Tuesday, April 8, 2025

दान : एक विमर्श

"यह क्या दान कर रहे हैं, पिता?"
बालक नचिकेता की आँखों में गूढ़ जिज्ञासा थी।
"जिनसे स्वर्ग मिलेगा, बेटा। ये सब गायें हैं मेरी दान की वस्तु।"
पिता वाजश्रवस का स्वर आत्मगौरव से भरा हुआ था।

"किन्तु ये सभी गाएं तो बूढ़ी, रोगग्रस्त और दुग्धहीन हैं… क्या ये दान योग्य हैं?"
वाजश्रवस मौन हो गए। परंतु बालक नचिकेता अपने प्रश्न और हठ पर अडिग रहा।
" दान तो अपनी प्रिय वस्तु का किया जाता है, तात!!!"

"हे पिता! यदि आप सब कुछ दान कर रहे हैं, तो मुझे किसे देंगे?"

यह सुनकर क्रोध और खीझ से भरकर पिता ने कहा—
"जा! मैं तुम्हें मृत्यु को दान करता हूँ!"

यह संवाद केवल एक उपनिषदिक कथा नहीं, बल्कि दान की सच्ची भावना को परिभाषित करने वाली चिरकालिक गूंज है। कठोपनिषद में वर्णित यह प्रसंग नचिकेता की सत्य के प्रति तीव्र आकांक्षा और स्पष्ट दृष्टि को दर्शाता है। वाजश्रवस जैसे राजऋषि, जो धर्म के पालन हेतु यज्ञ कर रहे थे, वे भी सच्चे दान की भावना से विमुख हो चुके थे। वे वे वस्तुएँ दान कर रहे थे जो उपयोग से बाहर हो चुकी थीं—त्याज्य थीं। यह दान नहीं, केवल एक बाह्य आडंबर था।

नचिकेता की निर्भीकता, निष्कपट जिज्ञासा और नैतिक साहस ने इस पाखंड को चुनौती दी। यहीं से आरंभ होती है दान की शुद्धतम व्याख्या—जिसमें केवल वस्तु देना पर्याप्त नहीं, अपना कुछ प्रिय छोड़ने का साहस चाहिए।

दान वह नहीं जो उपयोगहीन हो। दान वह है जो हृदय के भीतर से निकलता है—निःस्वार्थ, निःशब्द, और निष्कलंक।

आज के समय में जब दान भी दिखावे और प्रचार का साधन बन चुका है, तब नचिकेता की कथा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
"आगे जाओ बाबा, छुट्टे नहीं हैं।"
यह वाक्य अब हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है। हम याचकों को देते तो हैं, पर तब जब जेब में कोई अठन्नी या निकम्मा सिक्का पड़ा हो। कोई भोजन मांगे तो बची हुई दाल और बासी रोटी उसकी ओर सरका दी जाती है। कपड़ों की माँग पर हमारे अलमारी के सबसे बदरंग और फटे वस्त्र दान के नाम पर याचकों के हिस्से कर दिए जाते हैं।

यह मानसिकता केवल हमारी सुविधा नहीं दर्शाती, यह दर्शाती है कि हमने दान को भी ‘वस्तु निपटान केंद्र’ बना दिया है।

भारतीय परंपरा में कहा गया है—
"सदा दानं गोपनीयं"
अर्थात् दान हमेशा गोपनीय होना चाहिए। परन्तु आज स्थिति उलट है। भोजन बाँटना हो, या कंबल देना—कैमरे साथ चलते हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट तैयार होती है। दान से ज़्यादा, चेहरा चमकता है।

यह न सेवा है, न परोपकार—यह आत्मप्रशंसा है, जहाँ याचक केवल प्रचार का माध्यम बनकर रह जाता है।

नचिकेता की कथा पुनः लौटती है—उसकी मृत्यु के द्वार तक यात्रा, उसका यमराज से संवाद, और अंततः उसका ज्ञान की ओर उन्मुख होना। यह कथा हमें सिखाती है कि दान केवल देने की क्रिया नहीं, यह एक आध्यात्मिक साधना है। सच्चा दान वहीं है जहाँ त्याग हो, निःस्वार्थता हो, और उसमें दिखावे की कोई मिलावट न हो।

दान की भावना केवल हिन्दू परंपरा तक सीमित नहीं है। इस्लाम में जकात और सदका के रूप में, सिख धर्म में वंड छकणा, और ईसाई परंपरा में चैरिटी के रूप में—हर धर्म में यह मूल मंत्र स्पष्ट है कि दान केवल वस्तु नहीं, दया, करुणा और प्रेम का प्रदर्शन है। जब हम अपने हिस्से का सर्वश्रेष्ठ, निस्वार्थ भाव से किसी ज़रूरतमंद को समर्पित करते हैं, तभी वह दान कहलाता है।

आज जब सामाजिक मंचों पर दिखावे की बाढ़ है, तो नचिकेता की यह कथा हमें मौन दान, गहन त्याग और अंतरात्मा की उस आवाज़ की याद दिलाती है, जो कहती है—
दान वही है जो दिया जाए बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी प्रदर्शन के—हृदय से।

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