रतिबिंब है। ताल की उत्पत्ति तांडव और लास्य के संगम से हुई है—यह केवल संगीत का मापक नहीं, वरन् ऊर्जा का संतुलन है।

सामवेद, जो ऋग्वैदिक ऋचाओं का गान है, उसमें नृत्य की लय और उसकी आध्यात्मिक अनुभूति का उल्लेख है—

"यद् विचेष्टन्ते ऋत्विजो गात्रैः साम्नां मधुना सह।
तद् नृत्यं देवमानुषं सञ्जग्मिरे महर्षयः॥"
(सामवेद, अरण्यक भाग)

अर्थात् जब ऋत्विज (ऋषि) साम के मधुर स्वरों के साथ अपने शरीरों से गतिमान होते हैं, तो वही नृत्य देव और मनुष्यों के मध्य की एक दिव्य कड़ी बन जाता है।



नृत्य वह भाषा है जो शब्दों से परे है। जिह्वा झूठ बोल सकती है, शब्द भटक सकते हैं, परंतु जब संपूर्ण शरीर एक लय में थिरकता है, तो वह केवल सत्य को अभिव्यक्त करता है। आँखें, हृदय, और गति—all align in resonance with the truth.

"नृत्यं यथा ब्रह्मरूपं सदा,
यत्र लयः सृष्टिजन्म हेतु:।
तस्मात् नृत्यं सत्यमेव ज्ञेयम्,
शिवस्य ताण्डवेन प्रमाणम्॥"
 नृत्य ब्रह्म की प्रतिछाया है, जहाँ लय सृष्टि का कारण बनती है; अतः नृत्य ही परम सत्य है, जिसका प्रमाण स्वयं शिव का तांडव है।

"नृत्येन मूर्तिमन् भावः,
नयनै: वाणीविहीन वक्ता।
यत्र शरीरं स्वयं कथयेत्,
सत्यं तत्र निःशब्दमपि स्फुटम्॥"

>नृत्य वह है जहाँ भाव स्वरूप धारण करता है, और नेत्र बिना वाणी के बोलते हैं। वहाँ शरीर स्वयं कथाकार होता है, और मौन भी स्पष्ट सत्य को प्रकट करता है।



 नृत्य केवल मनोरंजन या कला की एक विधा नहीं, बल्कि अस्तित्व की एक सूक्ष्मतम और सबसे प्रामाणिक भाषा है। यह सृजन का बीज है, प्रेम का माध्यम है, विरह का स्वर है और सत्य की गति है। नटराज से नारायण तक, प्रत्येक रूप नृत्य के द्वारा ही दिव्य बनता है। शब्द भले असत्य के सहचर हों, परंतु नृत्य—वह तो सदा सत्य के समीप होता है।

Tuesday, April 8, 2025

दान : एक विमर्श

"यह क्या दान कर रहे हैं, पिता?"
बालक नचिकेता की आँखों में गूढ़ जिज्ञासा थी।
"जिनसे स्वर्ग मिलेगा, बेटा। ये सब गायें हैं मेरी दान की वस्तु।"
पिता वाजश्रवस का स्वर आत्मगौरव से भरा हुआ था।

"किन्तु ये सभी गाएं तो बूढ़ी, रोगग्रस्त और दुग्धहीन हैं… क्या ये दान योग्य हैं?"
वाजश्रवस मौन हो गए। परंतु बालक नचिकेता अपने प्रश्न और हठ पर अडिग रहा।
" दान तो अपनी प्रिय वस्तु का किया जाता है, तात!!!"

"हे पिता! यदि आप सब कुछ दान कर रहे हैं, तो मुझे किसे देंगे?"

यह सुनकर क्रोध और खीझ से भरकर पिता ने कहा—
"जा! मैं तुम्हें मृत्यु को दान करता हूँ!"

यह संवाद केवल एक उपनिषदिक कथा नहीं, बल्कि दान की सच्ची भावना को परिभाषित करने वाली चिरकालिक गूंज है। कठोपनिषद में वर्णित यह प्रसंग नचिकेता की सत्य के प्रति तीव्र आकांक्षा और स्पष्ट दृष्टि को दर्शाता है। वाजश्रवस जैसे राजऋषि, जो धर्म के पालन हेतु यज्ञ कर रहे थे, वे भी सच्चे दान की भावना से विमुख हो चुके थे। वे वे वस्तुएँ दान कर रहे थे जो उपयोग से बाहर हो चुकी थीं—त्याज्य थीं। यह दान नहीं, केवल एक बाह्य आडंबर था।

नचिकेता की निर्भीकता, निष्कपट जिज्ञासा और नैतिक साहस ने इस पाखंड को चुनौती दी। यहीं से आरंभ होती है दान की शुद्धतम व्याख्या—जिसमें केवल वस्तु देना पर्याप्त नहीं, अपना कुछ प्रिय छोड़ने का साहस चाहिए।

दान वह नहीं जो उपयोगहीन हो। दान वह है जो हृदय के भीतर से निकलता है—निःस्वार्थ, निःशब्द, और निष्कलंक।

आज के समय में जब दान भी दिखावे और प्रचार का साधन बन चुका है, तब नचिकेता की कथा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
"आगे जाओ बाबा, छुट्टे नहीं हैं।"
यह वाक्य अब हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है। हम याचकों को देते तो हैं, पर तब जब जेब में कोई अठन्नी या निकम्मा सिक्का पड़ा हो। कोई भोजन मांगे तो बची हुई दाल और बासी रोटी उसकी ओर सरका दी जाती है। कपड़ों की माँग पर हमारे अलमारी के सबसे बदरंग और फटे वस्त्र दान के नाम पर याचकों के हिस्से कर दिए जाते हैं।

यह मानसिकता केवल हमारी सुविधा नहीं दर्शाती, यह दर्शाती है कि हमने दान को भी ‘वस्तु निपटान केंद्र’ बना दिया है।

भारतीय परंपरा में कहा गया है—
"सदा दानं गोपनीयं"
अर्थात् दान हमेशा गोपनीय होना चाहिए। परन्तु आज स्थिति उलट है। भोजन बाँटना हो, या कंबल देना—कैमरे साथ चलते हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट तैयार होती है। दान से ज़्यादा, चेहरा चमकता है।

यह न सेवा है, न परोपकार—यह आत्मप्रशंसा है, जहाँ याचक केवल प्रचार का माध्यम बनकर रह जाता है।

नचिकेता की कथा पुनः लौटती है—उसकी मृत्यु के द्वार तक यात्रा, उसका यमराज से संवाद, और अंततः उसका ज्ञान की ओर उन्मुख होना। यह कथा हमें सिखाती है कि दान केवल देने की क्रिया नहीं, यह एक आध्यात्मिक साधना है। सच्चा दान वहीं है जहाँ त्याग हो, निःस्वार्थता हो, और उसमें दिखावे की कोई मिलावट न हो।

दान की भावना केवल हिन्दू परंपरा तक सीमित नहीं है। इस्लाम में जकात और सदका के रूप में, सिख धर्म में वंड छकणा, और ईसाई परंपरा में चैरिटी के रूप में—हर धर्म में यह मूल मंत्र स्पष्ट है कि दान केवल वस्तु नहीं, दया, करुणा और प्रेम का प्रदर्शन है। जब हम अपने हिस्से का सर्वश्रेष्ठ, निस्वार्थ भाव से किसी ज़रूरतमंद को समर्पित करते हैं, तभी वह दान कहलाता है।

आज जब सामाजिक मंचों पर दिखावे की बाढ़ है, तो नचिकेता की यह कथा हमें मौन दान, गहन त्याग और अंतरात्मा की उस आवाज़ की याद दिलाती है, जो कहती है—
दान वही है जो दिया जाए बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी प्रदर्शन के—हृदय से।

Friday, April 4, 2025

सिंदूर

सिंदूर

वो स्नान के बाद आई,
जैसे मंदिर की मूर्ति जल से पवित्र हुई हो—
भीगी पलकों पर कुछ नमी,
और देह पर भोर की हल्की धूप।

वो शीशे के सामने रुकी,
धीरे से उठाया वह छोटा डिब्बा,
और जब उसने अपनी माँग में
लाल सिंदूर सजाया,
एक क्षण को समय रुक गया।

मैंने देखा—
उसके काले घने बालों के बीच
सूरज की पहली किरण
कुछ इस तरह उतर आई,
मानो स्वर्ण-रेखा कोई
रात्रि की गहराई में खो गई हो।

उसकी माँग में भरा लाल रंग
मुझे उसके जीवन की धड़कन-सा लगा,
जैसे किसी के प्रेम में डूबा रक्त
धमनियों से निकल
ललाट तक आ गया हो।

यह सिंदूर,
न केवल उसका श्रृंगार है,
बल्कि उसकी आस्था, उसकी शक्ति है—
जिसे वह हर दिन
अपने संकल्प की तरह पहनती है।

मैं अपलक निहारता रहा—
उस नारी में कोई देवी समाई थी,
या देवी ने उसका रूप लिया था?

सोचता रहा—
क्या वह सौभाग्यवती है
क्योंकि उसका कोई पति है?
या उसका पति ही
भाग्यशाली है
कि जीवन ने उसे
ऐसी अर्धांगिनी दी?

शायद,
यह सिंदूर उस लौ की तरह है
जो किसी और के जीवन को
उजाला दे जाती है,
बिना जले,
बिना कुछ कहे।

(महादेवपुर घाट, भागलपुर, चैत्र मास शुक्ल अष्टमी, 2025)