पहली कहानी – पीटर मार्टिजबर्ग स्टेशन , दक्षिण अफ्रीका की रात
दक्षिण अफ्रीका की एक ठंडी रात। प्रिटोरिया जाने वाली ट्रेन के डिब्बे में एक नौजवान बैरिस्टर अपने रिज़र्व्ड टिकट के बावजूद धक्का देकर बाहर फेंक दिया जाता है—केवल इसलिए कि उसकी त्वचा सांवली है। प्लेटफॉर्म की सर्द हवा में पड़े मोहनदास करमचंद गांधी के भीतर कुछ टूटता नहीं, बल्कि कुछ नया जन्म लेता है। उसी रात बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने का बीज फूटता है।
"अन्याय के आगे झुकना भी अन्याय है,
और अन्याय से लड़ना ही सच्चा न्याय है।"
दूसरी कहानी – शिकागो का मंच
उधर, समुद्र पार अमेरिका में शिकागो की Parliament of Religions में एक दुबला-पतला, तेजस्वी संन्यासी नरेंद्र खड़ा है।
“Sisters and Brothers of America…”
यह संबोधन सुनकर हॉल तालियों से गूंज उठता है। यह नरेंद्र अब केवल नरेंद्र नहीं रहता—स्वामी विवेकानंद बन जाता है, जो भारत की आत्मा को पूरी दुनिया के सामने गर्व से प्रस्तुत करता है।
"न स्वयं पतन्ति, न सतां समीपात् पतन्ति —
जो स्वयं ऊँचाई पर होते हैं, वे दूसरों को भी उठाते हैं।"
तीसरी कहानी – पुणे की गलियां
इधर भारत में, पुणे की तंग गलियों में लोकमान्य तिलक गणेश चतुर्थी को घर की पूजा से बाहर निकालकर जन-जन का उत्सव बना रहे हैं। वह लोगों को प्रेरित करते हैं कि घर के छोटे से पूजा घर की जगह गणपति की पूजा बड़े बड़े सार्वजनिक पंडालों में की जाय। उनका मकसद केवल पूजा नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति की मशाल जलाना है। गणपति बप्पा की प्रतिमा के सामने देशभक्ति के गीत गूंजते हैं, व्याख्यान और नाटक होते हैं, लोग संगठित होते हैं। यही वह बीज है जिससे आगे चलकर आज़ादी का विराट वृक्ष पनपता है।
"वन्दे मातरम् के स्वर जहाँ गूँजते हैं,
वहीं से स्वराज्य का सूर्योदय होता है।"
तीन कहानियां, एक ही साल – 1893
1893 कोई साधारण वर्ष नहीं था।
पीटरमार्टिजबर्ग की रात ने हमें सत्याग्रह का संकल्प दिया। “अहिंसा ही सबसे बड़ा शस्त्र है"।
शिकागो के मंच ने हमें आत्मगौरव का संदेश दिया। “उठो, जागो और अपने महान् होने का बोध करो।”
पुणे की गलियां ने हमें संगठित राष्ट्रवाद का मार्ग दिया । “धर्म और संस्कृति से बड़ा प्रेरणा स्रोत कोई नहीं।”
यह वह साल था जब भारत ने महसूस किया कि वह केवल सोने की चिड़िया नहीं, बल्कि जीवित आत्मा है।
"स्वत्व जागरणे राष्ट्रं जागरति।
जब व्यक्ति अपनी शक्ति पहचानता है, तब राष्ट्र भी जाग उठता है।"
आज जब पूरा राष्ट्र गणेश चतुर्थी मना रहा है, तो स्वाभाविक है कि इसके स्वरूप को बदलने वाले बाल गंगाधर तिलक को भी प्रणाम करें। प्रणाम करें स्वामी विवेकानंद को और राष्ट्रपिता को। एक तरह से देखें तो सबका जन्म 1893 में ही हुआ।
गणपति बप्पा मोरया! मंगलमुर्ति मोरया!
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