हमारे पिता ने बनाया था
किश्तों में मकान।
गांव की साझे के बागीचे
में आई थी आम की अच्छी फसल
तो खरीदी गई थी ईंटें।
और खरीदे गए सरिए जब
वेतन का एरियर सात साल बाद मिला था।
बालू खरीदे नहीं बल्कि उधार पर आए थे।
सीमेंट खरीदने का इंतजार दो साल तक चला
क्योंकि दादी की बरसी के भोज में चुक गए थे पैसे।
दो साल तक बरसात झेलकर
जंग खाकर जब दुबले हो गए सरिए
तब सीमेंट खरीदने की रकम जमा हुई।
याद है वो दिन जब नींव पड़ी थी
नीव से कहीं ज्यादा गहरी थी उनकी खुशी
और उससे भी कहीं गहरी थी कुछ की जलन
कि अब यह भी पक्का मकान ठोकेगा।
सुबह शाम आता मजदूरों का रेला
और साथ आते दो राज मिस्त्री।
एक मिडिल क्लास आदमी कब तक
उठा पाता राज मिस्त्री का खर्चा।
जल्द ही चुक गई बाबूजी की जमा पूंजी
और हमारा मकान कुर्सी तक ही बन खड़ा रहा।
फिर सालों बाद आया बाबूजी का पे कमीशन
और काई लगी दीवारों पर फिर से
जमने लगी ईंटों की क्यारियां।
इस बार बात छत तक पहुंची
लेकिन छोटी बुआ का लगन आ गया।
आधे मकान पर एस्बेस्टस डाल बुआ की
शादी हुई और फिर छत की बात टल गई।
जब दरकने लगी एस्बेस्टस की वो छत
और झांकने लगी सूरज की किरणे
फिर किसी ने कहा अब तो छत ढाल लो
बेटी की शादी क्या ऐसे मकान से करोगे।
दीदी की शादी से पहले छत ढाली गई।
लेकिन प्लास्टर के पैसों से दीदी का गौना हो गया।
नंगी ईंटों की दीवारों के साए में गुजारे हमने
अगले कई साल ।
इस बीच पिता जी हुए रिटायर,
फिर उनके पीएफ के पैसों से
चढ़ा नंगी दीवारों पर प्लास्टर
हुई उन दीवारों पर हल्दी रंग की पीली पुताई।
बाबूजी की जिंदगी भर की
कमाई से बना हमारा घर
लेकिन जब बड़े वाले कमरे में सोने की बारी आई
तो अम्मा बोली कि यह कमरा बहू का होगा।
फिर हुई हमारी शादी और ससुराल से आया
पलंग बिछा कमरे में।
बाबूजी फिर बाहर वाले कमरे में बैठे
मुझे बुलाया और बोले, मेरे पीएफ के पैसे से
अब बाहर वाला घर बना ही लेते हैं।
कोई मेहमान आएगा तो क्या कहेगा।
और मैं कुछ कह न सका।
उनके किश्तों में बने मकान की कुछ
किश्तें शायद अब भी बाकी थी।
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