कोरोना संकट भले ही हमारे जीवन में यहां तक कि हमारे माता पिता के जीवन में अब तक आए सभी संकटों में सबसे अलग हो, भयावह हो, पृथ्वी के जीवन काल में ऐसे संकट अनेक बार आए और आकर गए। जिसे हम संकट कह रहे हैं , प्रकृति के लिए एक सामान्य सी चलने वाली सतत प्रक्रिया है जिसे परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया जिससे तालमेल बिठाना मानव के लिए कठिन होता है, मानवकोरोना संकट भले ही हमारे जीवन में यहां तक कि हमारे माता पिता के जीवन में अब तक आए सभी संकटों में सबसे अलग हो, भयावह हो, पृथ्वीराज काल में ऐसे संकट अनेक बार आए और आकर गए। जिसे हम संकट कह रहे हैं , प्रकृति के लिए एक सामान्य सी चलने वाली सतत प्रक्रिया है जिसे परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया जिससे तालमेल बिठाना मानव के लिए कठिन होता है, मानव उसे संकट कह देता है। अतः यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि कोरोना संकट एक तीव्र परिवर्तन का एक दौर मात्र है।
डार्विन के विकासवाद सिद्धांत के अनुसार वही प्रजाति जीवन का अस्तित्व बचा पाती है, जो प्रकृति में आए बदलावों के अनुसार अपने आप को सबसे अधिक अनुकूलित कर पाती है। परिवर्तन पूर्व स्थिति में आप सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन सर्वश्रेष्ठ होना जीवन में विकास और जीवन रक्षा की शर्त नहीं है। शर्त है अनुकूलित होना। Darvin law states Survival of the fittest, not the best, not the mightiest or the most developed.
कोरोना संकट का प्रभाव जीवन के हरेक पहलू चाहे वह आर्थिक हो, राजनीतिक हो, सामाजिक हो, वैज्ञानिक हो, सांस्कृतिक हो या मानसिक हो, पड़ना अवश्यंभावी है। यह बदलाव के सिद्धांत मानव के साथ साथ राष्ट्रों के पारस्परिक संबंधों पर भी पड़ेंगे। विश्व पटल पर अपने प्रभुत्व को स्थापित करने की दौड़ में एक वर्तमान समय एक विश्राम काल है। दौड़ का दूसरा चरण शुरू होने ही वाला है, नए नियमों के साथ। यह बिल्कुल नई दौड़ होगी, जहां सभी राष्ट्र कमोबेश शून्य से प्रारंभ करेंगे।
भारत के लिए भी यह सुनहरा अवसर है। यद्यपि बदलाव की आवश्यकता मानव जीवन के हर क्षेत्र में होगी , और एक आलेख में सभी को समेटना संभव नहीं है, आज हम सिर्फ शिक्षा पर चर्चा करते हैं। शिक्षा भी अत्यंत व्यापक विषय है, अतः सिर्फ शिक्षा के माध्यम पर केन्द्रित रहेंगे।
आपने अनुभव किया होगा कि भारतीय गहन अनुसंधान के क्षेत्र में काफी पीछे है। हमारे पास जावा और सी++ में कोडिंग करने वाले युवा बहुतेरे हैं लेकिन भारत में एलोन मस्क जैसा आविष्कारक नहीं है। जेनेरिक दवाएं बनाने में हम उस्ताद हैं लेकिन कोई भी भारतीय कंपनी फाइजर बनने की दौड़ में नहीं दिखती। डॉक्टरेट की उपाधि पाने वाले और उनको प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय बहुतेरे हैं लेकिन नोबेल हमें नहीं मिलता। क्या कारण है कि हमारे विकास को सीमित विस्तार ही मिलता है, हम अनुकरण करने में आगे हैं लेकिन अन्वेषक और पथप्रदर्शक की भूमिका भारतीयों के हिस्से कम ही आती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि हम चीज़ों को समझते तो हैं लेकिन गहराई से नहीं समझते। इसका क्या कारण है? एक उदाहरण याद आ रहा है। इंजीनियरिंग के दौरान हमारे एक मित्र को हर बात पर शिट ओह शिट कहने की आदत हो गई थी। नए नए कॉलेज में आए थे, शिट शिट कहने को स्टाइल समझते थे। हमारे एक वरिष्ठ प्रोफेसर के सामने भी बोल पड़े। प्रोफेसर साहब ने हस कर कहा, अगर तुम इसका मतलब समझते तो शायद इसका प्रयोग नहीं करते। उन्होंने कहा कि बेटे जो बात तुम अभी बोल रहे थे उसको हिंदी में बोल कर सुनाओ। पता चला कि भाई साब शिट का मतलब ही नहीं समझते थे। कोई कूल शब्द समझ कर दुहराते रहते थे।
यह विडम्बना हमारे पूरे भारत की है। हमारे बच्चों कि आधी ऊर्जा अनुवाद में गुजर जाती है। पहले अपनी मातृभाषा
में सोचो, फिर उसका अनुवाद करो, रैन एंड मार्टिन के रटे सूत्रों की कसौटी पर कस कर देखो, अगर सही लगे तो बोलो। बोलने वाले ने इतना संघर्ष करने के बाद जो बोला, उसके श्रोता इसी दुष्चक्र को उल्टी दिशा में दुहराता है। जो सुना उसको सूत्रों के आधार पर अनुवाद करो, फिर उसको समझो। जो समझ में आया उसको वापस से दूसरी भाषा में लिखो।
कितना आसान हो कि यह अनुवाद का चक्कर ही समाप्त हो जाय। लोग अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करें। हां अनुवादकों की एक विशेषज्ञ टीम हो , जो अनुवादक का ही पूर्णकालिक कार्य करे। पूरी पीढ़ी को आधा अनुवादक आधा वैज्ञानिक बनाने की जगह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक साहित्यकार जो भी बनाने की इच्छा हो बनने दिया जाय। फिर देखिए, हमारे यहां अगर वराहमिहिर हो सकते हैं तो अगला एलोन मस्क भी हो सकता है। चेन्नई की गलियों में दूसरा रामानुजन भी आ सकता है अगर उसको तमिल से अंग्रेज़ी अनुवादक बनने के भार से मुक्त कर दिया जाय। केरल से दूसरा शंकराचार्य आएगा, अगर उसके संस्कृत पढ़ने को हीन ना समझा जाय। वाराणसी में कोई तुलसी सा बन सकता है अगर उसकी अवधी की कविता का सम्मान हो। राजस्थान से एक मीरा और चंदबरदाई के स्वर फिर से गूजेंगे , बस वहां के बच्चों पर अंग्रेज़ी ना लादी जाए। एक बार उन्होंने अपनी उत्कृष्टता हासिल कर लें, फिर भाषा की कोई सीमा उन्हें नहीं रोक पाएगी। वैश्विक जनता तक पहुंच वाली समस्या का निराकरण अनुवादकों की टीम करेगी । शायद उसकी आवश्यकता भी ना पड़े, उतना काम तो आजकल गूगल ट्रांसलेट भी कर लेता है।
इस वर्तमान संकट ने हमें कठिन फैसले लेने के लिए एक सुनहरा अवसर दिया है। वैश्वीकरण की असफल अवधारणा के लिए बनी नीतियों को आगे भी चलाए रखना असफलता के मार्ग पर ले जाता है। आत्मलंबन और आत्मविश्वास से भरी शुरुआत करने के लिए मातृभाषा से अच्छी शुरुआत और कहां से हो सकती है। अगर ऐसा नहीं किया तो वही होगा कि ज़िन्दगी भर शिट शिट बोलते पता भी नहीं चलेगा कि कब शिट बन गए।
No comments:
Post a Comment