Friday, May 29, 2020

Dulhe ka Sehra suhana lagta hai

90s kids including me may try to enjoy new things, new songs, new movies but their hearts still lie in the 90s. And for many their heart still shed a tear drop when they hear song 'Dulhe ka sehra suhana lagta hai' from movie Dhadkan. For initiating those who are not aware,  this was the movie with the epic Anna dialogue "main tumhein bhool jaun yeh ho nahin sakta, aur tum mujhe bhool jao, yeh main hone nahin dunga". Uttered by Shetty Anna to hottie Shetty aka Shilpa. They are going around and some nosy neighbour tells her father about her escapades. Well her father Kiran kumar is kind of father who believes in advices like" isse pahle ki beti apna munh kala kare, uske haath peele kar do" or " isse pahle ki Beti haath se nikal jaay, koi ladka dekh kar usko ghar se hi nikal do". Girl's father takes these advice seriously and finds a fair handsome boy for her daughter as compared to her darkish, lets-call-him-handsome-in- non-conventional-terms boyfriend. Aforementioned song plays at her wedding in the movie. Think ,I have given enough of background.. now lets get started with the task at hand, decoding the song Dulhe ka sehra.

Song is about many things, about celebration of wedding, glorifying Bride's beauty among others. But most importantly it aims to give life lessons to the bride and that too in hurry. The background situation is grim, on her wedding day her ex-boyfriend has not only lost her, his mother also chooses to die the same day making her son the complete tragic hero with the classic dilemma ki teri maa aur maal dono doob rahe hon, to kisko pahle bachayega. Bechara kisi ko nahin bacha pata. 

Aise situation mein gyan dene ke liye, there is no person better than Kader khan saab, who comes as the quavval with a bad wig. He starts the song, and says that here comes the bride  with moon like beauty wearing a 'surkh joda' (Red Dress). Blame it on Kader saab's aging eyesight that he sees bride's blue dress as red, but his worldly experience is still sharp. He may have made mistake in judging the colour of bride's dress still he makes perfect prediction about bride's mental condition. In song's first line itself he senses ki ladki ka pahle se koi chakkar hai, and he says with full confidence ki dulhan ka to dil deewana lagta hai. 

At the song proceeds, you realise multiple hats Kader saab is wearing besides his bad wig. He is not only the sermon preacher, he is also doing a live commentary on the wedding too. As soon as the saat feras starts, he tells the bride via song about 'seven-lives-bandhan' crap and the bride is scared. Shilpa's breathing rate increases and it is visible by her prominent now-somewhat-fixed nostrils. But her ability to breathe so fast for so long gives you hint of her future career of yoga teacher. 

Enough about the bride, the groom is played by none other than our Akki. He plays the goody good Ram whose mother Kaushalya and father Dashrath are long dead, and he is left with step mother Kaikeyee, Mantharas, and kaliyugi Bharat. All are seen in the song giving scary expressions. Ohh.. talk about tensions and apprehensions..

Good thing about the wedding is that it is fast. Within 2 mins, of girl arriving at the mandap, wedding finishes and Vidai takes place. Only shows that baap ne padosiyon ki us advice ko kitna seriously liya tha ki beti ko jaldi se vida karo. Groom starts to depart even without having food at his in-laws but seems to have no complaints for obvious reason. He is that kind of boy who has lived his life believing in arranged marriage in which you marry someone else's girlfriend. No investment, full profits. In obvious excitement, he tries to cuddle with the grieving bride, who promptly shrugs off his advances ki mauka mila nahi ki shru ho gaye.  Heartless baap gets emotional sometimes but doesn't forget to push the car outside his premises in hurry. Meanwhile Kadar saab continues with his chants of Dhadkan Dhadkan and puts the wig glue and clips to full performance testing. Song finishes and so does the wedding ceremony within seven minutes.

A relook at this wedding song is an effort to give a soothing touch to grieving hearts of those whose weddings got postponed due to Covid. I am sure they are thinking ki kaise bhi shaadi karwa do, 5 minute ke andar fera, mangalsutra, vidai sab kar lenge.. bas shaadi karwa do. My message to them is 'Control your Dhadkan Dhadkan. Stay hopeful .. stay safe' .. And enjoy the song here..

https://youtu.be/iZAv9zDeFSc

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Friday, May 15, 2020

बेताल को ढोने की मजबूरी

कुछ वामपंथियों से वार्तालाप या बहस करके सच में राजा विक्रम वाली फीलिंग आती है। राजा विक्रम ज़िद्दी टाइप का आदमी है , हाथ में तलवार लेकर चलता है। देखने में भले क्रूर टाइप लगे, लेकिन इरादा नेक है। वह चाहता है कि 1917 की रूसी क्रांति के जर्जर ठूंठ से उल्टे लटके उसके मित्र को समाज की वास्तविकता से जोड़ा जाए। उसको मुख्य धारा में शामिल किया जाए। लेकिन हमारे वामपंथी बेताल मित्र हैं कि वही नक्सलबाड़ी के जंगलों से बाहर ही निकलना नहीं चाहते। आखिर वो स्टालिन और पोलपोट के लगाए गए नरमुंडों के जखीरे के बीच , इन्कलाब जिंदाबाद की आग कम धुआं ज्यादा वाली धूनी रमाते और उत्तर कोरिया वाली सायं सांय वाली शांति  को भोगने का सुख समाज के मुख्य धारा में कहां से मिलना !! लेकिन यह दक्षिणपंथी विक्रम है कि बेताल के पीछे पड़ा है, यहां तक कि उसको सारी सब्सिडी वाली शिक्षा और मुफ्त में सुविधाएं देकर उसको अपने पीठ पर ढोने वाली आदत से बाज नहीं आता। अब बेताल को लीजिए। आराम से पीठ पर लद कर चल रहा है, होना तो यह चाहिए कि विक्रम का अहसान माने और धन्यवाद करे। लेकिन होता है क्या? इसका साफ उल्टा! बेताल पीठ पर बैठ कर चलेगा  भी और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन भी सिर्फ उसके हिस्से आएगी। बोलने का अधिकार सिर्फ बेताल का। उसको पीठ पर ढोने वाले विक्रम का हक सिर्फ इतना कि उसका बोझा उठाए लेकिन बोले नहीं। विक्रम बोला नहीं कि बस ऑटरेज शुरू। 

सब्सिडी वाली शिक्षा पाकर जुटाए गए उधारी ज्ञान को बांचना भी बेताल को बहुत पसंद है। आखिर पीठ पर बैठे बैठे बोरियत तो होगी ही, हाथ पैर चलाना से बैर भले ही हो, जबान चलती रहनी चाहिए। वह बड़ी बड़ी कहानियां बेताल सुनाता रहता है जिसमें ज्ञान, नीति और सिद्धांतों का पुलिंदा पड़ा रहता है। बेचारा विक्रम, दक्षिणपंथी क्या हुआ, एक तो बेताल को ढोने का जिम्मा मिला हुआ है, ऊपर से नीति प्रवचन सुनने की सजा। ना केवल नीति प्रवचन सुनना पड़ रहा है, बीच बीच में बेताल के कटाक्ष भी सुनो। बोल विक्रम बोल। जवाब दे। सबूत दे। हमें और अधिकार दे। बेताल विक्रम के बालों को सूंघते हुआ कहता है, क्या हुआ विक्रम जवाब क्यूं नहीं देता, सांप सूंघ गया क्या? 

विक्रम आखिर करे तो क्या करे? कभी कभी संयम जवाब दे देता है। जवाब दिया नहीं कि बस हो गया फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का उल्लंघन। आ गया फासीवाद। विक्रम ने जवाब दिया नहीं कि हिटलर का पुनर्जन्म हो गया। शेम शेम करता हुआ बेताल वापस 1917 वाले ठूंठ पर लटकने के लिए उड़ जाता है। जाते जाते विक्रम को ताने भी मार जाता है। फिर जुबान खोल दी तुमने। आखिर कब सीखेगा कि बोलने का हक सिर्फ बेताल का है। जा गोमूत्र का पान कर तभी यह साधारण सा सत्य समझ पाएगा। मैं तो चला अपने नक्सलबाड़ी के जंगल में उलटा लटकने। 

और वह विक्रम, बेवकूफ अपने आदर्शों को निभाने और बेताल को अपनी पीठ पर ढोने के लिए वापस से उसके पीछे दौड़ना शुरू कर देता है। कथा वैसे ही चलती रहती है। क्रमशः...

Saturday, May 9, 2020

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

ब्रांडिंग क्या होती है इसको आसानी से  समझने के लिए आपको वॉट्सएप फॉरवर्ड की दुनिया में जाना पड़ेगा। मान लीजिए आपके पास कोई सस्ती सी शायरी है, जो ज्यादा से ज्यादा किसी ट्रक के पीछे नंबर प्लेट के उपर और हॉर्न ओके प्लीज के बीच में जगह बना सकती है, लेकिन आप चाहते हो कि आपकी शायरी आज का शुभ विचार बन जाय। गुड मॉर्निंग मेसेज के रूप में हर सुबह चलने वाले लाखों संदेशों के साथ लाखों फोन में जगह बना ले। औकात कम, उम्मीद ज्यादा !! कैसे करोगे आप? 

‌ दूसरा उदाहरण लेते हैं। आपके अंदर का सस्ता ओशो जाग चुका है । किसी ट्रैफिक सिग्नल पर रोते बच्चों को 10 रुपए देने के बाद एक तरफ आप दानवीर कर्ण की तरह महसूस कर रहे हो तो दूसरी तरफ भगवान कृष्ण की तरह जिन्हें गीतोपदेश सुनाने के लिए एक रोता बिलखता अर्जुन चाहिए जो आपके सस्ते दर्शन का दर्शन पाकर आपको दार्शनिक मान बैठे। क्या करेंगे आप? 

या कॉरोना महामारी से बिगड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए राहुल गांधी और रघुराम राजन का इंटरव्यू सुन आपके दिमाग में भी सोना से आलू और आलू से सोना जैसी कोई तकनीक आ गई है। आप चाहते हैं कि लोग आपकी बात को ऐसे ध्यान लगा कर सुने जैसे भारत मोदी जी के 8 बजे वाले संबोधन को सुनता है। कोई रास्ता है?

एक रास्ता तो यह है कि आप हार मानकर बैठ जाएं और ज़ाकिर हुसैन के स्टैंडअप कॉमेडी के नायक की तरह यह मान लें कि चू तो मैं हूं ही, या दूसरा तरीका है कि आप स्थिति के सामने परास्त ना हों। इफ यूं कैंट मेक इट, फेक इट वाले सिद्धांत पर भरोसा करें। ऊपर बताई गई सभी स्थितियों में आपके पास एक वस्तु है जिसे आप बेचना चाहते हैं। बेचने के लिए चाहिए ब्रांड , आपके प्रोडक्ट की एंट्री होनी चाहिए ग्रांड, और यह सब चाहिए फटाफट।

उपाय है ब्रांडिंग। आप अपनी सस्ती शायरी को एक ग्राफिक बनाओ, पीछे पहाड़ पंछी नदी जानवर जो डालना है डालो। नीचे लिखो गुलज़ार। थोड़ा ज्यादा वक़्त हो तो फोटो में गुलज़ार साब की चश्मे के हैंडल को दांतो में दबाए एक फोटो भी लगा दो।

आपके विश्वकल्याण और अर्थव्यवस्था के सुधार वाले सोना आलू वाले आइडिया को अगर बेचना है तो कुछ अलग करना पड़ेगा। गुलज़ार साब की फोटो की जगह जैक मा की फोटो लगाइए। लेकिन यह कॉविड19 के चक्कर में आजकल लोग चाइनीज का भरोसा कम करते हैं। कोई बात नहीं, अपने रतन टाटा कब काम आएंगे । अपना विचार लिखिए और नीचे नाम डालिए रतन टाटा का। बस हो गया।

आपके सस्ते दर्शन को बेचने के लिए आपकी मदद करेंगे कलाम साब। उनकी एक फोटो निकालिए, ध्यान रखिएगा कि कहीं कलाम साब की फोटो की जगह सलमान खान की तेरे नाम फिल्म वाली फोटो ना लगा दें। गूगल का आजकल भरोसा नहीं। बस आपका दर्शन भी तैयार है पूरी दुनिया पर छा जाने के लिए।

अपना वाट्सएप उठाइए, अपने सारे ग्रुप पर भेज डालिए, अपने स्टेटस पर डाल दीजिए, फेसबुक इंस्टाग्राम सब पर डालिए। लोग आपकी शायरी को गुलज़ार का मान, आपके दर्शन को कलाम का समझ कर और आपके अर्थव्यवस्था वाला आइडिया को रतन टाटा का आइडिया मान कर सर आंखों पर बिठाएंगे। 

आपका विचार पूरी दुनिया में फैल जाएगा। आपका नाम भले ना आए, यह खुशी तो आपके हिस्से  आएगी कि नाम भले दूसरों का हो, शब्द तो हमारे हैं।  कभी गलती से आपके शब्द गुलज़ार, रतन टाटा और गुलज़ार के पास पहुंच भी गए, तो वह भी कंफ्यूज हो जाएंगे कि ऐसा मैंने कब कहा। अगर उन्होंने यह कहा भी कि भैया यह बकवास मैंने ना पेली है, तो सुनेगा कौन। उनके पास ना आपके  तरह ब्रांडिंग वाली तकनीक है ना उनको वाट्सएप चलाना आता है। इसीलिए बेफिक्र होकर बोलिए। बोल कि लब आजाद हैं तेरे और सस्ता है तेरा मोबाइल डाटा । 

Thursday, May 7, 2020

बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर

उत्तर वैदिक काल में वेदों का ज्ञान पुराणों के कर्मकांडी आडंबर के सामने कमजोर पड़ने लगा। जनमानस में पूजापाठ की विस्तृत विधियों और उसके साथ जुड़ी बड़े पैमाने पर प्रचलित बलि की प्रथा से आम जनजीवन विशेषतः   कृषक और वैश्य समाज अत्यंत दुखी था। ऐसे में भारतवर्ष के क्षितिज पर भगवान बुद्ध का आगमन हुआ। ध्यान दें कि भगवान बुद्ध के आगमन के समय वैदिक धर्म अत्यंत शक्तिशाली था। पुरोहित वर्ग को इस धर्म का प्रमुख प्रायोजक और प्रयोक्ता था, शासक वर्ग पर गहरा प्रभाव रखता था। नीति निर्धारण और निर्माण में उनका वर्चस्व अतुलनीय था। ऐसे समय में आकर भगवान बुद्ध ने पुरोहित वर्ग, धार्मिक कर्मकांडो, और प्रथाओं पर करारी चोट की, उनके सिद्धांतों और प्रभुत्व को खुली चुनौती दी। परिणाम यह हुआ कि वैदिक धर्म का प्रभाव घटा और बौद्घ धर्म अत्यंत लोकप्रिय होकर भारत वर्ष की सीमाओं से दूर क्षेत्रों में भी जाकर फैल गया।

इस घटना के 500 साल बाद यूरोप में प्रभु येसुमसीह आते हैं। तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था को चुनौती देते हैं। प्रेम और सद्भाव की बातें करते हैं। कमोबेश वही कार्य जो 5 सदी पूर्व भगवान बुद्ध कर चुके होते हैं।

भगवान बुद्ध और प्रभु यीशु मसीह की कहानी यहां तक मिलती जुलती है। अंतर उसके बाद की कहानी में आता है। भगवान बुद्ध 80 साल की दीर्घ आयु तक अपनी बातों का प्रचार करते हैं, भगवान बुद्ध कहलाते हैं और सामान्य रूप से शांति पूर्वक महापरिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। इसके उलट प्रभु यीशु को दो चोरों के साथ सलीब पर लटका दिया जाता है। 

प्रभु यीशु के जाने के करीब 15 शताब्दियों के बाद के यूरोप में चलते हैं। यूरोप आधुनिक ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपनी पलकें खोल रहा है। कोपरनिकस नामक खगोल शास्त्री यह गवेषणा करते हैं कि चर्च की मान्यताओं के उलट पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है ना कि सूर्य पृथ्वी के। कुछ वर्षों बाद गैलीलियो गलीली अपने खगोल दर्शक दूरबीन से इसे प्रमाणित भी करने का प्रयास करते हैं। कोपरनिकस और गैलीलियो दोनों समाज के वर्चस्वशाली वर्ग की मान्यताओं पर चोट करते हैं। 

लगभग उसी समय भारत में बौद्ध धर्म के बाद आए सबसे बड़े सामाजिक आंदोलन भक्ति आंदोलन का प्रादुर्भव हो रहा है। इस आंदोलन के प्रणेताओं में सर्व अग्रणी है संत कबीर। उन की वाणी में तेज ऐसा है  कि उनकी अनगढ़ भाषा में कही गई वाणी सीधे जनता के ह्रदय में उतरती है। यही वाणी और साखिया समाज के ठेकेदारों की छाती में शूल बन कर चुभते हैं। हिन्दू समाज की कुरीतियां हो या मुस्लिम समाज की कट्टरता, कबीर के सामने सभी बेबस हो पानी मांगते नजर आते हैं।  समाज के शक्तिशाली वर्ग के झूठ और पाखंड को कबीर उसी तरह बेनकाब करते हैं जैसा उनके समकालीन गैलीलियो और कोपरनिकस कर रहे होते हैं।

बुद्ध और यीशु की तरह इस कहानी में भी बदलाव अंत का है। गैलीलियो को उनके विचारों के लिए माफी मांगने के लिए विवश किया जाता है, अंधे होकर गैलीलियो कारावास में अपनी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। कोपरनिकस भी अपने विचारों के लिए चर्च का कोपभाजन बनते हैं और क्षमा याचना के लिए विवश कर दिए जाते हैं। वहीं उनके समकालीन कबीर जीवन की आखिरी सांस कर ताल ठोक कर अपने विचारों का प्रचार करते हैं और एक सम्मानित जीवन जीकर दुनिया को अपने विचारों की अमूल्य सौगात देकर जाते हैं। 

कल्पना कीजिए कि बुद्ध भारत में नहीं यूरोप में होते, संभवतः किसी सलीब पर लटका दिए गए होते।कबीर यूरोप की किसी जेल में बैठे अपने कहे की बदले प्राणों की भीख मांगते रहते। विश्व को अगर बुद्ध मिले और कबीर मिले, तो इसमें इसमें भारत की सामसिक प्रकृति का योगदान है। हमने हमेशा विपरीत विचारों का सम्मान किया है और हिंसा को कभी भी सम्मान नहीं दिया। भारत में बौद्ध 0.7 प्रतिशत है और बिलकुल सुरक्षित हैं। भारत के संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ने और भारतीयों को सहिष्णुता का ज्ञान बांचने वाले ना केवल अपना इतिहास नकारते हैं बल्कि भारतीय  जीवन के हर पहलू में सतत प्रवाहित सामासिक धारा के शीतल प्रवाह से अपने आप को वंचित करते हैं।

सभी को, समस्त मानवजाति को बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं।

Sunday, May 3, 2020

निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल

कोरोना संकट भले ही हमारे जीवन में यहां तक कि हमारे माता पिता के जीवन में अब तक आए सभी संकटों में सबसे अलग हो, भयावह हो, पृथ्वी के जीवन काल में ऐसे संकट अनेक बार आए और आकर गए। जिसे हम संकट कह रहे हैं , प्रकृति के लिए एक सामान्य सी चलने वाली सतत प्रक्रिया है जिसे परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया जिससे तालमेल बिठाना मानव के लिए कठिन होता है, मानवकोरोना संकट भले ही हमारे जीवन में यहां तक कि हमारे माता पिता के जीवन में अब तक आए सभी संकटों में सबसे अलग हो, भयावह हो, पृथ्वीराज काल में ऐसे संकट अनेक बार आए और आकर गए। जिसे हम संकट कह रहे हैं , प्रकृति के लिए एक सामान्य सी चलने वाली सतत प्रक्रिया है जिसे परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया जिससे तालमेल बिठाना मानव के लिए कठिन होता है, मानव उसे संकट कह देता है। अतः यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि कोरोना संकट एक तीव्र परिवर्तन का एक दौर मात्र है। 

डार्विन के विकासवाद सिद्धांत के अनुसार वही प्रजाति जीवन का अस्तित्व बचा पाती है, जो प्रकृति में आए बदलावों के अनुसार अपने आप को सबसे अधिक अनुकूलित कर पाती है। परिवर्तन पूर्व स्थिति में आप सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन सर्वश्रेष्ठ होना जीवन में विकास और जीवन रक्षा की शर्त नहीं है। शर्त है अनुकूलित होना। Darvin law states Survival of the fittest, not the best, not the mightiest or the most developed. 

कोरोना संकट का प्रभाव जीवन के हरेक पहलू चाहे वह आर्थिक हो, राजनीतिक हो, सामाजिक हो, वैज्ञानिक हो, सांस्कृतिक हो या मानसिक हो, पड़ना अवश्यंभावी है। यह बदलाव के सिद्धांत मानव के साथ साथ राष्ट्रों के पारस्परिक संबंधों पर भी पड़ेंगे। विश्व पटल पर अपने प्रभुत्व को स्थापित करने की दौड़ में एक वर्तमान समय एक विश्राम काल है। दौड़ का दूसरा चरण शुरू होने ही वाला है, नए नियमों के साथ। यह बिल्कुल नई दौड़ होगी, जहां सभी राष्ट्र कमोबेश शून्य से प्रारंभ करेंगे।

भारत के लिए भी यह सुनहरा अवसर है। यद्यपि बदलाव की आवश्यकता मानव जीवन के हर क्षेत्र में होगी , और एक आलेख में सभी को समेटना संभव नहीं है, आज हम सिर्फ शिक्षा पर चर्चा करते हैं। शिक्षा भी अत्यंत व्यापक विषय है, अतः सिर्फ शिक्षा के माध्यम पर केन्द्रित रहेंगे।

आपने अनुभव किया होगा कि भारतीय गहन अनुसंधान के क्षेत्र में काफी पीछे है। हमारे पास जावा और सी++ में कोडिंग करने वाले युवा बहुतेरे हैं लेकिन भारत में एलोन मस्क जैसा आविष्कारक नहीं है। जेनेरिक दवाएं बनाने में हम उस्ताद हैं लेकिन कोई भी भारतीय कंपनी फाइजर बनने की दौड़ में नहीं दिखती। डॉक्टरेट की उपाधि पाने वाले और उनको प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय बहुतेरे हैं लेकिन नोबेल हमें नहीं मिलता। क्या कारण है कि हमारे विकास को सीमित विस्तार ही मिलता है, हम अनुकरण करने में आगे हैं लेकिन अन्वेषक और पथप्रदर्शक की भूमिका भारतीयों के हिस्से कम ही आती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि हम चीज़ों को समझते तो हैं लेकिन गहराई से नहीं समझते। इसका क्या कारण है? एक उदाहरण याद आ रहा है। इंजीनियरिंग के दौरान हमारे एक मित्र को हर बात पर शिट ओह शिट कहने की आदत हो गई थी। नए नए कॉलेज में आए थे, शिट शिट कहने को स्टाइल समझते थे। हमारे एक वरिष्ठ प्रोफेसर के सामने भी बोल पड़े। प्रोफेसर साहब ने हस कर कहा, अगर तुम इसका मतलब समझते तो शायद इसका प्रयोग नहीं करते।  उन्होंने कहा कि बेटे जो बात तुम अभी बोल रहे थे उसको हिंदी में बोल कर सुनाओ। पता चला कि भाई साब शिट का मतलब ही नहीं समझते थे। कोई कूल शब्द समझ कर दुहराते रहते थे।

यह विडम्बना हमारे पूरे भारत की है। हमारे बच्चों कि आधी ऊर्जा अनुवाद में गुजर जाती है। पहले अपनी मातृभाषा
 में सोचो, फिर उसका अनुवाद करो, रैन एंड मार्टिन के रटे सूत्रों की कसौटी पर कस कर देखो, अगर सही लगे तो बोलो। बोलने वाले ने इतना संघर्ष करने के बाद जो बोला, उसके श्रोता इसी दुष्चक्र को उल्टी दिशा में दुहराता है। जो सुना उसको सूत्रों के आधार पर अनुवाद करो, फिर उसको समझो। जो समझ में आया उसको वापस से दूसरी भाषा में लिखो। 
कितना आसान हो कि यह अनुवाद का चक्कर ही समाप्त हो जाय। लोग अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करें। हां अनुवादकों की एक विशेषज्ञ टीम हो , जो अनुवादक का ही पूर्णकालिक कार्य करे। पूरी पीढ़ी को आधा अनुवादक आधा वैज्ञानिक बनाने की जगह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक साहित्यकार जो भी बनाने की इच्छा हो बनने दिया जाय। फिर देखिए, हमारे यहां अगर वराहमिहिर हो सकते हैं तो अगला एलोन मस्क भी हो सकता है। चेन्नई की गलियों में दूसरा रामानुजन भी आ सकता है अगर उसको तमिल से अंग्रेज़ी अनुवादक बनने के भार से मुक्त कर दिया जाय। केरल से दूसरा शंकराचार्य आएगा, अगर उसके संस्कृत पढ़ने को हीन ना समझा जाय। वाराणसी में कोई तुलसी सा बन सकता है अगर उसकी अवधी की कविता का सम्मान हो। राजस्थान से एक मीरा और चंदबरदाई के स्वर फिर से गूजेंगे , बस वहां के बच्चों पर अंग्रेज़ी ना लादी जाए। एक बार उन्होंने अपनी उत्कृष्टता हासिल कर लें, फिर भाषा की कोई सीमा उन्हें नहीं रोक पाएगी। वैश्विक जनता तक पहुंच वाली समस्या का निराकरण अनुवादकों की टीम करेगी । शायद उसकी आवश्यकता भी ना पड़े, उतना काम तो आजकल गूगल ट्रांसलेट भी कर लेता है।

इस वर्तमान संकट ने हमें कठिन फैसले लेने के लिए एक सुनहरा अवसर दिया है। वैश्वीकरण की असफल अवधारणा के लिए बनी नीतियों को आगे भी चलाए रखना असफलता के मार्ग पर ले जाता है। आत्मलंबन और आत्मविश्वास से भरी शुरुआत करने के लिए मातृभाषा से अच्छी शुरुआत और कहां से हो सकती है। अगर ऐसा नहीं किया तो वही होगा कि ज़िन्दगी भर शिट शिट बोलते पता भी नहीं चलेगा कि कब शिट बन गए।