Sunday, October 11, 2020

बागीचा अब बस एक सूखता ठूंठ तना है


पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

लेकिन लगता है जैसे युगों का हो अंतर

सब एक दूसरे से खिंचे खिंचे से हैं

मानो किसी बात पर रूठे रूठे से हैं

ना इंतजार है प्लास्टिक ट्रे वाली चाय का

ना मिलेगा जायका दातून जैसे ब्रेड स्टिक

के साथ वाले सूप का

पहले खाना था मानो गपशप की

मीठी गर्म चाशनी में सना है

अब मानो है सन्नाटे वाली

चुप सी बर्फ का बना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

पर लोगों के दरम्यान दूरियां कई गुणा है।


नजर नहीं आते अब

सहेज कर रखे गए लिहाफ

 और वो सलेटी लिफाफे में 

झक्क सफेद चादर का जोड़ा

ना मयस्सर है वह 

खुरदरा छोटा सा तौलिया

जिसको देख शायद एक बार 

हर किसी का दिल 

मचल ही जाता था कि 

साथ के चलें अपने घर

लालच से नहीं बल्कि शायद प्यार से

शायद कुछ यादगार अपने 

साथ रखने की चाह से।

लेकिन अब ना कोई देता दुआएं 

चादर समेटने वक़्त

ना चाय नाश्ते की बख्शीश मांगता 

दिखता कोई जना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पूछा जब उससे कि हुए क्या है तुझे

कहा उसने मैं तो हूं वैसा ही 

तुम्ही कहते हो कि कोरॉना है।



 




छोटे बच्चे जो दौड़ते थे पूरे डब्बे में

मचाते धमा चौकड़ी 

मानो पुरबा बह रही 

हो अरहर के खेतों से

आज बंधे है अपनी अपनी सीटों से

किसी भी दूसरी सीट पर जाना मना है

बगल की सीट पर बैठे बुजुर्ग 

 गोद में दादा दादा कह 

बैठ जाना मना है

चहचहाते पंछी अब ना बैठते डालियों पर

सारे बैठे ऐसे सहम कर

 जैसे कबूतरों ने किसी अदृश्य चील

के पंखों को फड़फड़ाते सुना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

पर लोगों के दरम्यान दूरियां कई गुणा है।


सोचा सफर खत्म होते ही 

बदलेंगी ये मायूस सूरतें

लपक कर उतरा स्टेशन पर

पर दिखा कि यह सन्नाटा तो 

स्टेशन पर और भी घना है

दिखे वो भी जो उठाते हैं

सारी दुनिया का बोझ 

एक कोने में खड़े दुबके से

जैसे कठोर मास्टर जी ने

होमवर्क ना करने की सजा दी हो


लाल कपड़े पहनने वालों की

अखें भी अब हो गई है लाल

मानो किसी ने उनके बोझिल

कंधों पर डाला बोझा तिगुना है

खो गई वह सामान को गिन कर

मोलभाव करने की वह अदा है

जो भी हो दे देना साहिब

क्योंकि अब बेगारी भी लगती भली

' ऐ कुली ' की आवाज़ सुनना भी हो

गई दूभर ,

 स्टेशन आज है एक सुनसान गली

कैसे कहूं कई महीनों से घर में ठीक से 

खाना तक नहीं बना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

दुनिया का बोझा उठाना था आसान

अब अपनी ज़िन्दगी का वज़न कई गुणा है।


जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पूछा जब उससे कि हुए क्या है तुझे

कहा उसने मैं तो हूं वैसा ही 

तुम्ही कहते हो कि कोरॉना है।



No comments: