Monday, October 31, 2022

छठ की सुबह

सूनी पड़ी हैं बिहार की सड़कें
चंद लोग चल फिर रहे हैं सुस्त कदमों से,
फीके लग रहे हैं तोरण द्वार,
उनसे लटकी उलझी हुईं हैं 
बुझी हुई झालरें।

चौराहे पर बैठ कर ऊंघ रहा है 
रात भर ड्यूटी बजाता सिपाही,
घर से घाट तक छाई है एक नीरवता
थम गया है लोकगीतों का कलरव
और पटाखों का शोर,
बाकी है तो बस हवाओं में
 घुली ठेकुआ खबौनी की खुशबू,
जिसे खाकर तृप्त हो गया है
 मानो पूरा शहर,
कुछ ऐसे निढाल पड़ा है हर कोई
जैसे बेटी ब्याह कर सोया हो कोई बाप,

यह छठ के बाद की सुबह है।
जिसका उल्लास बिहार
 डूब के मनाता है
जिसका उल्लास बिहार
 खूब से मनाता है।


Monday, October 24, 2022

दिल और दिमाग

 बार सुन चुका हूं कि यहां मैं दिल की सुन रहा हूं, दिमाग की नहीं। या वो दिमाग की सुनता है, दिल की कभी नहीं। चलो मान लिया। फिर यह दिल तो पागल है वाले डायलॉग का क्या मतलब हुआ? पागल तो वो हुआ जिसका दिमाग खराब हो गया हो, मतलब यह दिल के पागल होने का मतलब है दिल का दिमाग खराब हो गया है। इसका सीधा मतलब है कि दिल के पास अपना दिमाग है। और जब दिल से पास अपना दिमाग है तो फिर सोचने का काम दिल अपने वाले दिमाग से ही करता होगा। लब्बोलुआब यह कि दिल की दुहाई देने वाले भी अल्टीमेटली दिमाग से ही काम लेते हैं। दिल से सोचने वाली कोई भी बात बकवास ही है। 

आगे सोचिए तो "हम आपके दिल में रहते हैं" वाली बातें तो और भी डरावनी हैं । आप किसी को आपके दिल में बसा लो तो बेचारा अपना दिमाग बाहर छोड़ कर तो आयेगा नहीं। अपना दिमाग लेकर कोई आपके दिल में रहने लगे तो भारी समस्या है। आपके पास ऑलरेडी दो दिमाग है, एक सर वाला दिमाग और दूसरा दिल वाला दिमाग। सामने वाला इंसान भी अपना दो दिमाग लेकर आपके दिल में आ जाय तो आपका तो पूरा सिस्टम हिल जायेगा। टोटल चार दिमाग आपके शरीर के अंदर । आखिर शरीर सुनेगा किसकी? बाकी एक से ज्यादा चार पांच लोगों को दिल में बसा लेने वाले लोगों की हालत का तो आप बस अंदाजा ही लगा सकते हैं। तीन लोगों को अपने दिल में बसाने वाले लोग एक समय में टोटल आठ दिमाग लेकर चल रहे हैं। वैसे यह संख्या आठ ही हो कोई जरूरी नहीं। यह संख्या आठ से कहीं ज्यादा भी हो सकती है। मान लीजिए जिस इंसान को आपने अपने दिल में बसाया, उसने दिल में पहले से ही चार इंसान और बसते हैं, फिर उसी हिसाब से फी इंसान आपने अंदर दिल की संख्या उसी मुताबिक बढ़ती जाएगी। फिर यह भी हो सकता है कि जिसको आपने दिल में बसाया, वो ऑलरेडी अपना दिल किसी और को दे चुके हैं। फिर आपके अन्दर दिमाग की कुल संख्या उसी हिसाब से कम हो जायेगी। 

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी खोपड़ी खाली होती है, मतलब उनके शरीर में दिल वाला दिमाग तो होता है लेकिन खोपड़ी वाला दिमाग नहीं। ऐसे लोग अगर आपके दिल में बसे हैं तो आपके शरीर में टोटल दिमाग की संख्या थोड़ी कम हो जायेगी। 
इसलिए तो बड़े बूढ़े कह गए हैं कि दिल लेना खेल है दिलदार का। एक दिल ले लेने के बाद जो शरीर में जो दिमाग का दही बनता है उसकी तो कल्पना करना भी मुश्किल है।  

अब जब दिमाग लगा के सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि जब लोग कहते हैं कि कोई दिमाग ही काम नहीं कर रहा, तो यह कोई साधारण बात नही है। कोई दिमाग कहने का सीधा अर्थ है कि वो अपने अंदर छुपे कई दिमागों के बारे में बात कर रहे हैं। वरना वो सीधे कहते कि मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा। कोई शब्द लगाने का मतलब हुआ कि दिमाग की संख्या एक से ज्यादा है।

अब यह सारी बात सुना कर दिल हल्का सा लग रहा है। यह भी थोड़ा अजीब ही है। इतनी बकवास करके मैंने जो आपका दिमाग खाया है उसके बाद तो शरीर तो भारी महसूस करना चाहिए, हल्का क्यों महसूस कर रहा है? दिमाग लगा के इस प्रश्न का उत्तर ढूंढिए। बाकी कौन सा वाला दिमाग लगाइएगा, यह मैं आपके दिल पर छोड़ता हूं। दिल दिमाग जो लगाना है, लगाइए बस इतना याद रखिए कि जो भी काम करिए दिल से करिए। समझ नहीं आ रहा कि आगे इस टॉपिक पर लिखूं कि नहीं। दिल ही नहीं कर रहा।
चलिए बाय बाय।

Wednesday, October 12, 2022

गंगा जमुनी तहजीब की पोल

गंगा जमुनी तहजीब का मतलब मुझे समझ में नहीं आता। कारण यह कि प्रयागराज में यमुना आकर गंगा में मिल जाती है और अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देती है और गंगा कहलाने लगती है। गंगा जमुनी तहजीब का मतलब यह कि प्रयाग के आगे सिर्फ गंगा रहेगी, यमुना नहीं। होना तो यह चाहिए कि कोई ऐसा नाम कहा जाय, जहां दोनो का सहअस्तित्व हो ना कि एक को अपने अंदर समेटने और समाहित करने के लिए दूसरा आतुर हो।  

मानव का सौन्दर्य दो अलग अलग आंखों , दो अलग अलग हाथों से ही है। दो आंखों को मिला कर एक बड़ी आंख और दो हाथों को जोड़ कर एक लंबा हाथ ना ही सुन्दर होगा और ना उपयोगी। 

अगली बार कोई गंगा जमुनी तहजीब की दुहाई दे तो पूछिएगा कि आपको जमुना के स्वतंत्र अस्तित्व से इतनी समस्या क्यों है? आप गंगा कावेरी संस्कृति की बात क्यों नहीं करते। उनके तनिक से इशक की कलई खुल जाएगी।

Saturday, October 8, 2022

प्रेमचंद के फटे जूतों के मायने

प्रेमचंद की मृत्यु हमें याद दिलाती है कि कलम तलवार से मजबूत तभी हो सकती है जब कलम चलाने वाला भूखा न रहे। तलवार चाहे कितनी भी तेज क्यों ना हो, जिस सैनिक के हाथों में तलवार है , उस सैनिक के हाथों को उचित पोषण मिलना भी आवश्यक है। तलवार चलाने वाले हाथों के ऊपर अन्य सांसारिक चिंताओं का बोझ नहीं होना चाहिए। बोझिल मानसिकता और कुपोषित हाथों में तेज तलवार भी शत्रु को परास्त नहीं कर सकती। कलम की प्रखर धार भी वैसे लेखक के हाथों में कुंद पड़ जाती है अगर लेखक अपने जीवन में सामान्य भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तरसता रहे। 

प्रेमचंद की प्रज्ञा कितनी भी तेज रही है, उनकी क्षुधा की आग हमेशा उनकी प्रज्ञा को सताती रही। आखिर क्षुधित काया में स्वास्थ्य और रचनात्मकता कितने दिन वास कर सकती है। प्रेमचंद हमारे महानतम कलमकार भले ही रहे हों, हमेशा अकिंचन ही बने रहे। उनका प्रेस तो उनका खून पीकर ही चलती रही। उनकी फटे जूते देख कर तो परसाई जी एक निबंध तक लिख दिया। कई संस्मरण तो यह भी बताते हैं कि उनकी आखिरी यात्रा में कुल छह साथ लोग ही शामिल थे। पूरे साहित्य जगत को रोशनी की लौ लिए दिशा देने वाले प्रेमचंद एक गुमनाम लाश की तरह इस दुनिया से विदा हुए।

किसी भी सभ्यता की पहचान इससे होती है कि इस सभ्यता के नायकों चयन जनमानस में कैसे होता है और सभ्यता अपने नायकों के साथ कैसा व्यवहार करती है। हम भले ही मेरा भारत महान के नारे लगा कर अपनी सभ्यता के महान होने का दंभ भरते रहें, हम अपने साहित्य और साहित्यकारों के साथ उचित व्यवहार कभी नहीं कर पाए। निराला भूख से जूझते रहे, तो मुक्तिबोध अपने जीवन काल में अपनी एक कविता प्रकाशित नहीं करवा सके। आज भी कोई गीत सुनकर हम उसके गायक को पहचान ले, उसपर थिरकते अभिनेताओं की भाव भंगिमा तक उतार लें, गीतकार का नाम हमें शायद ही पता भी होता है। अपने साहित्यकारोंं को नायक बना के  सम्मानित करना तो दूर , साहित्यकार होने का अर्थ ही गया है एक निरीह झोला टांगे हुए व्यक्ति से जिसकी जरूरत तो है लेकिन कदर कोई खास नहीं है। स्वाभाविक है इसका असर हमारी पूरी पीढ़ी की रचनात्मकता और रचनाशीलता पर पड़ा है। कब आखिरी बार हमारे बीच से कोई मौलिक रचना निकली है जो विश्व जनमानस पर छा गई हो? कोई मौलिक कहानी, उपन्यास या कोई और साहित्यिक रचना गढ़ने में हमारा हाथ तंग ही दिखता है। अंग्रेजी भाषा में कदाचित कुछ लिखा भी जा रहा है, हमारी भारतीय भाषाओं की स्थिति तो उत्तरोत्तर खराब ही होती जा रही है। मां सरस्वती की वंदना करने वाले देश में सरस्वती पुत्रों की ऐसी दुर्दशा अकल्पनीय और अस्वीकार्य है। 

आज से 86 साल पहले इन्हीं गलतियों के कारण हमने एक हीरा मुंशी प्रेमचंद के रूप में खोया था। आज उनकी पुण्यतिथि पर हमें विचार करना होगा कि हम अपने साहित्यकारों रूपी रत्नों को सहेज कर रखने के लिए क्या कर सकते हैं।

 उपन्यास सम्राट को उनकी पुण्य तिथि पर शत शत नमन।

Tuesday, October 4, 2022

रावण : एक जटिल चरित्र

रावण का चरित्र एक जटिल चरित्र है। इसके चरित्र के विस्तार को विविध विमाओं में देखने की जरूरत है। रावण के चरित्र का एक विस्तार एक शिवभक्त के रूप में है। स्वयं महादेव रावण को अपना सबसे बड़ा भक्त मान चुके हैं।ऐसा भक्त जिसने शिव को अपना सिर तक काट तक चढ़ा दिया। ऐसा भक्त जिसके कहने पर वो अपना कैलाश त्याग कर उसके साथ चल पड़े। रावण वेदों का ज्ञाता और ऋषि विश्रवा का पुत्र और ऋषि पुलस्त्य का पौत्र था। इसके अलावा एक अत्यंत स्नेही भ्राता भी था जिसने अपनी बहन की मान सम्मान की रक्षा के लिए एक युद्ध छेड़ने तक से गुरेज नहीं किया। अपनी राक्षसी माता के कारण वो आधा राक्षस भी था। उसके पास शक्ति, ज्ञान, सैन्य शक्ति, धनबल, भक्तिबल किसी की भी कमी नहीं थी। शायद इतना कुछ पा लेने के बाद अहंकार हो जाना स्वाभाविक ही था। उसी अहंकार के कारण उसने परस्त्री का हरण किया और वोही उसके विनाश का कारण बना। लेकिन विष्णु अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सामने उनका विरोधी चरित्र कोई साधारण सामान्य का एक दानव नहीं हो सकता। 

रावण का चरित्र रुपहले पर उतारने से पहले इन बारीकियों का ध्यान रखने की आवश्यकता है। उसके चरित्र के सभी पहलुओं में संतुलन बनते हुए उसे भगवान राम के एक योग्य प्रतिद्वंदी के रूप में दिखाना आसान नहीं है। इसके लिए साहित्य, पौराणिक ग्रंथों, उसकी उपलब्ध टीकाओं के गहन अध्ययन के साथ साथ अपनी एक स्वतंत्र राय होनी भी आवश्यक है। आने वाली फिल्म आदिपुरूष में रावण के चित्रण को देख कर इसका अभाव लगना स्वाभाविक है। एक बर्बर, दानव के रूप में रावण का चित्रण ना केवल अधूरा है बल्कि उसके साथ एक अन्याय है। राक्षसराज रावण राक्षस सुबाहु और मारीच की तरह नही है जिसके चरित्र को एकविमीय रूप में दिखाया जा सके। आशा रखता हूं आदिपुरुष फिल्म में रावण के चरित्र के साथ न्याय हुआ होगा। टीजर देखने के बाद उसकी आशा कम ही लगती है। 

दशहरा की छुट्टियां

मुझे दशहरा परिवार के साथ मनाना पसंद है। आखिर हमारा सबसे बड़ा त्योहार है, साल में एक बार मेला देखना और एंजॉय करना तो बनता है। मैं चाहता हूं कि नवरात्रि और दशहरा के बीच पूरे शहर में ट्रैफिक ठीक से काम करे। मेला के दौरान ट्रैफिक जाम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। सारे ट्रैफिक पुलिस वालों को चाहिए कि हमेशा वो मुस्तैद रहें ताकि कहीं जाम ना लगे। मेला।के आस पास गंदगी भी न फैले तो सारे नगर निगम वाले कर्मचारियों को भी पूजा के दौरान ड्यूटी पर लगा रहना चाहिए ताकि कहीं गंदगी ना फैले। और हां, नवरात्र में मैं उपवास और पूजा पर रहता हूं, इसीलिए मैं चाहता हूं कि सुबह सुबह आकर घर के सभी नौकर चाकर आकर मेरे घर की सफाई कर जाएं। मेरे नाश्ते के लिए फल और दूध चाहिए होगा इसीलिए वो दुकान हमेशा खुली रहनी चाहिए। पिछले बार विसर्जन के समय बिजली कट गई थी, मैं बिजली विभाग वालों को फोन लगाता रहा, सब गायब थे। यह कोई तरीका है!! बिजली विभाग वालों को ड्यूटी पर होना चाहिए। मेला देखने के लिए बड़ी भीड़ हो जाती है, और मुझे भीड़ में ड्राइव करना बिल्कुल पसंद नहीं है। यह त्योहार के समय सारे टैक्सी वाले भी पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं, बताइए यह कोई तरीका है। उन सारे टैक्सी वालों का लाइसेंस रद्द कर देना चाहिए जो पर्व के समय गायब रहते हैं। मुझे मेला देखने के लिए टैक्सी ,रिक्शा, ऑटो किसी की दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

पता नहीं, मेरे बच्चों के ट्यूशन टीचर को भी इसी समय छुट्टी क्यों चाहिए। भला, बच्चों को होमवर्क कौन करवाएगा, पूजा के तुरंत बाद उनके एग्जाम भी हैं, उसकी तैयारी भी उसी को करवानी थी। अब मुझे साल में एक बार छुट्टी मिलती है, उस समय बैठ कर बच्चों को होमवर्क कौन करवाए। आने दो ट्यूशन टीचर को वापस, जितने दिन गायब रहा है ,उतने दिन के पैसे काटूंगा। मजाक बना रखा है। छुट्टी का बहाना चाहिए इन लोगों को।

और क्या कहूं! बस आराम से छुट्टी बिताना चाहता हूं। क्या इतना भी हक नहीं बनता मेरा। आप सब को भी त्योहारों की बहुत बहुत शुभकामना।। 



Sunday, October 2, 2022

देश का लाल : लाल बहादुर

सन 1965 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान को लगा कि सन बासठ की हार और पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद भारत को हराना आसान होगा। अयूब अतिआत्मविश्वास में बोल गए कि हमारी सेनाएं टहलते हुए दिल्ली तक पहुंच जाएंगी। जाहिर है कि उन्होंने पांच फीट दो इंच ऊंचे भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का आकलन उनकी शारीरिक बनावट पर किया था। आगे जो हुआ वो सर्वविदित है, शास्त्री जी ने ना केवल देश का नेतृत्व किया बल्कि पाकिस्तानी जनरल अयूब खान की दिल्ली तक टहल कर पहुंच जाने की सारी योजना मुंगेरीलाल के सपने साबित हुई। युद्धोपरांत रामलीला मैदान में अपने भाषण में एक विजयी वीर की भांति शास्त्री जी ने कहा: अयूब खान ने कहा था कि वो टहलते हुए दिल्ली तक आएंगे, वो तो नहीं आ पाए, इसीलिए हम टहल कर लाहौर पहुंच गए। जनता ने बहरा कर देने वाली करतल ध्वनि से अपने विजेता प्रधानमंत्री का अभिवादन किया।

यह एक संयोग ही है कि 2 अक्टूबर को ही जन्मे महात्मा गांधी जहां सत्य अहिंसा के लिए जाने जाते हैं, दो अक्टूबर को जन्मे शास्त्री जी जो एक गांधीवादी नेता थे, भारत के इतिहास में एक युद्ध विजेता की तरह याद किए जाएंगे। शास्त्री जी ने एक बार राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि अगर कोई देश न्यूक्लियर हथियार या तलवार की नोंक पर हमें डराने का प्रयास करेगा तो हम इतना बता दें कि हम झुकने वालों में से नहीं है। इनको मेरा इतना ही जवाब होगा कि हथियारों का जवाब हथियारों से दिया जायेगा। नौ साल बाद भारत ने पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया तो उसका पहला सार्वजनिक संकेत शास्त्री जी ने पहले ही दे दिया था।

कृतज्ञ राष्ट्र की तरफ से शास्त्री जी को उनकी 118वी जयंती पर कोटि कोटि नमन।