Wednesday, April 23, 2025

क्रौंच पुनः रोया है

तमसा तट नहीं, यह पहलगाम है,
स्वर्ग नहीं, यह पीड़ा का ग्राम है।
प्रेम की गोदी में विश्राम करता जो,
एक पल में छिन गया जीवन संजो।

वह न सोया—बलि चढ़ा निर्ममता पर,
वह न बोला—पर चीख गूंजती अंतर।
उसके सिरहाने बैठी वह नारी,
बिन शब्दों के बिन आँसू के पुकारी।

क्रौंच की मादा फिर से विलपी,
करुणा की कविता फिर से खिली।
"अरे शिकारी! तू क्यों बना पीड़ा की झोलीं,
वो करुणा नहीं, श्राप था जो आँखों से बोलीं।"
 

 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

श्लोक वो अब सिर्फ ग्रंथों में नहीं,
हर करुण चीख में बहती वहीं।
निर्दोष लहू से जो रेखा बनी है,
काल की मुहर उस दिन ही लगी है।

शब्दों से भी भारी होता है मौन,
जब न्याय रोता है, और शक्ति रहती है गौण,
जिस दिन मासूम की छाती पर वार होता है,
उसी दिन से प्रारंभ अधर्मी का संहार होता है।


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