भाई साब चल ही नहीं पा रहे थे। उनको चलाने की बहुत कोशिश की गई लेकिन साहब थे कि किसी भी तरह से चले ही नहीं। फिर उनके आस पास के चालू लोगों ने कहा कि साब आप चिल ज्यादा करते हैं इसलिए आप चल नहीं पा रहे। ना साहब चल पा रहे थे और ना ही अपनी पार्टी चला पा रहे थे। चुनाव दर चुनाव विपक्षी उनको चलता किए जा रही थी। कुछ साल पहले साहब ने पार्टी चलाने वाला काम छोड़ दिया । दिक्कत यह थी कि पार्टी के लोग ज़िद करके बैठ गए कि साहब पार्टी तो आप ही चलाओ। लेकिन साहब थे कि चलना तो दूर अपनी जगह से हिले डुले तक नहीं।समय का पहिया चलता रहा , पार्टी के पुराने लोगों ने पार्टी की हालत देख कर " अच्छा, चलता हूं " कहना शुरू कर दिया। सब कहने लगे कि ऐसे तो पार्टी ही चल बसेगी।
फिर एक दिन किसी चालू चापलूस ने कहा कि साहब, श्री मोहन दास भी पहले नमक के लिए चले थे, फिर तो ऐसा चले, चल चल कर ही ऐसे उनके भाग्य बदले कि वैसे करम दुनिया में चंद लोगों की ही होती है। फिर भाई साब ने भी सोचा कि चिल बहुत हुआ, अब चला जाय। फिर भाई साब चलने लगे। खूब दूर दूर तक चले, दक्षिण से चले और उत्तर की तलाश में। उनकी पार्टी की धमनियों में रुका रक्त चलने लगा और साथ ही चलने लगा उनका मीडिया अभियान। खूब खबरें चलाई गई, एडिटर लोग साहब के चलने के किस्से लिखने के लिए ताबड़तोड़ कलम चलाने लगे। टीवी पर बटेरबाजी और मुर्गे की लड़ाई की याद दिलाने वाली चर्चाओं का दौर चला। लेकिन यह सब भी कितने दिन चलता। उनकी खबरें चलाने वाले सहयोगी भी अपनी दुकान बेच कर चलते बने ।
चल चल कर थक जाने के बाद साहब दिल्ली पहुंचे । दिल्ली पहुंचे तो वहां भी गए जहां साल में तीन बार सत्र चलता है। साहब वहां भी अपने चलने की कहानियां चलाने लगे लेकिन वो ही पुराना कैसेट कितनी चलता। लोग कहने लगे कि भाई वो ही घिसी पिटी बात को चलता करो । साहब का मजाक उड़ता देखसाहब के लोगों को गुस्सा आ गया। पुराना ज़माना होता तो तलवारें चल जाती। लेकिन आज के ज़माने में तलवार से ज्यादा जुबां चलने का रिवाज है। कहने लगे कि साहब इतना चले हैं कि और कुछ नहीं चलने देंगे, यह सत्र भी नहीं। सत्र भी रुक रुक कर ही चला। जनता बेचारी दूर खड़ी सोचती रही कि आखिर चल क्या रहा है?
साहब का चलना भले ही रुक गया हो लेकिन कहानी क्रमशः यूं ही चलती रहेगी । यही तो खासियत है कहानी और गाड़ी की, कि दोनो चलती रहती है। इसीलिए तो एक सुपरहिट चलचित्र बनी थी ' चलती का नाम गाड़ी' । वैसे चलते चलते एक और बात बता दूं कि एक और चलचित्र है बढ़ती का नाम दाढ़ी। लेकिन दाढ़ी वाली चलचित्र कोई खास चली नहीं थी।
चलने चलाने की इस छोटी सी कथा के अंत में इतना ही कहना है कि चलना ही तो जिंदगी है। बीमारों को क्या चाहिए यही कि उनकी दवा चलती रहे। दोस्तों को क्या चाहिए यही कि उनका याराना चलता रहे। व्यापारियों का व्यापार चलता रहना चाहिए, नवयुवकों और नवयुवतियों का चक्कर चलता रहना चाहिए, जाम और शाम का यह सफर चलता रहना चाहिए और चलता रहना चाहिए हमारा यह फलसफा। पता नहीं यह सब पढ़ कर आपके दिमाग में क्या चल रहा है। आप हर चीज में गंभीरता और दर्शन तलाशना बंद करिए। कभी कभी हल्का फुल्का हंसी मजाक भी चलना चाहिए। चलता हूं।
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