Tuesday, December 29, 2020

तुम कल पत्थर थे, आज मिट्टी हो

तुम मिट्टी हो। तुम्हें हमेशा आस पास ही पाया है। आस पास क्या, हमेशा तुम्हें अपने पैरों के नीचे ही देखा है। फिर भी, कभी तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनी,  तुम्हें कभी बोलते नहीं सुना। शायद तुम्हें बोलने की इजाज़त लोगों ने कभी दी ही नहीं। तुम हर जगह हो पर मिट्टी को लोग अपने घर आने तक नहीं देते हैं। घर की चौखट के बाहर रखे, उस स्वागतम लिखी चटाई तक ही तुम्हारा स्वागत रुक जाता है, तुम्हारे आगे जाने से घर गन्दा हो जाएगा ना। यह अलग बात है कि वह घर खुद मिट्टी ने बनाया है। 

ऐसा नहीं है कि इन्सानों ने ही  तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव किया हो। बारिश का पानी , जिसका इंतजार कर कर के तुम्हारी छाती फट जाती है। जिस पानी को तुम सूरज की तेज धूप से बचाने के लिए अपने सीने में छुपा लेते हो | अपने अंदर रख कर भी उसको अपने को उससे दूर रखते हो, ताकि वह निर्मल कहला सके | जिसके लिए तुम्हारे पूरे बदन पर दरारें आ जाती है,  वह भी तुमसे मिलने में कतराता है। तुमसे मिलने के बाद उसका रंग मटमैला जो हो जाता है।  हर चीज़ तुम्हीं से निकलती है, पर तुमसे पीछा छुड़ाना चाहती है।

गेहूं , गुलाब, अफीम  या अंगूर सब तुमसे ही निकलते हैं, लेकिन सबसे पहले उन पर लगी मिट्टी धोयी जाती है। तुमसे ही निकले जब तक तुमसे जुदा ना हों, साफ सुथरे नहीं कहलाते। कहते हैं मनुष्य का शरीर भी तुमने ही बनाया है, मिट्टी का तन मिट्टी का मन तो बहुत सुना, यह किसी ने नहीं बताया कि वही मिट्टी अगर शरीर से लग जाय तो मैल कह कर क्यों दुत्कारी जाती है। जिसने अपना सर्वस्व सृजन के लिए न्योछावर हो,  उसका नाम बर्बादी और विनाश से जोड़ कर मिटटी में मिला दूंगा जैसी बातें क्यों की जाती है|  जो मिटटी सोना और हीरा उगलती है उसकी कीमत को माटी के मोल कह कर क्यों नीचे दिखाते हैं | 

शायद दुनिया ऐसी ही है | सुना है कि तुम भी कभी पत्थर थे। वक्त के थपेड़ों ने घिस घिस कर तुम्हें आज मिट्टी बना दिया। पत्थर थे तो शालिग्राम थे, आज मिट्टी बन गए तो मैल, धूल, कीचड़, गन्दगी क्या क्या नहीं कहलाते। फिर सोचता हूं, कि तुम कल पत्थर थे, आज मिट्टी हो | मैं आज इंसान हूं, कल मिट्टी बनूंगा। कल मिट्टी बनूंगा। 



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