Wednesday, June 18, 2025

मन है तो मनुष्य हूं।

मन से मुक्त होना चाहता हूं,
जैसे कोई
भीतर घुसे साँप को
निष्कासित करना चाहता हो
— बिना स्वयं डंसे हुए।

मैंने अपने भीतर
दीवारें खड़ी कीं,
विचारों की ईंटों से,
संकल्पों के गारे से,
पर वह —
मन —
रेंगता रहा
हर दरार से रिसकर
मेरी ही रीढ़ में काँपता रहा।

मैंने आग जलाई
वासनाओं को भस्म करने,
पर वह राख ओढ़
साधु बन गया —
और तप करने लगा मेरे ही अंतर्मन में।

मैंने मौन साधा,
शब्दों को निर्वासित किया,
पर उसने
मौन की कोख से
नई भाषा जन्म दी —
जिसमें केवल मैं बोलता था
और सुनने वाला भी मैं ही था।

मैंने कहा — “बस!
अब तू नहीं, केवल मैं।”
पर वही क्षण था
जब मैं भी 'मैं' न रह सका।
क्योंकि
जो मन को जीतना चाहता है,
वह पहले स्वयं को हारता है।
जब तक मनुष्य हूं,
लड़ता रहूंगा मन से।

लेकिन क्या बिना मन लगाए 
मन से लड़ी लड़ाई जीत पाऊंगा।
मन के अधीन अब मन नहीं लगता।
और शायद
यही अंतिम सत्य है —
कि मन से ही मानव है।
मन है तो मनुष्य हूं।
मनुष्य हूं क्योंकि मन है।


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