रामायण में एक प्रसंग आता है राम रावण युद्ध के बाद का। अपनी नाभि में राम का अस्त्र लिए लंकेश रावण युद्ध क्षेत्र में धायल पड़े हैं। श्रीराम लक्ष्मण को रावण के जाने और उनसे ज्ञान प्राप्त करने को कहते हैं। लक्ष्मण कहते हैं कि हे राम! भला रावण मुझे ऐसा क्या ज्ञान दे सकता है जो मुझे आपसे प्राप्त नहीं हो सकता। श्रीराम कहते हैं कि रावण एक महान प्रतापी राजा था। उसने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया और जिसके प्रताप का लोहा तीनों लोकों ने माना है। भले ही हम इक्ष्वाकु वंश के वंशज हैं लेकिन हमें अपने पूर्वजों के सान्निध्य में राज्यनीति के बारे में सीखने का कोई खास अवसर नहीं मिला। और ना ही मेरे पास राज्य चलाने का कोई अनुभव है। उसके उलट रावण के पास शासन चलाने का गहरा अनुभव है। यहां से लौटते ही मुझे अयोध्या का राजकाज सौंप दिया जायेगा। मुझ जैसे अनुभवहीन शासक को रावण से सीखने का मौका गंवाना नहीं चाहिए।
दूसरा प्रसंग आता है राम बालि युद्ध के बाद। युद्ध में घायल बालि के पास राम जाते हैं। बालि राम से कहते हैं कि आपने छल से छिप कर मुझे मारा है। आपने इस युद्ध में हिस्सा लिया जिससे आपका कोई मतलब नहीं था। श्रीराम कहते हैं कि में क्षत्रिय हूं और तुम एक वानर हो। मुझे आखेट का अधिकार है इसीलिए मैं छिप कर भी चाहूं तो आखेट कर सकता हूं। बालि प्रत्युत्तर में कहते हैं कि आप मेरे मांस का भक्षण नहीं कर सकते और मुझसे आपको कोई प्राणों का भय भी नहीं था। इसीलिए आपका मेरा अकारण आखेट करना भी अनुचित है। श्रीराम कहते हैं कि मैं अयोध्या के राजन भरत का दूत हूं और यह भूमि राजा भरत के साम्राज्य का अंग है। अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी का हरण कर तुमने अयोध्या के नियमों का उल्लंघन किया है। उन नियमों को तोड़ने का दंड देने के लिए मैं महाराज भरत का अधिकृत दूत हूं।
राम बालि प्रसंग में किसका तर्क ज्यादा सही है यह विचारणीय प्रश्न हो सकता है लेकिन उपरोक्त दोनों प्रसंगों से एक बात स्पष्ट है। भीषण प्रतिद्वंदी और युद्ध होने के बाद भी श्रीराम बालि और रावण से संवाद का पुल बनाए रखते हैं। रावण और बालि जैसे अधम पुरुषों के लिए भी श्रीराम के दरबार में संवाद की संभावना हमेशा रही । युद्ध , मतभेद या वैचारिक विभेद कभी संवाद का विकल्प नहीं हो सकते। संवाद एक शाश्वत सत्य होना चाहिए। क्योंकि विपक्षी कोई भी ही आपको हमेशा कुछ न कुछ सिखा सकता है। अगर बालि जैसा वानर मर्यादा पुरुषोत्तम को निरुत्तर कर सकने वाले तर्क दे सकता है तो हर किसी से संवाद की संभावना हमेशा ही सुखद परिणाम दे सकती है।
दूसरी बात जो उपरोक्त दोनों प्रसंगों से उभर कर सामने आती है कि हमारे महाकाव्य अपने चरित्रों को अच्छे या बुरे के युग्म खांचों में जबरदस्ती ठूंसने का प्रयास नहीं करते। उनके चरित्र हमेशा अच्छे या बुरे होने के बजाय अच्छे और बुरे होते हैं। रावण और बालि के चरित्र का राम के द्वारा मूल्यांकन भी यही दर्शाता है। कदाचित राम द्वारा अपने आप को अनुभव हीन शासक के रूप में देखना और आगे चल कर अपनी पत्नी सीता को वनवास और अग्नि परीक्षा से गुजारना भी यही दर्शाता है कि राम भी केवल गुणों की खान नहीं हैं और उनमें भी कुछ कमियां हैं। ना राम पूर्ण रूप से पुरुषोत्तम हैं और ना रावण पूर्ण नराधम। सभी चरित्र इन दोनो चरम अवस्थाओं के बीच ही कहीं आते हैं। इसीलिए हर किसी से संवाद और संवाद का प्रयास ना केवल वांछनीय है अपितु संस्तुत भी है।
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