ऑफिस के काम से तिरुवनंतपुरम जाना था — एक महत्वपूर्ण बैठक थी। वही सुबह उठकर फॉर्मल कपड़े पहनना, अपना लैपटॉप बैग लेना और साथ में एक टाई रख लेना जो मीटिंग से पहले गले में डाल सकूं।
मैं हमेशा की तरह समय से तीन घंटे पहले एयरपोर्ट पहुँच गया, कैपुचीनो के साथ लैपटॉप खोल कर ईमेल खंगाल रहा था और प्रेजेंटेशन में फाइनल टच दे रहा था।
तभी देखा — श्रीनिवासन सर, हमारे डायरेक्टर साहब… पर वो जैसे पहले कभी दिखे ही नहीं थे।
नंगे पाँव।
काले कपड़े।
गले में रुद्राक्ष, माथे पर चंदन। एक पल को लगा, शायद किसी धार्मिक सीरीज़ की शूटिंग कर रहे हैं।
लेकिन नहीं। वे गंभीर थे, शांत थे, और भीतर से बेहद प्रसन्न दिख रहे थे। "सर?" मैंने चौंकते हुए कहा।
उन्होंने मुस्कराकर सिर झुकाया।
"सबरीमाला," उन्होंने धीरे से कहा।
"स्वामी अय्यप्पा का बुलावा आया है। 41 दिन का व्रतम पूरा हुआ, अब यात्रा के अंतिम चरण पर हूँ।"
मैं सन्न रह गया।
एक कॉरपोरेट वर्ल्ड का सख्त, प्रोसेस-ड्रिवन व्यक्ति, जो रोज़ KPI और ROI में उलझा रहता है…
आज एक श्रद्धालु बनकर मेरे सामने खड़ा था — वह भी नंगे पाँव।
मैं पूरी फ्लाइट में सोचता रहा —
कौन सा बल होता है, जो इंसान को इस तरह बदल देता है? उस दिन पहली बार सबरीमाला की कठिन यात्रा के बारे में उनसे सुना और जान कर भक्ति रस में सराबोर हो गया।
सालों बाद आज 31 जुलाई 2025 में— ट्रेन में, पटना से भागलपुर जा रहा हूं। बहुत कुछ बदल गया है इस बीच में। कॉर्पोरेट जीवन को विदा कह चुका हूं। अब बिहार में बस गया हूं। पर बिहार से बाहर रहने के बाद बिहार अब भी चमत्कृत कर जाता है।
सावन भले ही अपने आखिरी चरण में हो, सावन के भक्त गण बोल बम कांवड़िए अपने पूरे उफान पर हैं। पूरी ट्रेन जैसे भगवा में रंग गई हो। "बोल बम" के नारे किसी राग की तरह गूंजते हैं।
मुझे बिहार में जन्मे हुए चार दशक हो चुके हैं।
कांवड़ यात्रा मेरे लिए कोई नई बात नहीं —
पर इस बार कुछ बदल गया है।
शायद नज़रिया।
मेरे सामने एक कांवड़ियों का जत्था बैठा है।
सिर पर गमछा, कंधे पर कांवड़, पैरों में छाले…
फिर भी चेहरों पर थकान नहीं — एक संतोष है, उत्साह है।
तभी मेरी आंखें उस पल से टकराईं, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता —एक दृष्टिबाधित कांवड़ियों का जत्था।
एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने वाले वो श्रद्धालु —
जिनकी आंखें नहीं थीं, लेकिन आस्था की रोशनी उनमें इतनी थी, कि रास्ता खुद उनके लिए झुककर बन रहा था। मैं देर तक उन्हें देखता रहा।
एक किशोर लड़का एक वृद्ध को थामे चल रहा था।
शायद वही उनका "नेता" था।
उनकी कांवड़ें कपड़े से सजी थीं — किसी ने उनके माथे पर “ॐ नमः शिवाय” का अस्थाई ही सही चंदन वाला टैटू बना रखा था। मुझे अपने बचपन के वो दिन याद आ गए, जब हमारे गांव में भी कांवड़ियों का जत्था रुकता और पूरा गांव उनकी सेवा में लगा रहता।
हर हर महादेव का स्वर पूरे गांव में गुंजायमान रहता।
मैं उनके साथ गंगाजल भरता, और सोचता —
क्या भगवान सच में इतने दूर हैं कि इतने लंबे सफर की ज़रूरत है?
आज समझ में आया —
सफर भगवान के लिए नहीं होता… अपने भीतर के विश्वास तक पहुँचने के लिए होता है।
आज मन भीतर से भीगा है।
मैंने दो यात्राएं कीं —
एक कॉरपोरेट डायरेक्टर के साथ सबरीमाला की ओर,
और एक गरीब, दृष्टिहीन बालक के साथ देवघर की ओर।
पर दोनों यात्राओं में एक ही बात समान थी —
श्रद्धा, जो न उम्र देखती है,
न भाषा, न शरीर की सीमा।
भारत सिर्फ एक भूगोल नहीं है,
यह भक्ति का एक जीवित नक्शा है —
जहाँ हर रास्ता कहीं न कहीं ईश्वर की ओर ले जाता है।
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