नृत्य केवल एक कला नहीं, अपितु वह ब्रह्मांड की मूल गति, चेतना का सजीव संप्रेषण तथा सृष्टि का मौलिक स्पंदन है। यह मनुष्य के भीतर सुप्त सौंदर्य और ऊर्जा को जाग्रत करता है। कहा गया है कि ज्ञान और बल से मनुष्य 'नारायण' की ओर उन्मुख हो सकता है, परंतु नृत्य के माध्यम से ही वह मोहिनी रूप धारण कर संहारक भस्मासुर को भी मोहजाल में बांधकर सृष्टि की रक्षा करता है। यही नृत्य की शक्ति है—नवसृजन और रक्षा का अनुपम सामंजस्य।
भारत के खेतों में नाचता मोर हो अथवा अमेज़न के वर्षावनों में थिरकता फ्लेमिंगो—प्रकृति के प्रत्येक जीव का यह लयात्मक प्रदर्शन केवल सौंदर्य या आकर्षण नहीं, अपितु जीवन के आवाहन का संकेत है। नृत्य प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है, और कभी-कभी विरह की अंतर्दाह से उत्पन्न वेदना भी।
"यद् ब्रह्माण्डे, तत् पिण्डे"—इस ऋषि वाक्य की पुष्टि नृत्य के माध्यम से होती है। जिस प्रकार शिव का तांडव ब्रह्माण्ड की लयात्मक गति को दर्शाता है और पार्वती का लास्य सृजन की मधुरता का प्रतीक है, उसी प्रकार नर-मादा का नृत्य भी सृष्टि के अनवरत प्रवाह का प्रतिबिंब है। ताल की उत्पत्ति तांडव और लास्य के संगम से हुई है—यह केवल संगीत का मापक नहीं, वरन् ऊर्जा का संतुलन है।
सामवेद, जो ऋग्वैदिक ऋचाओं का गान है, उसमें नृत्य की लय और उसकी आध्यात्मिक अनुभूति का उल्लेख है—
"यद् विचेष्टन्ते ऋत्विजो गात्रैः साम्नां मधुना सह।
तद् नृत्यं देवमानुषं सञ्जग्मिरे महर्षयः॥"
(सामवेद, अरण्यक भाग)
अर्थात् जब ऋत्विज (ऋषि) साम के मधुर स्वरों के साथ अपने शरीरों से गतिमान होते हैं, तो वही नृत्य देव और मनुष्यों के मध्य की एक दिव्य कड़ी बन जाता है।
नृत्य वह भाषा है जो शब्दों से परे है। जिह्वा झूठ बोल सकती है, शब्द भटक सकते हैं, परंतु जब संपूर्ण शरीर एक लय में थिरकता है, तो वह केवल सत्य को अभिव्यक्त करता है। आँखें, हृदय, और गति—all align in resonance with the truth.
"नृत्यं यथा ब्रह्मरूपं सदा,
यत्र लयः सृष्टिजन्म हेतु:।
तस्मात् नृत्यं सत्यमेव ज्ञेयम्,
शिवस्य ताण्डवेन प्रमाणम्॥"
नृत्य ब्रह्म की प्रतिछाया है, जहाँ लय सृष्टि का कारण बनती है; अतः नृत्य ही परम सत्य है, जिसका प्रमाण स्वयं शिव का तांडव है।
"नृत्येन मूर्तिमन् भावः,
नयनै: वाणीविहीन वक्ता।
यत्र शरीरं स्वयं कथयेत्,
सत्यं तत्र निःशब्दमपि स्फुटम्॥"
>नृत्य वह है जहाँ भाव स्वरूप धारण करता है, और नेत्र बिना वाणी के बोलते हैं। वहाँ शरीर स्वयं कथाकार होता है, और मौन भी स्पष्ट सत्य को प्रकट करता है।
नृत्य केवल मनोरंजन या कला की एक विधा नहीं, बल्कि अस्तित्व की एक सूक्ष्मतम और सबसे प्रामाणिक भाषा है। यह सृजन का बीज है, प्रेम का माध्यम है, विरह का स्वर है और सत्य की गति है। नटराज से नारायण तक, प्रत्येक रूप नृत्य के द्वारा ही दिव्य बनता है। शब्द भले असत्य के सहचर हों, परंतु नृत्य—वह तो सदा सत्य के समीप होता है।
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