Friday, May 15, 2020

बेताल को ढोने की मजबूरी

कुछ वामपंथियों से वार्तालाप या बहस करके सच में राजा विक्रम वाली फीलिंग आती है। राजा विक्रम ज़िद्दी टाइप का आदमी है , हाथ में तलवार लेकर चलता है। देखने में भले क्रूर टाइप लगे, लेकिन इरादा नेक है। वह चाहता है कि 1917 की रूसी क्रांति के जर्जर ठूंठ से उल्टे लटके उसके मित्र को समाज की वास्तविकता से जोड़ा जाए। उसको मुख्य धारा में शामिल किया जाए। लेकिन हमारे वामपंथी बेताल मित्र हैं कि वही नक्सलबाड़ी के जंगलों से बाहर ही निकलना नहीं चाहते। आखिर वो स्टालिन और पोलपोट के लगाए गए नरमुंडों के जखीरे के बीच , इन्कलाब जिंदाबाद की आग कम धुआं ज्यादा वाली धूनी रमाते और उत्तर कोरिया वाली सायं सांय वाली शांति  को भोगने का सुख समाज के मुख्य धारा में कहां से मिलना !! लेकिन यह दक्षिणपंथी विक्रम है कि बेताल के पीछे पड़ा है, यहां तक कि उसको सारी सब्सिडी वाली शिक्षा और मुफ्त में सुविधाएं देकर उसको अपने पीठ पर ढोने वाली आदत से बाज नहीं आता। अब बेताल को लीजिए। आराम से पीठ पर लद कर चल रहा है, होना तो यह चाहिए कि विक्रम का अहसान माने और धन्यवाद करे। लेकिन होता है क्या? इसका साफ उल्टा! बेताल पीठ पर बैठ कर चलेगा  भी और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन भी सिर्फ उसके हिस्से आएगी। बोलने का अधिकार सिर्फ बेताल का। उसको पीठ पर ढोने वाले विक्रम का हक सिर्फ इतना कि उसका बोझा उठाए लेकिन बोले नहीं। विक्रम बोला नहीं कि बस ऑटरेज शुरू। 

सब्सिडी वाली शिक्षा पाकर जुटाए गए उधारी ज्ञान को बांचना भी बेताल को बहुत पसंद है। आखिर पीठ पर बैठे बैठे बोरियत तो होगी ही, हाथ पैर चलाना से बैर भले ही हो, जबान चलती रहनी चाहिए। वह बड़ी बड़ी कहानियां बेताल सुनाता रहता है जिसमें ज्ञान, नीति और सिद्धांतों का पुलिंदा पड़ा रहता है। बेचारा विक्रम, दक्षिणपंथी क्या हुआ, एक तो बेताल को ढोने का जिम्मा मिला हुआ है, ऊपर से नीति प्रवचन सुनने की सजा। ना केवल नीति प्रवचन सुनना पड़ रहा है, बीच बीच में बेताल के कटाक्ष भी सुनो। बोल विक्रम बोल। जवाब दे। सबूत दे। हमें और अधिकार दे। बेताल विक्रम के बालों को सूंघते हुआ कहता है, क्या हुआ विक्रम जवाब क्यूं नहीं देता, सांप सूंघ गया क्या? 

विक्रम आखिर करे तो क्या करे? कभी कभी संयम जवाब दे देता है। जवाब दिया नहीं कि बस हो गया फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का उल्लंघन। आ गया फासीवाद। विक्रम ने जवाब दिया नहीं कि हिटलर का पुनर्जन्म हो गया। शेम शेम करता हुआ बेताल वापस 1917 वाले ठूंठ पर लटकने के लिए उड़ जाता है। जाते जाते विक्रम को ताने भी मार जाता है। फिर जुबान खोल दी तुमने। आखिर कब सीखेगा कि बोलने का हक सिर्फ बेताल का है। जा गोमूत्र का पान कर तभी यह साधारण सा सत्य समझ पाएगा। मैं तो चला अपने नक्सलबाड़ी के जंगल में उलटा लटकने। 

और वह विक्रम, बेवकूफ अपने आदर्शों को निभाने और बेताल को अपनी पीठ पर ढोने के लिए वापस से उसके पीछे दौड़ना शुरू कर देता है। कथा वैसे ही चलती रहती है। क्रमशः...

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