अरे हम सब मदारीचक र चिकिये, हमरा पानी कि कर तै। मानक हिंदी में कहूं तो अरे हम लोग मदारी चक गांव के हैं, पानी हमारा क्या बिगाड़ लेगी? मेरे दादा हमेशा एक गांव का नाम लेते थे मदारी चक। काफी समृद्ध गांव हुआ करता था, नदी की धारा में समा गया। गांव मिट गया, गांव का नाम नहीं मिटा। बोस्टन में हों या दिल्ली के द्वारका में, उस गांव के लोग आज भी अपने आप को मदारी चक का ही बताते हैं।
बिहार में बाढ़ जीवन का हिस्सा नहीं है, वही हमारा जीवन है। हथेलियों की रेखाओं की तरह नदियां उत्तर बिहार में फैली हुई है। जैसे हाथ की लकीरें बदलती रहती है, बिहार में नदियां भी अपना मार्ग बदलती हैं। किसी नटखट चपल बालिकाओं के समूह की तरह जो गांव में लुका छिपी खेल रही हों। वे बालिकाएं अपनी लुका छिपी के खेल के दौरान कहीं भी छुप सकती हैं। पूरा गांव उनका है, सारे घर उनके लिए खेल और क्रीड़ा कौतुक का प्रांगण है। वह किसी घर में छिपे तो घर का गृहस्थ यह नहीं चिल्लाता कि मेरे घर में चोर घुस आए । बालिकाओं का घर में घुसना अतिक्रमण नहीं है, सारा गांव उनका है, गांव के सारे घर उनके हैं। एक प्रसंग है कि जब महाकवि विद्यापति ने जीवन के अंतिम क्षण में नदी में समाधि लेने की सोची। वृद्धावस्था के कारण वह नदी तक चल कर नहीं जा सकते थे, इसलिए उन्होंने नदी का आह्वान किया कि यदि मैंने साहित्य की कुछ भी सेवा की है तो नदी मुझे मेरे घर से ले कर जाए। कवि की पुकार सुनकर नदी कविवर विद्यापति के घर आई और उनको अपने साथ ले गई।
बिहार की समस्त भूमि नदियों की है। बिहार मानो उनका घर है जिसे बनाने की सारी सामग्री वह अपने ननिहाल नेपाल से अपने नाना हिमालय से मांग कर लाई है। और उन सबके नाना हिमालय उन उदार नाना जैसे हैं जो अपनी प्यारी नातिनों को उनकी जरूरत से ज्यादा उपहार( मिट्टी, बालू, पत्थर) देकर अपने दादा दादी के घर भेजते हैं। ऐसे में यह नटखट बालिकाओं का समूह थोड़ा शैतान और नकचढ़ी तो होगा ही। इनसे अनुशासन की उम्मीद ना केवल अव्याहरिक है बल्कि बालिकाओं पर अत्याचार सा है।
हमारे प्रखंड मनिहारी में आप मछली बाज़ार जाइए। मछुवारे कहेंगे आय लद्दी से ढेर मछली लानल छी। मतलब कि आज नदी से ढेर सारी मछली लाया हूं। आप पता करेंगे तो पता चलेगा कि उसने मछली किसी पोखर से पकड़ी है। फिर हमारे यहां पोखर को नदी क्यों कहते हैं? वो इसलिए कि उस पोखर का पानी नदियों ने भरा है वर्षा ने नहीं। मेरे गांव में हर घर के पीछे एक डोभा हुआ करता था। डोभा मतलब छोटा पोखर। अब सोचता हूं तो लगता है कि मेरे निरक्षर पूर्वज कितने समझदार थे। बाढ़ में आए पानी को रोकने और जमा करने के लिए गांव के बाहर लद्दी और गांव के अंदर डोभा की लड़ी बना रखी थी। यह बाढ़ से निपटने का उनका सुरक्षा कवच था। दादा एक बात और कहते थे कि बेटा हेलना जरूर सीखिहैं। मतलब बेटा तैरना जरूर सीखना। अब सारी कड़ियां मानो जुड़ती सी दिखती हैं कि वह पीढ़ी किस प्रकार प्रकृति के साथ एकसार और तन्मय थी। प्रकृति को स्वीकार कर उससे संघर्ष की जगह प्रकृति के साथ संसर्ग का प्रयास करती थी।
और हम शिक्षित वंशजों ने सारे डोभा भर घर बना लिए। सारे लद्दी को सुखा सुखा कर खेती करने लगे। किस काम की ऐसी शिक्षा जो आपको अपनी धरती को समझने में अक्षम बना दे। अगर मैं कहूं तो बिहार की बाढ़ पूरी तरह से मानव निर्मित समस्या है। नदी हमारे घर में नहीं घुसी, वह तो बस अठखेलिया कर रही है, हमने बस उसके खेल के मैदान की बीच अपने घर बना लिए। हम उनके साथ रहना भूल गए, उनको रास्ते से हटा कर उनको बांधो में बांध कर ढिठाई करने लगे। उसकी सजा तो हमें मिलनी ही थी।
जगजीत साब की एक नज़्म याद आ रही है, रेखाओं का खेल है मुकद्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो। उत्तर बिहार की नदियां हमारी मुकद्दर की रेखाएं हैं, उनके साथ रहना सीखना होगा, जैसा हम अब तक करते आये हैं । फिर उनकी चपलता हमें परेशान नहीं करेंगी। बाढ़ की विभीषिका जैसे विशेषण हमारी कारस्तानी है, और कुछ नहीं।
अवसर मिला तो बाढ़ और नदियों के अर्थशास्त्र पक्ष में कभी विस्तार से लिखूंगा।
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