Saturday, January 4, 2020

धर्मनिरपेक्षता के भारतीय संदर्भ में आवश्यकता की पड़ताल

आप उस देश पर धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी विचारधारा थोप रहे हैं जहां विज्ञान के आविष्कार टीवी को अपने प्रसार के लिए रामायण और महाभारत का सहारा लेना पड़ा। वहां धर्मनिरपेक्षता की घुट्टी पिलाई जा रही है जहां सुबह उठ कर व्यायाम करने को भी सूर्य नमस्कार कहा जाता है। वहां धर्मनिरेक्षतावादियों का क्या काम जहां के बच्चे कागज के टुकड़े पर पैर पड़ जाए तो उसे विद्या का अपमान समझ कर अपने सर से लगा लेते हैं। सुबह उठ कर करदर्शन से संध्या पूजा तक हमारा जीवन धर्म से ही चालित है। हम राफेल भी उड़ाते हैं तो उसपर ओम लिख कर और हम वीणा भी बजाते हैं तो सरस्वती वंदना के बाद। नीता अंबानी आईपीएल की ट्रॉफी जीत कर पहले उसे खाटू श्याम को भेंट करती है तो धोनी विश्वकप जीत कर अपने सर का मुंडन कर लेता है। हमारी सेना का हर सैनिक हर हर महादेव का हुंकार कर दुश्मनों पर टूट पड़ता है तो देश का प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार खत्म कर केदारनाथ की गुफा में समाधिस्थ हो जाता है। हमारे आदर्श शासन का नाम राम राज्य है तो हर मर्ज की दवा रामबाण कहलाती है। दो भाईयों में प्रेम हो तो उसे भरत  मिलाप की संज्ञा देते हैं तो गद्दार को विभीषण कहते हैं। दुख हो तो मुंह से या अल्लाह निकलता है और गोली भी लग जाए तो हे राम वाले शब्द ही मुंह से निकलते है। जहां शुरुआत श्रीगणेश कहलाती है और अंत भी राम नाम के एक मात्र सत्य होने की घोषणा के साथ होता है। जहां देश के हर व्यक्ति का नाम किसी भगवान के नाम पर है, उनको धर्मनिरपेक्षता का पश्चिमी मुखौटा शोभा नहीं देता, बनावटी लगता है।

‌वसुधैव कुटंबकम् की अवधारणा वाले किसी को अल्पसंख्यक नहीं मानते बल्कि सबको उसी परमात्मा का एक अंश मानते हैं। धर्म हमारे कण कण में है, धर्म ही हमारा  पक्ष है, हम उससे निरपेक्ष कैसे हो सकते हैं। हमारे धर्म ने हमारी सोच, दर्शन, विचार, अनुसंधान सबका ठोस आधार तैयार किया है। हमारी राजनीति भी उससे परे नहीं हो सकती। महान अशोक का धम्म हो या अक़बर का दीन ए इलाही, हमारी राजनीति का उत्कर्ष भी धर्म के साथ ही हुआ है। धर्मनिपेक्षता की संकल्पना उन राष्ट्रों के लिए बनी थी जिनकी नींव  धर्मयुद्धों में बहे खून से गीली थी। हमारा धर्म हमेशा से ही सबको स्वीकार्य रूप में देखता है । अगर सहिष्णुता का अर्थ है दूसरे को सहना, तो यह विचारधारा अपने आप में भारतीय संदर्भों में नकारात्मक है। शैव वैष्णव शाक्त बौद्ध जैन सिक्ख इन सबने एक दूसरे को सहा नहीं है , स्वीकार कर आत्मसात किया है। पाश्चात्य संकल्पनाओं तो सदैव उत्तम मान लेने की इस प्रवृति का यह असर है कि रामचंद्र गुहा नाम वाले जय श्री राम के उदघोष से डरते हैं और राम को मिथ्या बताते हैं।  धर्म और धर्मनिरपेक्षता को लेकर विवाद करने वाले ना धर्म को समझते हैं और ना धर्मनिरपेक्षता को। पहले धर्म को समझ लें, धर्मनिरपेक्षता के अवशिष्ट होने का प्रमाण अपने आप मिल जाएगा।

No comments: