Tuesday, December 1, 2020

राजनीति और देशहित

राजनीति और देशहित अलग अलग चीजें हैं। कोई आवश्यक नहीं कि सतही स्तर पर दोनों का सामंजस्य दिखे लेकिन यह कोई बहुत चिंता की बात नहीं है। चलिए इस महीन अंतर को थोड़े उदाहरणों के मदद से समझते हैं।

पिछले दिनों पाकिस्तान की संसद में एक घटना हुई। पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज के सांसद सादिक ने संसद में यह दावा किया कि फ्लाइट कमांडर अभिनंदन को छोड़ने के फैसले के समय वहां के सैन्य प्रमुख बाजवा के पैर कांप रहे थे। सत्ताधारी दल की थू थू हुई और विपक्ष ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि सत्ताधारी दल हिन्दुस्तान से डरता है , भारत का पिछलग्गू है और पाकिस्तान के हितों से समझौता करता है। 

वर्ष 2017 में जीएसटी लगने के बाद से ही मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इसको गब्बर सिंह टैक्स कहकर प्रचारित करता रहा है। विमुद्रिकरण का विरोध भी लगातार हुआ है। Demonetization के बारे में तो यह कहा जाता है कि इसके अर्थव्यवस्था खासकर असंगठित क्षेत्र की कमर तोड दी।

वर्ष 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर आईएमएफ से उधार लिया था। चंद्रशेखर को देश का सोना गिरवी रखने के लिए विपक्षी दलों द्वारा क्या क्या सुनना पड़ा होगा आप इसकी कल्पना कर सकते हैं।

उपर दिए गए उदाहरणों को आप दुबारा सोचने की कोशिश करें। हरेक स्थिति में विपक्ष को सत्ताधारी दल और सत्ता को विपक्ष में मान लें। क्या आपको लगता है कि इमरान खान की जगह अगर नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री होते तो पाकिस्तान अभिनंदन को रिहा करने के जगह भारत पर हमला करने का निर्णय लेता। क्या आपको लगता है कि राजनीतिक दल के रूप में जो कांग्रेस जीएसटी का इतना विरोध करती है, कल सत्ता में आने के बाद जीएसटी खत्म कर देगी या सारे पुराने नोट वापस से बाज़ार में आजाएंगे ।

1991 में चंद्रशेखर अगर विपक्ष में होते तो किसी सरकार द्वारा सोना गिरवी रखे जाने पर उसकी चूलें हिला देते ठीक उसी तरह जिस तरह उनके विपक्षियों ने उस समय किया।

वर्तमान किसान आंदोलन को ही लें, जो कृषि सुधार और कानून वर्तमान सरकार द्वारा लाए गए हैं वह भाजपा और कांग्रेस दोनों के चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा थे। अगर आज कांग्रेस सत्ता में होती तो वह भी यही कानून पास कर रही होती। और हां इसका विरोध भाजपा शासित राज्य कर रहे होते। विरोध का मतलब आप यह ना निकालें कि कल कांग्रेस की सरकार बन गई तो यह कानून वापस हो जाएंगे, धारा 370 फिर से बहाल हो जाएगा या जीएसटी खत्म कर दिया जाएगा।

राज्य और सरकार में अंतर होता है। राज्य हम भारत के लोगों का एक साझा न्यास है, और सरकार उसकी एक अस्थाई संरक्षक मात्र। कानून और नीतियां देशहित और व्यापक जनकल्याण को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं। सरकार के बदलने से उन नीतियों में कोई बदलाव नहीं आता। क्योंकि देशहित उससे उपर होता है। सरकारें किसी रिले रेस में दौड़ते उन धावकों की तरह हैं जिनका काम सिर्फ अलगी सरकार को बेटन पास करना होता है और देश के व्यापक हित को पाने की यह दौड़ अनवरत चलती रहती है | कोई भी धावक उलटी दिशा में नहीं दौड़ता सिर्फ लक्ष्य की और दौड़ता है |





भाजपा कथित रूप से राष्ट्रवादी पार्टी है जो कश्मीर हमारा है के नारे लगाती है, क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस की सरकार आते ही कश्मीर थाल में परोस कर पाकिस्तान को दे दिया जाएगा। कश्मीर में आतंकवादियों के मुठभेड़ बंद हो जाएंगे और वहां से सेनाएं हटा ली जाएंगी। 

अगर न्यूजचैनल पर होने वाली बहस को आप देखें तो शायद आपको लगे कि ऐसा ही होगा, बल्कि सच्चाई इससे कहीं परे है। ऐसा ही कुछ कृषि सुधारों को लेकर बने नए कानूनों को लेकर है। यह कानून देश के किसानों के व्यापक हितों को लेकर बनाए गए हैं। हरित क्रांति के बाद कृषि क्षेत्र में फायदा सीमित क्षेत्रों और सीमित बड़े किसानों को ही मिला। इसकी एक बानगी यह है कि msp या न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा सिर्फ छह प्रतिशत किसानों और वह भी बड़े किसानों को मिलता है। देश की नीति अब छोटे और सीमांत किसानों की आय सुरक्षा करने की है और हर सरकार इसी दिशा में कार्य करेगी। देश के सीमांत किसानों की सालाना आय मात्र 20000 रुपए के आसपास है। इसको बदलने की दिशा में यह कदम निर्णायक होंगे। और सत्ता परिवर्तन के बाद भी इन नियमों में कोई परिवर्तन नहीं होगा।

जिस प्रकार 1991 में हमने सेवा क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किए , यह वक्त प्राथमिक कृषि क्षेत्र में दूरगामी नीतिगत परिवर्तनों का है। राजनीति कुछ भी कहे या करे, देशहित सर्वोपरि है। विपक्ष में बैठकर बोलना आसान है और बोलना भी चाहिए क्योंकि कोई भी दल सत्ता से दूर रहकर बहुत प्रगति नहीं कर सकता। सत्ता के लिए राजनीति होती ही है और होती रहेगी भी। 

भारत जैसे देश में वैसे भी राजनीति का ऐसा घुलामिला रूप है कि कुछ भी  समझना मुश्किल है। कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है लेकिन उसके नेता मंदिर मंदिर घूमते हैं और दरगाह पर चादर चढ़ाते हैं। भाजपा एक दक्षिणपंथी पार्टी है लेकिन सबसे ज्यादा सब्सिडी देने वाली पोपुलिस्ट नीतियां अपनाती हैं। अरविंद केजरीवाल जो वैचारिक स्तर पर वामपंथ के कहीं करीब हैं चुनाव प्रचार में पूरी हनुमान चालीसा बांच जाते हैं। और लेफ्टिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी ममता बैनर्जी की पार्टी से तालमेल करना चाह रही है। तो ऐसी ढुलमुल राजनीतिक मान्यताओं का देशहित पर कोई स्थाई प्रभाव पड़ना  संभव नहीं है। आप निश्चिंत रहें , देश सर्वोपरि है और रहेगा । आप न्यूज चैनल पर डिबेट्स का मज़ा लेते वक्त सुकून से चाय की चुस्कियां लें और निश्चिंत रहें। ज्यादा बोर हो रहे हों तो ऑस्ट्रेलिया में चल रहे भारत का मैच देख लें।  क्या पिटाई हो रही है, मां कसम ।। 


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