Sunday, July 31, 2022

नए कोंपल की जरूरत

कोई पेड़ कितना जिएगा, उसकी आयु कितनी बची है यह इस बात पर उतना निर्भर नहीं करता कि तना कितना मजबूत है। या उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। तना कितना भी मजबूत हो , तनों पर फूल नहीं खिलते। तनों से फल नहीं लगते। फूल खिलते हैं नई पतली टहनियों पर, फूल खिलते हैं नई कोंपलों से। भले जड़ कितनी भी गहरी क्यों ना हो, प्रकाश संश्लेषण का काम नहीं कर सकती जिससे वृक्ष को नई ऊर्जा मिलती है। 

किसी वृक्ष की जीवन आयु इस बार पर निर्भर करती है कि उसमें नए पत्ते आ रहे हैं या नहीं। क्योंकि विकास और वृद्धि नई कोंपलों से ही हो सकती है। भविष्य की संभावनाओं से भरे नए बीज, नई हरी टहनियों से लगे नए फलों के अंदर ही संरक्षित हो सकते हैं।
कोई भी विचारधारा, संस्था तब तक हो जीवन्त बनी रहती है जब तक युवा उसकी ओर आकर्षित हो उसमें शामिल होते रहते हैं। यह युवा ही संस्था में प्राण वायु का संचार करते हैं, विचारधारा के बीजों को संरक्षित करते हैं और दूर दूर तक नई पौध का आधार बनते हैं। हरे पत्तों के बिना मजबूत से मजबूत तना भी ठूंठ बन जाता है और हरे पत्तों के बिना गहरी जड़ें भी बिना श्वास के सूख जाती हैं। 

Friday, July 29, 2022

निंदक को नियरे राखिए, मन में नहीं।

खाना खाना आसान है, बनाना नहीं। फिल्म देखना आसान है , बनाना नहीं। खेल देखना आसान है, खेलना नहीं। परीक्षा की तैयारी के लिए निर्देश देना आसान है, परीक्षा पास करना नहीं।बच्चों को कम अंक आने पर डांटना आसान है, बच्चों को पढ़ाना मुश्किल। इसलिए फूड ब्लॉगर ज्यादा हैं शेफ कम। फिल्म क्रिटिक्स ज्यादा हैं फिल्मकार कम। खिलाड़ी कम हैं कॉमेंटेटर ज्यादा। कोचिंग चलाने वाले ज्यादा हैं , आईएएस अधिकारी कम। डांटने वाले ज्यादा तो शिक्षक कम। 
अगर आप हर क्षेत्र में टिप्पणीकार की भूमिका में हैं तो आवश्यक है कि कम से कम एक क्षेत्र में आप रचनाकार बनें, कर्ता बनें। फिर आप अपनी टिप्पणी को रचनात्मक बना पाएंगे, कर्ता के प्रति सहानुभूति रखेंगे और अपमान करने की प्रवृति से बचेंगे । जिसने लिखा ही नहीं उसकी वर्तनी की गलती तो होगी नहीं ।यह भी संभव है कि आप रचनाकार और कर्ता की भूमिका में हैं और टिप्पणीकारों से परेशान हो गए हों, तो याद रखें कि कबीर दास ने निंदक को नजदीक रखने कहा है न कि अपने मन मस्तिष्क में उनको बसा लेने के लिए। अपने मन मस्तिष्क को अपनी रचनात्मकता के लिए खाली रखिए वहां निंदक को घर बनाने ना दें। निंदक का योगदान जरूरी है लेकिन बस स्वच्छ करने के लिए साबुन की तरह ही। साबुन बाहर लगाया जाता है, खाया नहीं जाता। 

Friday, July 22, 2022

सब्सिडी का खेल

सब्सिडी, जिसे हिंदी में सहायिकी या राज्य सहायता कहा जाता है, की परिभाषा अगर हम देखें तो हमें दो बातें पता चलती हैं। यह जरूरी वस्तुओं और सेवाओं पर जरूरतमंद तबके को सरकार द्वारा दी जाने वाली छूट या सहायता है । यहां सरकार इन वस्तुओं या सेवाओं को उनके उत्पादन मूल्य से कम कीमत पर उपलब्ध करवाती है। भारत जैसे कल्याणकारी राज्य के लिए, जिनके संविधान की प्रस्तावना में ही समाजवादी शब्द प्रयुक्त हुआ है और फिर चाहे नीति निदेशक तत्व हों या अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार हो, इन सबमें एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा निहित है, हमारी योजनाओं के लिए सब्सिडी एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपागम है। 

समस्या उत्पन्न होती है जब राज्य के नीतियां या उनको लागू करने के तरीके से सब्सिडी की मूल परिभाषा से भटकाव होने लगता है। यह भटकाव दो तरीकों से हो सकता है , पहला सरकार इन चीजों पर छूट दे जो गैर जरूरी श्रेणी में आती हों। दूसरा तरीका है कि छूट का लाभ उनको मिले जिनको इसकी आवश्यकता नहीं है। हालिया वर्षों में भारत में सब्सिडी के लिए मुफ्तखोरी, रेवड़ी बांटना जैसे शब्दों का प्रचलन बढ़ा है तो इसके पीछे के कारणों की तहकीकात भी आवश्यक है। 

भारत में जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सब्सिडी दी जाती है वो 3F से पहचाने जाते हैं फूड, फ्यूल और फर्टिलाइजर। फूड सब्सिडी यानी खाद्य सब्सिडी हमारे यहां सबसे बड़ा मद है खास कर खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद। 75% ग्रामीण और 50% शहरी जनसंख्या खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत नगण्य कीमतों पर खाद्यान्न पाती है। भारत जैसे देश में भूख की समस्या पर काबू पाने के लिए यह कदम आवश्यक है, लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि इस के दायरे में एक बड़ी ऐसी जनसंख्या भी शामिल है जिसको शायद इस छूट का लाभ नहीं मिलना चाहिए।
सब्सिडी का दूसरा सबसे बड़ा मद है फर्टिलाइजर या उर्वरक। ऊपरी तौर पर देखें तो भारत, जिसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि मानी जाती है, में कृषि को सहायक उर्वरक सब्सिडी सही दिखती है। लेकिन उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी के पर्यावरणीय दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भूजल प्रदूषण, खाद्य श्रृंखला संकेंद्रण , कैंसर जैसी बीमारियां और घटती जैव विविधता इसके दुष्परिणाम हैं।
पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी भारतीय अर्थव्यवस्था की दुखती रग है। एक तो पेट्रोलियम के आयात का बोझ उपर से जो डीजल सब्सिडी किसानों के लिए लक्षित है उसका प्रयोग महंगी एसयूवी गाड़ियों के द्वारा किया जाना। इनके अलावा कृषि सम्बद्ध अन्य सब्सिडी जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि उपकरण सब्सिडी का भी अच्छा खासा योगदान बन पड़ता है।

भारत में बढ़ते सब्सिडी के बोझ और कोरोना काल के दौरान आई इसमें अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बीच यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो उठा है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर चलाई जा रही योजनाएं हमारे लक्ष्य के साधक हैं या क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के साधक मात्र बन के राज गए हैं। अगर ऐसा है तो हमारी इस नीति की पुनरीक्षण की आवश्यकता है। हां एक बात यहां साफ कर देना जरूरी है कि हमें बाहरी दवाब में आकर सब्सिडी कम या खत्म करने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है। विकसित देश WTO जैसी संस्थाओं के मंच से भारत पर सब्सिडी खत्म करने का जो दवाब बनाया जाता है वो उनके दोहरे चरित्र को उजागर ही करता है। विकसित देश खुद अपने देश में हमारे देश से बीसियों गुना सब्सिडी देते हैं। वर्ष 2018 में भारत जहां अपने किसानों को 49 डालर की सब्सिडी देता था वहीं अमेरिका अपने किसानों को औसतन सत्रह सौ डालर से ऊपर की सब्सिडी देता था। यही हाल कमोबेश यूरोप , ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का है। यह देश भी अपने किसानों, दूध उत्पादक , मुर्गी पालकों और सूअर पालकों को भारत से कहीं अधिक सब्सिडी देते हैं। भारत में सब्सिडी जहां गरीबी उन्मूलन, अंत्योदय जैसे लक्ष्यों से चालित है, इन देशों की सब्सिडी पॉलिसी पूरी तरह से बाजार आधारित और मुनाफा खोरी और भारत जैसे विशाल बाजार पर कब्जा करने की नीति से प्रेरित है।
अब रही बात हमारी सब्सिडी पॉलिसी में सुधार की बात तो शायद इससे ज्वलंत मुद्दा शायद ही कोई हो। बेतहाशा लोकलुभावन वादे और योजनाओं के कारण हमारे कुछ राज्य इस हालत में पहुंच गए हैं जहां उन्हें अपने पिछले कर्ज के सूद को चुकाने के लिए नया कर्ज लेना पड़ रहा है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। 

सबसे पहले तो हमें अपने लक्षित लाभुकों के पहचान की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। जिस प्रकार नीम कोटेड यूरिया से यूरिया की कालाबाजारी कम हो गई है उसी प्रकार से नवाचार आधारित उपाय अन्य क्षेत्रों में भी लगाना पड़ेगा। आधार, मोबाइल और जन धन खाता की तिकड़ी के आधार पर सीधे लाभ अंतरण सिस्टम का कड़ाई से शत प्रतिशत अनुपालन करवाना होगा ताकि सब्सिडी का लाभ सिर्फ जरूरतमंदों तक ही पहुंचे। ऐसे क्षेत्रों में सब्सिडी बिलकुल ही सीमित होनी चाहिए जिसके लिए हम आयातित हाइड्रोकार्बन या कोयला पर आधारित हैं। कोयले से उत्पादित बिजली को सस्ती दरों पर बांट कर हम अपनी अर्थव्यवस्था , जलवायु, सतत विकास लक्ष्य और वैश्विक छवि सबके साथ एक साथ गंभीर मजाक कर रहे हैं।

इससे बड़ी ज़रूरत होगी सब्सिडी के राजनैतिक दुरुपयोग को रोकने की। चुनावी रैलियों के मंच से गहन आर्थिक फैसले लेने की प्रवृति पर रोक लगाना आवश्यक है। इससे लिए सम्मिलित राजनैतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है और अगर आवश्यक हो तो चुनाव आचार संहिता में भी बदलाव लाया जाना चाहिए। इससे देश की विकास और सतत आर्थिक प्रगति की जगह लोक लुभावन नीतियों के द्वारा जनता को रिश्वत देने की प्रवृति रुकेगी। आखिर में जिम्मेदारी हम जनता की भी बनती है, हम सब का दायित्व बनता है कि हम अपने देश को एक परिवार समझें। जिस प्रकार परिवार में किसी बीमार सदस्य के लिए एक गिलास दूध ज्यादा रखा जाता है तो परिवार के अन्य सदस्य कोई आपत्ति नहीं करते और न ही बीमार होने का स्वांग करते हैं कि उन्हें भी दूध मिल जाय। उसी प्रकार सब्सिडी हमारे परिवार के वंचितों के लिए है, उनको ही लेने दिया जाय। बाकी लोगों को संयम और संतोष का अनुशासन पालन करना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ना ही कभी परिवार का बीमार सदस्य अपनी निर्धारित खुराक पा सकेगा और बाकी सदस्य वंचन के भाव से प्रेरित हो असंतुष्ट ही रहेंगे।

http://m.rashtriyasahara.com/imageview_26318_97306484_4_9_23-07-2022_4_i_1_sf.html

द्रौपदी का नाम

तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी
द्रुपद की बेटी के अलावा क्या 
थी तुम्हारी पहचान?
श्याम वर्ण की थी इसीलिए
शायद कृष्णा कही गई,
पर यह तो तुम्हारे रंग पर
एक कटाक्ष भर ही था
इसीलिए सोचता हूं
कि तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी?

पांचाली नाम सिर्फ इसलिए क्योंकि
तुम पांचाल की थी
क्या बहुओं को उनके मायके के
नाम से बुलाना उस समय से ही है
तुम्हारा कुछ तो नाम तो होगा
अर्जुन , भीष्म , देवव्रत की तरह
क्या तुमने कभी अपना नाम तक जाना
या छुपाती रही जीवन भर।

कहने को सैरंध्री था एक छद्म नाम
लेकिन तुम्हारा तो हर नाम छद्म ही था
किसी नाम ने नहीं बताया 
तुम्हारे बारे में
बताया सिर्फ उन बंधनों के बारे में
जिनमें तुम बंधी रही आजन्म।

तुम आई नहीं थी दुनिया में
एक स्त्री और पुरुष के
 प्रेम मिलन से
बल्कि तुम उत्पन्न हुई दो पुरुषों
के अहंकार और अपमान 
की जलन से
अग्नि की कोख से पली 
पिता के प्रतिशोध की 
आहुति से सींची गई
एक संतान से ज्यादा 
एक अस्त्र थी
अपने पिता के लिए।
इसीलिए शायद एक नाम 
तक ना पा सकी ।
इतिहास के पन्नों में
लिखी गई महाभारत 
भले कहलाए महाकाव्य
कही जाय एक पूर्ण कथा
लेकिन अनुत्तरित रहता है
यह प्रश्न  अब भी कि
तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी।









Wednesday, July 20, 2022

वैशाली का विशाल यश

वैशाली विरुद्धों का सामंजस्य है। एक तरफ यह समस्त सांसारिक विषयों का त्याग कर कैवल्य प्राप्त करने वाले भगवान महावीर की भूमि है तो वहीं पाषाण ह्रदय में भी आसक्ति के बीज पनपा देने वाली वैशाली की नगरवधू आम्रपाली की भूमि भी है। वैशाली विश्व का पहला गणराज्य तो था ही, यही पर पहली बार सौंदर्य के सम्मान दिए गए। मिस वर्ल्ड और मिस इंडिया जैसे सम्मान सदियों पहले वैशाली में नगरवधू के नाम से दिए गए। अंबापालिका या आम्रपाली पहली विश्वसुंदरी कही जा सकती है।

यहीं पर कपिलवस्तु से निकलकर सिद्धार्थ आए और बुद्ध बनने की राह में अपने ब्राह्मण गुरू अलार कलाम से मिले। वैशाली बुद्ध के भी गुरु की भूमि है जहां युवा सिद्धार्थ ने ध्यान और तप की बुनियादी बातें ग्रहण की। बुद्ध बनने के बाद भी वो बहुधा वैशाली आते रहे। बौद्ध विहारों में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति वैशाली में ही मिली थी। बुद्ध बनने की राह पर पहला कदम अगर वैशाली में उठाया गया था तो अपने महापरिनिर्वाण की यात्रा में कुशीनगर के लिए बुद्ध यहीं से निकले थे। वैशाली के लोग बुद्ध के साथ चल पड़े, बुद्ध ने उनसे निवेदन किया कि वो लौट जाएं लेकिन वैशाली के गण माने नहीं। भगवान बुद्ध ने उनको अपना भिक्षा पात्र तक दे दिया लेकिन बुद्ध के पीछे आने का वैशाली वालों का हठ दूर ना हुआ। अंततः केसरिया गांव से वैशाली वाले लोग लौटे और बुद्ध अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। बाद में सम्राट अशोक ने यहां स्तूप का निर्माण कराया जो आज भी संरक्षित है। 

शिषुनाग वंश के सम्राट कालाशोक ने द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन भी वैशाली में ही किया था। यहीं बौद्ध धर्म स्थापित और महासंघिक दो भागों में विभक्त हुआ। अभिषेक पुष्करिणी वो स्थान है जहां वैशाली गणराज्य के नवनिर्वाचित जन प्रतिनिधि जन कल्याण की शपथ लेते थे जिसे आप आजकल शपथ ग्रहण समारोह के रूप में देख सकते हैं। उसी कुंड में खिले सौंदर्य से सने खिले कमल आपका स्वागत करते हैं। यह वोही कमल हैं जिन्हें बाबर ने पहली बार सासाराम में देखा था और जिसका वर्णन उनसे अपनी आत्मकथा में किया है। यही कमल आपको वैशाली में अशोक स्तंभ में भी शेर की प्रतिमा में दिखेगा लेकिन उल्टा। 

वैशाली का इतिहास बुद्ध और जैन काल से भी पुराना है। राजा विशाल जिनके नाम पर वैशाली इश्वाकु वंश के शासक थे , वोही वंश जिससे पुरुषोत्तम भगवान राम थे। राजा विशाल के नाम पर विशालपुरी नाम कालांतर में वैशाली हो गया। यह वैशाली की प्रसिद्धि ही थी फहयान और ह्वेनसांग दोनो यहां आए और यहां का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया। और हां, वैशाली में अशोक का वो स्तंभ भी है जिसपर शेर की प्रतिमा है। आज भी पूर्णतः सुरक्षित है महान अशोक का शेर और शेर की वो मुस्कान (!!) । कभी बिहार आएं तो वैशाली के विशाल इतिहास को करीब से महसूस करने का मौका न गवाएं।



Friday, July 15, 2022

आर्थिक संकट और स्टार्टअप

2008 की आर्थिक मंदी की यादें अभी ठीक से गई भी नहीं थी कि एक गहरे आर्थिक संकट के पूर्वानुमानों से हम मुखातिब हैं। विविध पूर्वानुमान बता रहे हैं कि आने वाला आर्थिक संकट वर्ष 2008 से भी गहरा हो सकता है। वर्ष 2021 में कोविड से अधिकतम प्रभावित वर्ष 2020 के बाद बाजार में लंबित मांग के कारण काफी उत्साह का माहौल रहा , वर्तमान वर्ष में आकर यह उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है। वर्ष 2021 जहां भारत में कुल 42 यूनिकॉर्न बने इस साल यूनिकॉर्न स्टार्टअप के बारे में कर्मचारियों की छंटनी की खबरे ज्यादा आ रही हैं।

शायद भारतीय स्टार्टअप का स्वर्णिम दौर कुछ वक्त के लिए थम सा गया है। भारतीय स्टार्टअप के लिए विदेशी फंडिंग में तीव्र कमी आई है। इसके कारणों का विवेचन करने पर हमें सदी के पहले आर्थिक संकट डॉट कॉम बबल संकट की याद आती है। भारतीय मार्केट में निवेश के संकट की छवि और कारणों को बीस साल पहले आए संकट में तलाश सकते हैं। इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ ही जहां डॉट कॉम कंपनियों की बाढ़ आ गई थी , उनमें बिना ज्यादा सोच विचार किए निवेश की प्रवृति भी बढ़ गई थी। ऐसा ही कुछ हालिया वर्षों में भी दिखा है। बिजनेस मॉडल और वास्तविक कमाई की जगह वैल्यूएशन पर ज्यादा बातें हो रही हैं। बाजार में इस प्रवृति को ग्रेटर फूल थ्योरी या बड़ा बेवकूफ सिद्धांत कहते हैं। ग्रेटर फूल थ्योरी कहती है कि किसी भी वस्तु की कीमत तब तक बढ़ती है जबतक बाजार को यह यकीन रहता है कि कोई ना कोई मिल जायेगा जो इसको बढ़ी हुई कीमत पर खरीद ले। भारतीय बाजार में कई निवेशक में इसी उम्मीद से निवेश कर रहे हैं कि उनके निवेश लागत के ज्यादा पैसे देकर कोई ना कोई उनकी स्टार्टअप को ज्यादा वैल्यूएशन पर खरीदने को तैयार हो ही जायेगा। इससे बाजार में किसी नई कंपनी के बिजनेस मॉडल, आय स्रोत और ग्राहक नीति को जांचने परखने का धैर्य नहीं रहता। 

भारतीय स्टार्टअप में निवेश की कमी को भी हम चार प्रमुख कारणों में देख सकते हैं। पहला कारण है प्रोडक्ट मार्केट फिट का अभाव। कई ऐसे स्टार्टअप आपको दिख जाएंगे जिनकी सेवाओं की जरूरत कोई खास दिखती नहीं। भला दस मिनट के अंदर आटे की बोरी कितने ग्राहकों को चाहिए , कोई जीवन रक्षक दवा थोड़े ना है। फिर भी ऐसे स्टार्टअप की कतार सी दिखती है।
 दूसरा कारण है मितव्ययिता का घोर अभाव। चूंकि कई स्टार्ट अप को फंडिंग आसानी से मिल गई, उनमें खर्च करने की प्रवृति बहुत ज्यादा देखी जा रही है। बेतहाशा मार्केटिंग व्यय को निवेश को पर्याय मान लिया गया है। ऐसी कम्पनियां जिन्होंने आज तक एक रुपया नहीं कमाया उनके विज्ञापन हर क्रिकेट मैच के हर ब्रेक पर दिखना भला निवेश कैसे हो सकता है।

ऐसा नहीं है कि सारे स्टार्ट अप अपनी वजह से ही असफल हो रहे हैं या फंडिंग के लिए तरस रहे हैं। सरकार द्वारा समय समय पर लगाए गए टैक्स कानून और अन्य कानून भी एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। क्रिप्टो करेंसी और स्टार्टअप पर टीडीएस कानून इसकी बानगी हैं। इनसे भी निवेशकों का उत्साह ठंडा पड़ा है।
 चौथे कारक के रूप में हम उन स्टार्ट अप को देख सकते हैं तो समय से थोड़ा आगे हैं। एआई और मशीन लर्निंग पर आधारित स्टार्ट अप जो निश्चित रूप से भविष्य में अपना एक स्थान बना सकते हैं आज की जरूरतों से थोड़ा कटे से दिखते हैं। लेकिन यह कारक उतना भी महत्वपूर्ण नहीं है , अगर आइडिया में दम हो तो समय को भी बदला जा सकता है। शादी डॉट कॉम जैसे स्टार्ट अप भारत में तब शुरू हुए जब इंटरनेट की पहुंच नगण्य ही थी।

प्रश्न है कि आगे की राह क्या हो? इसका उत्तर भी प्रश्न में ही छुपा है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि बिना बिजनेस मॉडल और आय के निरंतर स्रोत वाले स्टार्ट अप को फंडिंग मिलने का वक्त चला गया। जिन्हे फंडिंग मिली भी है उन्हें भी अब वैल्यूएशन के खेल से बाहर निकल लाभ कमा कर दिखाना होगा। मार्केटिंग पर अंधाधुंध खर्च करने के बजाय सप्लाई चेन मजबूत करना और अपनी सेवा और उत्पाद की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर सुधार लाना होगा। सरकार की नीतियों के कारण कई स्टार्ट अप दुबई जैसे देशों का रुख कर रहे हैं। हमें उन्हें भारत में भी व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन देना जारी रखना होगा। और हम अपने स्टार्ट अप के लिए केवल बाहरी निवेशकों का मुंह नहीं ताक सकते। इसके अलावा सिर्फ न्यू जनरेशन और आईटी टेक्नोलॉजी आधारित स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करने की जरूरत नहीं है। ऐसे स्टार्ट अप जो सामाजिक सरोकार जैसे कचरा प्रबंधन, सीवर ट्रीटमेंट जैसे क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं उनको भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है। कोई जरूरी नहीं कि हर नया स्टार्ट अप ड्रोन टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर ही काम करे, गोबर और इथेनॉल से ऊर्जा निकालने वाले स्टार्ट अप या एमएसएमई सेक्टर के छोटे स्टार्टअप जो शायद यूनिकॉर्न कभी न बन पाएं, हमारी निवेश योजना में शामिल होने चाहिए।

अगर भारत से अगला गूगल, फेसबुक या टेस्ला आयेगा तो किसी नए स्टार्ट अप से ही आएगा। अपने आइडिया पर पूर्ण विश्वास और एक सॉलिड बिजनेस प्लान पर आधारित स्टार्टअप न केवल निवेश को आकर्षित करेगा बल्कि इस खेल में लंबे समय तक टिकेगा भी। अमेजन, गूगल जैसी कम्पनियां भी डॉट कॉम युग में ही बनी थी। उन्होंने वो गलतियां नहीं की जो इनके साथी स्टार्ट अप ने की थी। हमारे वर्तमान के स्टार्ट अप इनसे सीख ले सकते हैं कि सिर्फ वैल्यूएशन और फंडिंग जूता लेना सफलता का सूत्र नहीं है। ऐसा उत्पाद बनाना और ऐसी सेवा देना जिसके लिए उपभोक्ता खुद से पैसे देने को तैयार हो। सिर्फ कूपन, डिस्काउंट और मुफ्त ऑफर के आधार पर जुटाया गया उपभोक्ता टिकाऊ नहीं हो सकता। सही उत्पाद की सही कीमत वसूलना कोई बुरी बात नहीं। फिल्म द डार्क नाइट में जोकर का चरित्र एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहता है कि अगर आप किसी काम में निपुण हो तो वो काम कभी भी मुफ्त में मत करो। डिस्काउंट और कूपन के बल पर अगला गूगल बनने की चाहत रखने वाले स्टार्टअप इससे सीख ले सकते हैं।


http://m.rashtriyasahara.com/imageview_25583_97334122_4_9_16-07-2022_4_i_1_sf.html

Sunday, July 10, 2022

श्रीलंका के सबक

श्रीलंका के हालत याद दिलाते हैं कि अर्थव्यवस्था ही मूल व्यवस्था है अन्य सभी व्यवस्था और सामाजिक संरचनाएं किसी न किसी रूप में मौलिक व्यवस्था अर्थव्यवस्था को ही प्रतिबिंबित करते हैं। सामाजिक ढांचा हो या राजनैतिक परंपराएं या धार्मिक मान्यताएं सबके मूल में अर्थव्यवस्था ही है। मानव रोटी कपड़ा मकान की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही वो गतिविधियां कर पाता है जिसके वजह से वह प्राणीजगत के अन्य जीवों से अपने आप को अलग कर पाता है। और समस्त मानव जगत को मूलभूत आवश्यकताओं (जिसका दायरा आज रोटी कपड़ा मकान से कहीं ज्यादा विस्तृत हो चुका है) की पूर्ति अर्थव्यवस्था ही करता है। जब अर्थ व्यवस्था ध्वस्त होती है तो मानव वापस अपनी मूल भूत जरूरतों के लिए अपनी सभ्यता, नैतिक मूल्य सब बिसर जाता है। 
माननीय राष्ट्रपति के आवास को घेरना , आग लगा देना और मुंह अंधेरे देश से पलायन करता श्रीलंका का शीर्ष नेतृत्व दिखाता है कि अर्थव्यवस्था संबंधित कुछ भूलों की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। पैसा हाथ का मैल नहीं , समाज की नीव का पत्थर है। मानव सभ्यता की विशालकाय अट्टालिका अर्थव्यवस्था की नीव के भरोसे ही खड़ा रहता है। आवश्यक है कि अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखने में हर कोई अपना योगदान दे। यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। अपना कर ईमानदारी से भरें, पेट्रोलियम जैसे उत्पाद , जिनके लिए हम पूर्णतः आयत पर निर्भर है, का मितव्यव्यिता से प्रयोग करें। सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का विरोध करें, रचनात्मक आलोचना करें। मेरा क्या मुझे क्या वाली मानसिकता से बचें। अर्थव्यवस्था हम सब के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित कर सकने वाली शक्ति है। इसकी महत्ता को समझने और समझाने का इसे बेहतर वक्त नहीं हो सकता। श्रीलंका की परिस्थिति से मिल रहे सबक अमूल्य हैं।