Saturday, October 31, 2020

Are you skilled enough to be a Pakora Seller?

 I find it extremely disturbing when a work or job is demeaned. In Bihar election campaign people are making fun of ' Pakora making' like a job devoid of any dignity. If everyone wants a job but hates an employment, it a dreadful situation. 

Till we start respecting every job with equal respect in terms of status and economic remuneration, this 'Saheb' mentality is going to keep us poor and unemployed. If a shikanji seller, juice seller, home made Chyawanprash seller, can become Coca-Cola, T-Series and Patanjali respectively, why can't we simply stop demeaning a Pakora seller and see the dignity and potential in it. 



Trust me, our 90% educated youth even lack the skills to make a Pakora for saving their lives.

Illiterate and idiot are different words

Illiterate and idiot are different words. Literate doesn't mean wise. In politics, we need wise , smart , moral and visionary people and these virtues are not guaranteed by education, at least not by our education system. Anyone targeting Mr. Tejaswi Yadav for his educational background reeks of elitism and shallowness. If you value educational degrees so much, let me tell you that he is more qualified than the person every calls The Kingmaker. Mr. K. Kamraj, Bharat Ratna, and former chief minister of Tamilnadu, a person who declined to be the PM, dropped out of school at age of 11. And Mr. Rahul Gandhi may be the most qualified congress president post independence. Ask Tejaswi all grilling questions about his vision, plans, and everything, but rejecting him because he is not that educated is not fair. Makers of our constitution were simply the best educated, visionary and patriotic people ever gathered in Lutyen's Delhi. They would have kept education as a criteria to become PM and CM if it was really that important. #BiharElections #DemocracyNotAristocracy



Friday, October 30, 2020

शमस्या स और श की


बिहारी चाहे दुनिया जीत लें, स श और ष का सही उच्चारण करना उनके लिए गौरीशंकर की चोटी ही है। चुनावी यात्रा में जबसे से सैकड़ों न्यूज चैनल और हजारों यूट्यूब चैनल वाले आम लोगों को पकड़ पकड़ कर  माइक उनके चेहरे पर घुसेड़ रहे हैं, सुद्ध बोलने वालों पर शुद्ध बोलने का प्रेसर बढ़ गया है।

यही दवाब है कि तेजस्वी  ' तेजश्वी' हो जाते हैं तो चिराग पासवान भैया चिराग ' पश्वान ' बन गए हैं। नीतीश कुमार ' नीतिसे कुमार ' से लेकर नितीश और नीतिष  तक बुलाए जा रहे हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत आती है सुशील मोदी का नाम लेने में। माइक नहीं हो सामने तो सुसील हैं, कैमरा के सामने शुशील सुषील शुसील क्या बोला जा रहा है, महादेव भी नहीं बता पा रहे। शामाष्या इतनी बढ़ गई है कि शड़क पर बातचीत सुनें या शमाचार पत्रों में पढ़ें , समझ नहीं आता कि स ष श का गठबंधन है ,  मेल हो गया है कि यह शब एक दूषरे के खिलाफ लड़ रहे हैं।

अब ष श वाली समस्या कम नहीं थी कि दिल्ली वाले पत्रकारों के खड़ी बोली सुनकर लोग अपनी भाषा के लिंग प्रयोग को लेकर सजग हो गए हैं। जो ट्रेन हमेशा लेट आता था , उसको ' ट्रेन लेट आती है ' कहना पड़ रहा है। कहा जाता है कि बिहारी सब जगह पुल्लिंग का प्रयोग करते हैं तो इसकी भरपाई के चक्कर में ' मेरा लड़का बंगलौर में पढ़ती है ' हो जा रहा है। ' आपकी काम हो गई का ' बोल कर भाषा बोली और व्याकरण सबका एक मिक्स वेज बन गया है। मैंने कहा की जगह ' हम कहा ' से लेकर 'मैं कहे ' सब बोले जा रहे हैं।



ऐसे ही कंफ्यूजन इतना ज्यादे है कि नीतीश को भाजपा सपोर्ट कर रही है कि नहीं, चिराग एनडीए में हैं कि नहीं, मुकेश सहनी धर्मनिरपेक्ष हैं कि नहीं , पते नय चल रहा है। तेज प्रताप अगर कृष्ण हैं तो कायदे से उनको तो सोलह हजार पत्नियां संभाल लेना चाहिए, एक नहीं संभल रही उनसे। तेजस्वी अगर उनके अर्जुन हैं तो वे तीर धनुष की जगह भीम बनकर सेल्फी वालों को काहे पटक रहे हैं। कोरोना , चुनाव, छठ पूजा और 10 लाख नौकरी  वाला लड़का मार्केट में आ जाने से  कहीं बेटा का दहेज  घट नहीं जाय, वाला चिंता कम था कि व्याकरण की शुद्धता  बनाये रखने का दवाब एक्स्ट्रा उपर से आ गया है। अब इ सब के बारे में सोचें कि स और श के बीच उलझे रहें। कशम से

Tuesday, October 27, 2020

Some Thoughts on Mirzapur 2

Simple solutions that could have solved all problems Mirzapur season 2  is trying to solve.. Also some insights to the the lives of all protagonists to make it bit easier.. If you haven't seen the season and don't want spoilers, you may postpone reading ahead till you watch the season.

A. Sabse pahle to Bauji ke room ka cable connection katwao, animal planet dekh dekh ke animal ban gaye hain..

B. Kaleen bhaiya ko ek Shilajit aur kesar ki bottle dilawao,patanjali wala rahe to badhiya, .. isse Beena bhabhi aur Desh dono atmnirbhar ho jaayenge. Aur nashte mein kaleen bhaiya ko bhi wohi kheer do, jo Bauji khate rahte hain.

C. Jo ilaaz Munna bhaiya ka ho raha hai, wohi ilaaz Guddu ka bhi karwao.. paanch goli kha ke Munna bhaiya pahle episode mein theek ho gaye, aur keval do goli kha ke Guddu bhaiya poore season langda rahe hain..

D. Beena ke Bachche ka DNA karwao.. mujhe to ab maqbool per shak ho raha hai.. bahut ho gaya loyalty ka nautanki..

E. Lala ko kaho ki jo hair dye baalon mein lagate hain, dadhi mein bhi laga lein.. achcha thode lagta hai chitkabra ban ke ghoomna..

F. Golu madam ka bas ek fantasy session Guddu bhaiya ke saath karwa do, phir waisi ulti seedhi fantasy dubara nahin hogi..

G. Senior pandit ka bhi count wala test karwao.. unki bachcon ke ek bhi lakshan unke jaise hain nahin.. lagta to hai ki Guddu pandit senior Tripathi ke hi bete hain.. 
Mirzapur ki gaddi ka saara maamla bhi settle ho jayega.

H. JP Yadav ko kaho ki woh bhi Bangkok jaaker Baba ki tarah ek mahine ka meditation karein.. chhoti si baat ke liye bhai ko bhi marwaya aur khud ki bhi lagwa li..

I. Dadda Tyagi ko Bihari kahna band karo.. Bihar mein koi second hand gaadi nahin kharidta.. infact koi gaadi kharidta hi nahin hai, sabko dahez mein nayi gaadi milti hai..

J. Robin urf Radheshyam ko finance minister banao UP ka.. faltoo ke uska talent barbaad kar rahe hain chhote mote kaam mein.. Robin ka bhi DNA test karwao... Saala Tripathi, Shukla aur Tyagi sabka kaminapan ek hi aadmi mein kaise aaya, pata chalna chahiye..

K. Guddu pandit ko samjhao ki decide karein ki karna kya chahte hain.. Mr. Mirzapur banna chahte the, phir Bahubali banne lag gaye, ab Beena bhabhi ko promise kar diye ki uska beta raja banega.. apne hone wale bachchon ko kaise bhool gaye Bheeshma pitamah ..




L.  Kaise bhi ho, jaise kaleen bhaiya ko last mein bacha liye, waise hi BHO-Wale chacha ko bacha lo.. Agar mar bhi gaye hon, to Kyonki saas bhi kabhi bahoo thi wale Mihir ke style mein wapas se zinda karo.. Bhale aadmi the, aur achcha dance karte the..

M. Aur ek chhota sa doubt poochhna hai sabse.. Bhaiya jab saare log Mirzapur, Ballia, Siwan se hi ho, sab log bhojpuri bolna kaise bhool gaye . Kam se kam ek aadmi ka accent to bhojpuri hona chahiye..


Baaki sab theek hai.. Banao season 3 bhaukaal type ka, season 2 type taany taany fuss mat kar dena..

Tuesday, October 20, 2020

रक्तबीज की कथा के मायने और विमर्श

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।

पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥ ~ दुर्गासप्तशती अष्टम अध्याय , रक्त बीज वध

अर्थात शक्ति और शूल आदि से,अनेक बार घायल होने पर,जो उसके शरीर से रक्त की धारा धरती पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए।


दुर्गासप्तशती के आठवें अध्याय में रक्तबीज वध का वर्णन आता है। रक्तबीज जिसके रक्त से दूसरा असुर उत्पन्न हो जाता था। देवी दुर्गा ने महा काली का रूप धारण कर रक्तबीज का संहार किया। दुर्गासप्तशती के आठवें अध्याय में वर्णित यह प्रसंग प्रथम दृष्टया काल्पनिक, और अवास्तविक लगता है। किसी के रक्त की एक बूंद से दूसरा असुर पैदा हो रहा है, युद्ध क्षेत्र में असंख्य असुर पैदा होकर देवी पर समवेत प्रहार कर रहे हैं। और फिर देवी अपने विकराल रूप में अपने मुख का आकार बढ़ा कर रक्तबीज के सारे रक्त का पान कर लेती हैं और रक्तबीज क्षीणकाय होकर मर जाता है।


शब्द शक्ति तीन प्रकार की होती है। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। अभिधा का अर्थ होता है जहां शब्दार्थ और भावार्थ समान हो। 

‌लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति वह है जहां शब्द प्रतीक रूप में प्रयुक्त होकर अपने शब्दार्थ से भिन्न भाव प्रकट करते हैं। साहित्य उतना ही उच्च कोटि का माना जाता है जो अपने शिल्प की प्रकृति में लाक्षणिक हो या जिसमें अनेक भावों की व्यंजना हुई हो। अभिधात्मक रचनाओं की प्रासंगिकता और उपयोगिता कम समय तक होती है, लक्षणा एवं व्यंजना शब्दशक्ति वाले काव्य सदियों तक प्रासंगिक और प्रचलन में बने रहते हैं। हमारे पौराणिक कथाएं और मिथकीय कहानियां चूंकि सदियों से प्रासंगिक है , जनचेतना का हिस्सा बने हुए हैं, इसीलिए यह मानना स्वाभाविक है कि हमारे पौराणिक ग्रंथों का कथ्य अभिधात्मक न होकर लाक्षणिक है। तो कहीं  चंद्रकांता संतति की तरह  काल्पनिक और अविश्वनीय लगती इन कहानियों का भावार्थ कुछ और हो सकता है क्या। 


‌रक्तबीज का कथा का भावार्थ कदाचित विचारधारा के संबंध में है। एक व्यक्ति के अनेक प्रतिरूप उत्पन्न होने का अर्थ विचारधारा के प्रसार से है। विचारधारा का प्रसार उर्ध्वाधर दिशा में होता है। कोई एक व्यक्ति जिसके विचारों से उसके अनुगामी प्रभावित होते हैं और विचारधारा का प्रवाह ऊपरी नेतृत्व से मध्यवर्ती और फिर निचले स्तर के नेतृत्व पर होता है। विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति स्वयंसेवक बनता है और इसके क्षैतिज विस्तार से संगठन का निर्माण होता है। इस प्रकार किसी भी संगठन को आप एक वृक्ष के रूप में देख सकते हैं।  वृक्ष के अंदर शिराओं में प्रवाहित जल और पोषक तत्व विचारधारा के समान है। नई फूटती कोपलें और टहनियां नए स्वयंसेवक हैं और पूरा वृक्ष एक संगठन है। जब तक वृक्ष  के अंदर शिराओं में जल रूपी विचारधारा प्रवाहित है, पेड़ जीवित है। उसकी कुछ टहनियां कट जाएं या पत्ते गिर भी जाए तो पेड़ जीवित रहता है। लेकिन जिस प्रकार से शिराओं में जल प्रवाह रुक जाने पर पेड़ मर जाता है, विचारधारा के समाप्त या निष्प्रभावी हो जाने पर संगठन मृतप्राय हो जाता है।


राम का साथ देने वाली वानर सेना पर विचार करें। वह कोई वेतनभोगी सैनिकों की सेना नहीं थी, ना ही राम रावण युद्ध के परिणाम से उनको कोई व्यक्तिगत लाभ होना था। फिर भी वे राम के साथ लड़े। गांधी के एक आव्हान पर पूरे देश में आंदोलन खड़े करने वाली जनता भी उस विचारधारा से प्रभावित थी। राजनैतिक दलों को भी उस कसौटी पर कस कर देखें तो आप देखेंगे कि किसी भी राजनैतिक दल के एक संगठन के रूप में सफलता और दीर्घ जीविता उसकी विचारधारा पर निर्भर करती है।


कोई भी संगठन जो क्षणिक स्वार्थों और लघु लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बना है, उन स्वार्थों को पाने के बाद की सफलता के बाद या तो दिशाहीन हो जाता है या असफलता के बाद निराश होकर टूट जाता है। यह विचारधारा ही है, जो संगठन को निरंतर दिशा और लक्ष्य प्रदान करती रहती है और उसका विकास करती रहती है।


इसलिए एक व्यक्ति के मर जाने, कुछ लक्ष्य में असफलता या मिली सफलता के बाद भी विचारधारा के बल पर संगठन चलता रहता है। विचारधारा इतनी सशक्त होती है कि यह संगठन के बिना भी जीवित रहती है। इस्लामिक एस्टेट को ही लें, यह कोई निश्चित संगठन नहीं है, बस एक सशक्त विचारधारा है जो अपने बल पर पूरी दुनिया में अपने लिए स्वयंसेवक उत्पन्न कर लेती है जिसे आप ' लोन वुल्फ अटैक ' के रूप में देखते हैं।  समाजवाद या मार्क्सवाद भले ही संगठन के तौर पर पूरी दुनिया में मृतप्राय हो चुका हो, लेकिन यह इतनी मजबूत विचारधारा है कि हर वैचारिक विमर्श और जीवन दर्शन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। व्यक्ति की हत्या हो सकती है, विचारधारा को समाप्त करना कठिन होता है।



यह एक दोधारी तलवार है, यह रक्तबीज भी बनाती है और स्वतंत्रता आंदोलन भी चलाती है, ' मैं भी अन्ना ' को ट्विटर पर ट्रेंड करा सकती है और पूरे विश्व को शीत युद्ध में धकेल सकती है । फिर भी यह किसी भी संगठन की प्राणवायु है। एक संगठन जिसकी विचारधारा बुरी है, उस संगठन से बेहतर है जिसकी कोई विचारधारा नहीं। रक्तबीज वध प्रसंग सीधे रूप में आपको एक पौराणिक कथा भले लगे, यह  लाक्षणिक रूप में विचारधारा की अवधारणा का एक सरलीकरण है।

Sunday, October 11, 2020

बागीचा अब बस एक सूखता ठूंठ तना है


पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

लेकिन लगता है जैसे युगों का हो अंतर

सब एक दूसरे से खिंचे खिंचे से हैं

मानो किसी बात पर रूठे रूठे से हैं

ना इंतजार है प्लास्टिक ट्रे वाली चाय का

ना मिलेगा जायका दातून जैसे ब्रेड स्टिक

के साथ वाले सूप का

पहले खाना था मानो गपशप की

मीठी गर्म चाशनी में सना है

अब मानो है सन्नाटे वाली

चुप सी बर्फ का बना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

पर लोगों के दरम्यान दूरियां कई गुणा है।


नजर नहीं आते अब

सहेज कर रखे गए लिहाफ

 और वो सलेटी लिफाफे में 

झक्क सफेद चादर का जोड़ा

ना मयस्सर है वह 

खुरदरा छोटा सा तौलिया

जिसको देख शायद एक बार 

हर किसी का दिल 

मचल ही जाता था कि 

साथ के चलें अपने घर

लालच से नहीं बल्कि शायद प्यार से

शायद कुछ यादगार अपने 

साथ रखने की चाह से।

लेकिन अब ना कोई देता दुआएं 

चादर समेटने वक़्त

ना चाय नाश्ते की बख्शीश मांगता 

दिखता कोई जना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पूछा जब उससे कि हुए क्या है तुझे

कहा उसने मैं तो हूं वैसा ही 

तुम्ही कहते हो कि कोरॉना है।



 




छोटे बच्चे जो दौड़ते थे पूरे डब्बे में

मचाते धमा चौकड़ी 

मानो पुरबा बह रही 

हो अरहर के खेतों से

आज बंधे है अपनी अपनी सीटों से

किसी भी दूसरी सीट पर जाना मना है

बगल की सीट पर बैठे बुजुर्ग 

 गोद में दादा दादा कह 

बैठ जाना मना है

चहचहाते पंछी अब ना बैठते डालियों पर

सारे बैठे ऐसे सहम कर

 जैसे कबूतरों ने किसी अदृश्य चील

के पंखों को फड़फड़ाते सुना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पहले जितने ही हैं लोग गिन के बहत्तर

पर लोगों के दरम्यान दूरियां कई गुणा है।


सोचा सफर खत्म होते ही 

बदलेंगी ये मायूस सूरतें

लपक कर उतरा स्टेशन पर

पर दिखा कि यह सन्नाटा तो 

स्टेशन पर और भी घना है

दिखे वो भी जो उठाते हैं

सारी दुनिया का बोझ 

एक कोने में खड़े दुबके से

जैसे कठोर मास्टर जी ने

होमवर्क ना करने की सजा दी हो


लाल कपड़े पहनने वालों की

अखें भी अब हो गई है लाल

मानो किसी ने उनके बोझिल

कंधों पर डाला बोझा तिगुना है

खो गई वह सामान को गिन कर

मोलभाव करने की वह अदा है

जो भी हो दे देना साहिब

क्योंकि अब बेगारी भी लगती भली

' ऐ कुली ' की आवाज़ सुनना भी हो

गई दूभर ,

 स्टेशन आज है एक सुनसान गली

कैसे कहूं कई महीनों से घर में ठीक से 

खाना तक नहीं बना है

जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

दुनिया का बोझा उठाना था आसान

अब अपनी ज़िन्दगी का वज़न कई गुणा है।


जो रेल डब्बा होता था एक बागीचा

अब बस एक सूखता ठूंठ तना है

पूछा जब उससे कि हुए क्या है तुझे

कहा उसने मैं तो हूं वैसा ही 

तुम्ही कहते हो कि कोरॉना है।



Saturday, October 3, 2020

तुक्का तो नहीं है आपका अभिमान

तुक्कों पर घमंड करना छोड़िए। गर्व तो उस बात का होना चाहिए जिसके लिये आपने प्रयास किया हो। जो तीर तुक्के से लग जाय, उसके बल पर अपने को गांडीव धारी अर्जुन समझना बेवकूफी है। 

मैं मर्द हूं। अब इसी बात का घमंड करने वाले शायद यह नहीं जानते कि बस क्रोमोसोम में एक वाई का एक्स हो गया होता तो आज आप डोले दिखाने की जगह पानी पूरी वाले से एक्स्ट्रा तीखा और खट्टा पानी मांग रहे होते। और मैं स्त्री हूं, दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज। अगर ऐसा कोई अल्ट्रा फेमिनिस्ट  भाव आपके मन में आ रहा हो तो ध्यान से सुनिए | अगर आपने अपना सेक्स चेंज ऑपरेशन करवा कर अपने आप को स्त्री बनाया है तो आपका गर्व करना कुछ जायज भी है वरना वही एक्स का वाई हो गया होता तो आपका निक नेम अलीशा की जगह आलसी राम भी हो सकता था। फिर  फेसबुक पर आपकी एक  फोटो को हजार लाइक नहीं, बीस  फोटो के एल्बम पर कुल जमा तेरह  लाइक मिलते, जिसमें पांच लाइक आपकी माँ के होते और तीन लाइक  दूर के चाचा जी के, जो हर चीज़ पर लाइक  बटन दबाना अपना अधिकार और कर्त्तव्य दोनों  समझते हैं | । और आप अकेले में गूगल सर्च करते कि हाउ टू इंप्रेस ए गर्ल : एन इडियट्स गाइड।

लड़का लड़की ही क्यों? मैं गोरी हूं, सुन्दर हूं, लम्बा हूं, मेरी आंखें नीली हैं, मैं छह फीट का हूं और वह तीन  फीट का, वगैरह वगैरह। सब तुक्के हैं, महज तुक्के। और तुक्के का क्या है कि हमेशा नहीं लगता। इस तुक्केवाद को छोड़ दें तो कितनी समस्या का समाधान चुटकी में हो जाय। 

यही बात देश, धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा सब पर लागू होती है। आपका अपने देश पर गर्व करना वहीं तक जायज है जब तक आप दूसरे देश का सम्मान करें और इस बात तो मान कर चलें कि आपका आपके देश में जन्म सिर्फ एक रैंडम इवेंट  या तुक्का है | आपका जन्म उस देश में भी हो सकता था जिसे आप निकृष्ट और पिछड़ा मानते हैं। फिर क्या उस देश के प्रति आपके वही विचार होते जो आज हैं। 

यह तुक्कावाद की  कसौटी उन तमाम स्थितियों पर मददगार हो सकती है जहां यह निर्धारित करना हो कि आपके विचारों का आधार सुदृढ़ है या नहीं। भाषा को ही लें। आपको अपनी भाषा पर गर्व हो सकता है लेकिन दूसरी भाषा से अपनी भाषा को श्रेष्ठ मानना  महज तुक्केबाजी है। यकीन मानिए कि संसार का हर जीव अपनी भाषा को श्रेष्ठ मानता है। चाहे आपकी भाषा कितनी ही साहित्यिक ही, माधुर्य रस से सराबोर हो, एक वानर के प्रणय निवेदन के लिए किसी काम नहीं आ सकती । अब जो भाषा एक वानर के काम की नहीं, आप उस पर वानर को गर्व करने और उसकी अपनी भाषा  को आपकी  भाषा से कमतर मानने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यह महज तुक्का है कि आपने उस क्षेत्र में जन्म लिया जहां आपकी भाषा बोली जाती है। अगर आप वानर होते तो आपको अपनी वानर वाली भाषा अच्छी लगती। अपनी भाषा पर गर्व करते समय यह तुक्का याद रख कर आप अनावश्यक गर्व या अन्य भाषा के प्रति अपमान के भाव से बच सकते हैं। 

बाकी बची वह चीजें जो आपने अपनी योग्यता और मेहनत से प्राप्त की है। उस पर गर्व किया जाय या नहीं। सालों की मेहनत के बाद प्राप्त गुण संपत्ति बहुधा विनम्रता ही लाती है, गर्व नहीं। वाल्मीकि और कालिदास अपने संस्कृत ज्ञान पर गर्वित ना होकर विनम्र होंगे। ना ही अमेज़न के मालिक जेफ बेजोज किसी को अपना बैंक बैलेंस बताते होंगे | अल्बर्ट आइंस्टाइन शायद ही किसी को कहते होंगे कि जानते नहीं हो कि मैं कितना बड़ा वैज्ञानिक हूं। बाद सोच कर भी हंसी आ जाती है। हां उनकी दिए हुए सिद्धांतों को आधा अधूरा समझने के बाद आपमें गर्व जरूर आ सकता है। 

लब्बोलुआब यह कि आपके अंदर का गर्व या तो एक तुक्कावाद है या आपकी अधूरी सफलता का द्योतक। आवश्यक है कि आप दोनों स्थितियों से बचें। नहीं तो आपकी स्थिति उसी व्यक्ति की तरह  होगी जो लूडो के  पासे  में छह आने पर उसैन बोल्ट की तरह खुश हो रहा हो |  




Thursday, October 1, 2020

गांधी के मूल्यांकन की संकीर्ण दृष्टिगत अपंगता

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ एक बात समझ गए कि एक एकत्रित हिंदुस्तान पर शासन करने के कहीं आसान होगा एक टूटे और बिखरे हिंदुस्तान पर शासन करना। 1857 की क्रांति में एक तरफ जहां रानी लक्ष्मी बाई थी तो दूसरी तरफ बेगम हज़रत महल। दिल्ली में बख्त खान सेना का नेतृत्व कर रहे थे तो जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह। बरेली में जहां खान बहादुर रोहिल्ला ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था तो कानपुर में तात्या टोपे ने युद्ध का बिगुल बजा दिया था। हिन्दू मुसलमान की यह एकता का यह प्रदर्शन जहां सिर्फ उत्तर भारत तक सीमित था और वह भी एक  बड़े सामजिक वर्ग से अछूता था,  फिर भी अंग्रेजों को यह याद दिला गया कि भारत में फूट डालो और शासन करो की नीति ही उनको स्थायित्व दे सकती है। 

1857 के बाद सबसे पहले डलहौजी की विस्तारवाद की नीति पर पूर्णविराम लगाया गया ताकि साझा असंतोष के नाम पर अंग्रेज़ भारतीयों के साझा शत्रु ना बनें। उन्होंने इसकी व्यवस्था की कि भारतीय समाज को हमेशा उनका शत्रु अपने समाज में दिखे ना कि ब्रिटिश सरकार के रूप में। 

उनकी इस साजिश के पहले शिकार बने सर सैय्यद अहमद खान। अंग्रेजों ने सर सैयद अहमद खान के जरिए मुसलमानों की यह अहसास दिलाया कि उनका हित अंग्रेजों के साथ है ना कि भारतीय जनता के साथ जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। इसी का परिणाम आपको कांग्रेस के स्थापना में दिखता है जहां एक अंग्रेज़ ए ओ ह्युम कांग्रेस की संस्थापक बनते हैं तो दूसरी तरफ सर सैय्यद अहमद खान  मोहमडन  एसोसिएशन और 1888 में कांग्रेस के समानांतर यूनाइटेड इंडियन पट्रियोटिक एसोसिएशन की स्थापना करते हैं |   सर सैय्यद अहमद खान ने मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था है और मुसलमानों को उससे दूर रहना चाहिए। सोचिए एक अंग्रेज़ कांग्रेस की स्थापना करवाता है और दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार यह प्रचारित करती है कि यह हिन्दुओं की संस्था है। कांग्रेस की स्थापना के बीस साल बाद  1905 में अंग्रेजों की ही वरदहस्त के साथ मुस्लिम लीग की स्थापना होती है। सांप्रदायिक आधार पर बंगाल का बंटवारा कर दिया जाता है और बंगाल जो राष्ट्रवाद का सबसे उभरता गढ़ था, उसे मुस्लिम बंगाल और हिन्दू बंगाल में तोड़ दिया जाता है। आगे  1909 के मार्ले मिंटो सुधार के तहत मुसलमानों को पृथक निर्वाचन तक दे दिया जाता है।

1920 के असहयोग आंदोलन में गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ कर अंग्रेजों के इस विभाजनकारी  नीति के विरूद्ध एक मजबूत मोर्चा तैयार किया। असहयोग आंदोलन के बाद अंग्रेजों को लगा कि मुसलमानों को पृथक करना ही काफी नहीं है, हिन्दुओं को भी कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के पृथक करना आवश्यक है । कांग्रेस के ही नेता रह चुके श्री  केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मानो अंग्रेजों  को मुंहमांगी चीज दे दी। अब मुस्लिम राष्ट्रवाद का झंडा उठाने वाली एक मुस्लिम लीग थी, हिन्दू राष्ट्र के लिए प्रयासरत आरएसएस थी और एक कांग्रेस का राष्ट्रवाद था।

अंग्रेजों का मन इतने से भी नहीं भरा। उनको तो सोने की चिड़िया पर अपना शासन और भी पक्का करना था। 1932 में  दलितों और तथाकथित नीची जातियों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र देने की बात ब्रिटिश प्रधानमंत्री  रामसे मैक्डोनल्ड ने की। इस ही मैक्डोनल्ड अवॉर्ड या सांप्रदायिक अवॉर्ड कहा जाता है।

इसके तहत  व्यवस्था थी कि मुस्लिमों की तरह दलित भी अपने प्रतिनिधि अलग चुनेंगे और वह हिन्दू नहीं माने जाएंगे। इसके खिलाफ गांधी जिन आमरण अनशन शुरू किया और इस बिल को वापस लेने की मांग की। गांधी जी ने 1932 में पुणे के यरवदा जेल में अम्बेडकर जी के साथ पूना समझौता किया और दलितों के नाम पर समाज के एक और विभाजन को रोका। 

अब हमारे हिन्दू भाई जो अपने आप को बहुसंख्यक होने का दंभ भरते हैं और हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देखते हैं, अगर गांधी जी ने पूना समझौता नहीं किया होता तो हिन्दू हिन्दुस्तान में ही अल्पसंख्यक हो गए होते । 1947 में एक और दलित राष्ट्र बनता पाकिस्तान की तर्ज पर। तो जब भी अपने बहुसंख्यक होने पर गर्व हो, तो स्मरण कर लेना कि यह संख्या किसके बल पर है।

हमारे दलित भाई जिनके नेता बहुधा गांधी को गाली देने में शान समझते हैं एक बार गांधी जीवन चरित स्वयं से पढ़ लें। ध्यातव्य है कि यहां स्वयं से पढ़ने की बात की गई है, दुराग्रह और पूर्वाग्रह से दूर होकर, ना कि किसी नेताजी के भाषणों के आधार पर गांधी के मूल्यांकन करने की। आजकल के नेता बहुत हुआ तो दलित घरों में फाइवस्टार का खाना मंगवा कर खा लेते हैं। गांधी जी ने दलितों के साथ मैला उठाने का कार्य किया लगभग पूरे 30 के दशक के दौरान। दलित उद्धार में गाँधी जी का योगदान आप  इस रूप में देख सकते हैं कि अनुच्छेद 17 के तहत संविधानिक स्तर पर छूआछूत का अंत किया गया | 




और हमारे मुसलमान भाई, जिनको लगता है कि गांधी हिन्दुओं के नेता थे, गांधी जी की भूमिका दंगों के दौरान देख लें। हां वह आपके बीच टोपी पहन कर इफ्तार करने नहीं जाते थे और ना ही आपके उलेमा से मिलकर आपके वोट की मांग करते थे। इसीलिए शायद आपको वह मुसलमानों के हितैषी ना लगे, लेकिन विभाजन के दुख से उन्होंने स्वतंत्रता के उल्लास मनाने से इंकार कर दिया और अगस्त 1947 में नोआखली की दंगा पीड़ित गलियों की खाक छान रहे थे।  अगर गाँधी हिन्दुओं के नेता होते तो जिन्ना की तरह हिन्दुओं  से डायरेक्ट एक्शन की अपील पर आपका क्या होता बस सोच कर देख लें | 

गांधी जैसे व्यक्तित्व हजारों वर्षों में एक बार आते हैं। दुर्भाग्य से हमारे समाज के कपाल पर उनकी हत्या का कलंक है जो शायद ही कभी मिटे। उस कलंक ने विश्व में हमें वही स्थान दिया है जो एक पितृहंता को हम  अपने समाज में देते हैं। गांधी की हत्या बंदूक  से नहीं हुई, उनकी हत्या हुई उस संकीर्णता के कारण जो भारत को सम्पूर्ण रूप में ना देख कर हिन्दू, मुस्लिम और दलित भारत के रूप में देखता है। यह हमारी वैचारिक अपंगता है कि हम गांधी दर्शन और विचार को अभी भी आत्मसात करने में विफल रहे हैं। इस अपंगता से सबको शीघ्र मुक्ति मिले, यही कामना है।

बापू के जन्मदिवस पर उनको शत शत नमन।