Wednesday, April 23, 2025

क्रौंच पुनः रोया है

तमसा तट नहीं, यह पहलगाम है,
स्वर्ग नहीं, यह पीड़ा का ग्राम है।
प्रेम की गोदी में विश्राम करता जो,
एक पल में छिन गया जीवन संजो।

वह न सोया—बलि चढ़ा निर्ममता पर,
वह न बोला—पर चीख गूंजती अंतर।
उसके सिरहाने बैठी वह नारी,
बिन शब्दों के बिन आँसू के पुकारी।

क्रौंच की मादा फिर से विलपी,
करुणा की कविता फिर से खिली।
"अरे शिकारी! तू क्यों बना पीड़ा की झोलीं,
वो करुणा नहीं, श्राप था जो आँखों से बोलीं।"
 

 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

श्लोक वो अब सिर्फ ग्रंथों में नहीं,
हर करुण चीख में बहती वहीं।
निर्दोष लहू से जो रेखा बनी है,
काल की मुहर उस दिन ही लगी है।

शब्दों से भी भारी होता है मौन,
जब न्याय रोता है, और शक्ति रहती है गौण,
जिस दिन मासूम की छाती पर वार होता है,
उसी दिन से प्रारंभ अधर्मी का संहार होता है।


मुखौटा पहनने वाले हिंसक वानर


मानव जाति को अक्सर ‘सभ्य प्राणी’ कहा जाता है, पर यदि इतिहास की गहराइयों में उतरें तो यह परिभाषा एक दिखावा प्रतीत होती है—एक ऐसा आवरण जो हमने अपने पशुत्व को ढकने के लिए ओढ़ रखा है। जैविक दृष्टि से मनुष्य होमो सेपियन्स प्रजाति का हिस्सा है, जो लाखों वर्षों के विकास और एक संयोगवश हुए gene mutation का परिणाम है। यह अनोखा मस्तिष्क, जो हमें कल्पना, स्मृति और भाषा की शक्ति देता है, साथ ही हमें धोखा, लालच, हिंसा और छल की क्षमता भी देता है।

हमारी सभ्यता एक लंबे रक्तरंजित इतिहास की उपज है। यदि यह कहा जाए कि मानव सभ्यता एक स्थायी युद्धविराम मात्र है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

मानव इतिहास क्या है? युद्धों की गाथा।

इतिहास की किताबें अक्सर राजाओं की विजय, साम्राज्यों के विस्तार और सैनिक अभियानों की महिमा गान से भरी होती हैं। यद्यपि हम विद्यालयों में इतिहास को "अतीत से शिक्षा" का साधन मानते हैं, वास्तव में इतिहास का अधिकांश भाग हिंसा, सत्ता की लालसा और मानवीय दुर्बलताओं की गाथा है।

रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि युद्धों के औचित्य, नीतिक उलझनों और प्रतिशोध की कहानियाँ हैं। महाभारत का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि कैसे परिजन, गुरु और शिष्य भी जब स्वार्थ, सत्ता और ‘धर्म की रक्षा’ के नाम पर आमने-सामने होते हैं, तो परिणाम विनाश होता है।

मौर्य सम्राट अशोक के जीवन में कलिंग युद्ध एक निर्णायक मोड़ था। वह युद्ध जिसकी परिणति लाखों लोगों की मृत्यु और व्यापक विनाश में हुई—ने एक सम्राट को आत्मबोध की ओर मोड़ा। परंतु यह करुणा, यह करुणा तब आई जब वह अपने हाथों हुए नरसंहार को देख चुका था। इसी तरह अकबर, जिसने अपने आरंभिक जीवन में हिंसा के माध्यम से शासन विस्तार किया, वही आगे चलकर धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाता है—पर यह परिवर्तन भी अनुभव और सत्ता स्थिर होने के बाद ही आता है।


तकनीकी प्रगति का मूल क्या है? युद्ध।
प्रगति का हर यंत्र—चाहे वह पहिया हो या परमाणु बम—कहीं न कहीं भय, प्रतिस्पर्धा या प्रतिरोध से उत्पन्न हुआ है। युद्धों ने विज्ञान को आवश्यकताओं से परिचित कराया और विज्ञान ने युद्धों को नई गति दी।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौरान चिकित्सा, रसायन, एयरोनॉटिक्स और सूचना तकनीक में जो क्रांतियाँ आईं, वे सामान्य समय में दशकों में संभव न होतीं। रडार, रॉकेट, जेट इंजन, परमाणु शक्ति, कंप्यूटर—all these are wartime products. GPS, इंटरनेट, ड्रोन—ये सभी तकनीकें पहले युद्ध के लिए बनीं और बाद में नागरिक जीवन में आईं।

भारत में भी 1974 और 1998 के पोखरण परीक्षणों ने विज्ञान और शक्ति-प्रदर्शन को एक साथ जोड़ा। विज्ञान यहाँ भी एक आत्मरक्षा और शक्ति संतुलन का माध्यम बना, न कि केवल ज्ञान के प्रसार का।

तकनीक अब युद्ध का सबसे परिष्कृत रूप बन चुकी है—जहाँ युद्धक्षेत्र केवल सीमाओं तक सीमित नहीं, बल्कि साइबर स्पेस, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, और सूचना युद्ध तक फैल चुका है।

कश्मीर: हिंसा और 'सभ्यता' के बीच संघर्ष।
कश्मीर घाटी, जो कभी अपनी नैसर्गिक सुंदरता और सूफी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध थी, आज भय, अविश्वास और अस्थिरता की पहचान बन चुकी है।
1947 के विभाजन से लेकर आज तक कश्मीर भारत के लिए न केवल भौगोलिक चुनौती रहा है, बल्कि भावनात्मक और वैचारिक द्वंद्व का भी केंद्र बन चुका है।

घाटी में होने वाले आतंकवादी हमले इस बात का प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता की सबसे बड़ी विफलता शांति स्थापित करने में है। निर्दोष नागरिकों की हत्याएँ, सैनिकों पर घात लगाकर हमले, और धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा—ये सब केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपे आदिम पशुत्व का पुनः प्रकटीकरण हैं।
हाल के वर्षों में पहलगाम राजौरी, पुलवामा, और अनंतनाग जैसे क्षेत्रों में हुए हमले यह दिखाते हैं कि आतंकवाद न केवल हथियारों का खेल है, बल्कि वह वैचारिक ज़हर भी है, जो लोगों को यह विश्वास दिला देता है कि हिंसा ही समाधान है।

कश्मीर इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे ‘सभ्यता’ का मुखौटा फटता है, और नीचे वही आदिम वानर बाहर आता है—जिसे केवल अपनी अस्मिता और वर्चस्व दिखाना है, भले ही उसके लिए वह किसी भी हद तक जाए।

हिंदी साहित्य में भी यह द्वंद्व स्पष्ट है।
हिंदी साहित्य ने हमेशा मानवीय मनोविज्ञान के इस अंतर्विरोध को गहराई से समझा है। प्रेमचंद की कहानियाँ भले ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत करती हों, पर उनमें भी संघर्ष, लालच, अन्याय और कभी-कभी उत्पीड़न के विरुद्ध हिंसा की छाया दिखती है। उनकी कहानी "पंच परमेश्वर" में न्याय और मित्रता का टकराव इसी नैतिक उलझन को सामने लाता है।

धर्मवीर भारती की “अंधायुग” महाभारत की पृष्ठभूमि में लिखा गया ऐसा नाटक है जो युद्ध के बाद की नैतिक और मानसिक त्रासदी का अद्भुत चित्रण करता है। वहाँ कृष्ण भी मौन हैं, युधिष्ठिर भी संशय में हैं, और अंधों का साम्राज्य हर दृष्टि को धुंधला कर देता है।

दुष्यंत कुमार जैसे कवि जब यह लिखते हैं—
"इस शहर में वो कोई बारूद रख देता कहीं,
और फिर बेनाम हर दीवार उड़ जाती कहीं।"
—तो यह केवल राजनीतिक आलोचना नहीं, बल्कि उस विस्फोटक मानव प्रवृत्ति का संकेत है जो हर शांत चेहरे के पीछे छिपी बैठी है।

सभ्यता: एक पतली परत, नीचे छिपा पशु।
मनोविश्लेषण के जनक सिगमंड फ्रायड ने सभ्यता को हमारे भीतर की इच्छाओं और हिंसक प्रवृत्तियों पर थोपी गई एक सामाजिक व्यवस्था बताया था। हम जिन नियमों का पालन करते हैं, वे वास्तव में हमारे भीतर की बर्बरता को नियंत्रित करने के उपाय हैं। पर जैसे ही कोई संकट, डर, या लालच सामने आता है, यह आवरण चटकने लगता है।

आज हम जितनी भी 'संवेदनशील' बातें करते हैं—शांति सम्मेलन, मानवाधिकार, सह-अस्तित्व—वह सब तब तक हैं जब तक हमारे स्वार्थ सुरक्षित हैं। जैसे ही हमारी सत्ता, धर्म, जाति या पहचान को चुनौती मिलती है, हम उसी आदिम हिंसा की ओर लौट जाते  हैं।

मानव सभ्यता एक बहुपरती भ्रम है—एक ऐसा परदा जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम अपने पशु अतीत से आगे बढ़ चुके हैं। परंतु कश्मीर की घाटियों में गूंजती गोलियों की आवाज़, इतिहास के हर युद्ध की कथा, और तकनीकी विकास के पीछे छिपी सामरिक होड़ यह सिद्ध करती है कि हम आज भी हिंसक वानरों के वंशज हैं—जिन्हें केवल मुखौटा पहनना आ गया है।

हमारे भीतर की हिंसा को पहचानना और उसे नियंत्रित करना ही शायद सच्चा मनुष्यता का मार्ग है। वरना हम इतिहास को दोहराते रहेंगे—हर बार एक नए नाम, एक नए युद्ध और एक नई तकनीक के साथ एक नई जगह पर।

Wednesday, April 16, 2025

नृत्य : सृष्टि का स्पंदन और सत्य की मूर्त अभिव्यक्ति

नृत्य केवल एक कला नहीं, अपितु वह ब्रह्मांड की मूल गति, चेतना का सजीव संप्रेषण तथा सृष्टि का मौलिक स्पंदन है। यह मनुष्य के भीतर सुप्त सौंदर्य और ऊर्जा को जाग्रत करता है। कहा गया है कि ज्ञान और बल से मनुष्य 'नारायण' की ओर उन्मुख हो सकता है, परंतु नृत्य के माध्यम से ही वह मोहिनी रूप धारण कर संहारक भस्मासुर को भी मोहजाल में बांधकर सृष्टि की रक्षा करता है। यही नृत्य की शक्ति है—नवसृजन और रक्षा का अनुपम सामंजस्य।
भारत के खेतों में नाचता मोर हो अथवा अमेज़न के वर्षावनों में थिरकता फ्लेमिंगो—प्रकृति के प्रत्येक जीव का यह लयात्मक प्रदर्शन केवल सौंदर्य या आकर्षण नहीं, अपितु जीवन के आवाहन का संकेत है। नृत्य प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है, और कभी-कभी विरह की अंतर्दाह से उत्पन्न वेदना भी।

"यद् ब्रह्माण्डे, तत् पिण्डे"—इस ऋषि वाक्य की पुष्टि नृत्य के माध्यम से होती है। जिस प्रकार शिव का तांडव ब्रह्माण्ड की लयात्मक गति को दर्शाता है और पार्वती का लास्य सृजन की मधुरता का प्रतीक है, उसी प्रकार नर-मादा का नृत्य भी सृष्टि के अनवरत प्रवाह का प्रतिबिंब है। ताल की उत्पत्ति तांडव और लास्य के संगम से हुई है—यह केवल संगीत का मापक नहीं, वरन् ऊर्जा का संतुलन है।

सामवेद, जो ऋग्वैदिक ऋचाओं का गान है, उसमें नृत्य की लय और उसकी आध्यात्मिक अनुभूति का उल्लेख है—

"यद् विचेष्टन्ते ऋत्विजो गात्रैः साम्नां मधुना सह।
तद् नृत्यं देवमानुषं सञ्जग्मिरे महर्षयः॥"
(सामवेद, अरण्यक भाग)

अर्थात् जब ऋत्विज (ऋषि) साम के मधुर स्वरों के साथ अपने शरीरों से गतिमान होते हैं, तो वही नृत्य देव और मनुष्यों के मध्य की एक दिव्य कड़ी बन जाता है।



नृत्य वह भाषा है जो शब्दों से परे है। जिह्वा झूठ बोल सकती है, शब्द भटक सकते हैं, परंतु जब संपूर्ण शरीर एक लय में थिरकता है, तो वह केवल सत्य को अभिव्यक्त करता है। आँखें, हृदय, और गति—all align in resonance with the truth.

"नृत्यं यथा ब्रह्मरूपं सदा,
यत्र लयः सृष्टिजन्म हेतु:।
तस्मात् नृत्यं सत्यमेव ज्ञेयम्,
शिवस्य ताण्डवेन प्रमाणम्॥"
 नृत्य ब्रह्म की प्रतिछाया है, जहाँ लय सृष्टि का कारण बनती है; अतः नृत्य ही परम सत्य है, जिसका प्रमाण स्वयं शिव का तांडव है।

"नृत्येन मूर्तिमन् भावः,
नयनै: वाणीविहीन वक्ता।
यत्र शरीरं स्वयं कथयेत्,
सत्यं तत्र निःशब्दमपि स्फुटम्॥"

>नृत्य वह है जहाँ भाव स्वरूप धारण करता है, और नेत्र बिना वाणी के बोलते हैं। वहाँ शरीर स्वयं कथाकार होता है, और मौन भी स्पष्ट सत्य को प्रकट करता है।



 नृत्य केवल मनोरंजन या कला की एक विधा नहीं, बल्कि अस्तित्व की एक सूक्ष्मतम और सबसे प्रामाणिक भाषा है। यह सृजन का बीज है, प्रेम का माध्यम है, विरह का स्वर है और सत्य की गति है। नटराज से नारायण तक, प्रत्येक रूप नृत्य के द्वारा ही दिव्य बनता है। शब्द भले असत्य के सहचर हों, परंतु नृत्य—वह तो सदा सत्य के समीप होता है।

Tuesday, April 8, 2025

दान : एक विमर्श

"यह क्या दान कर रहे हैं, पिता?"
बालक नचिकेता की आँखों में गूढ़ जिज्ञासा थी।
"जिनसे स्वर्ग मिलेगा, बेटा। ये सब गायें हैं मेरी दान की वस्तु।"
पिता वाजश्रवस का स्वर आत्मगौरव से भरा हुआ था।

"किन्तु ये सभी गाएं तो बूढ़ी, रोगग्रस्त और दुग्धहीन हैं… क्या ये दान योग्य हैं?"
वाजश्रवस मौन हो गए। परंतु बालक नचिकेता अपने प्रश्न और हठ पर अडिग रहा।
" दान तो अपनी प्रिय वस्तु का किया जाता है, तात!!!"

"हे पिता! यदि आप सब कुछ दान कर रहे हैं, तो मुझे किसे देंगे?"

यह सुनकर क्रोध और खीझ से भरकर पिता ने कहा—
"जा! मैं तुम्हें मृत्यु को दान करता हूँ!"

यह संवाद केवल एक उपनिषदिक कथा नहीं, बल्कि दान की सच्ची भावना को परिभाषित करने वाली चिरकालिक गूंज है। कठोपनिषद में वर्णित यह प्रसंग नचिकेता की सत्य के प्रति तीव्र आकांक्षा और स्पष्ट दृष्टि को दर्शाता है। वाजश्रवस जैसे राजऋषि, जो धर्म के पालन हेतु यज्ञ कर रहे थे, वे भी सच्चे दान की भावना से विमुख हो चुके थे। वे वे वस्तुएँ दान कर रहे थे जो उपयोग से बाहर हो चुकी थीं—त्याज्य थीं। यह दान नहीं, केवल एक बाह्य आडंबर था।

नचिकेता की निर्भीकता, निष्कपट जिज्ञासा और नैतिक साहस ने इस पाखंड को चुनौती दी। यहीं से आरंभ होती है दान की शुद्धतम व्याख्या—जिसमें केवल वस्तु देना पर्याप्त नहीं, अपना कुछ प्रिय छोड़ने का साहस चाहिए।

दान वह नहीं जो उपयोगहीन हो। दान वह है जो हृदय के भीतर से निकलता है—निःस्वार्थ, निःशब्द, और निष्कलंक।

आज के समय में जब दान भी दिखावे और प्रचार का साधन बन चुका है, तब नचिकेता की कथा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
"आगे जाओ बाबा, छुट्टे नहीं हैं।"
यह वाक्य अब हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है। हम याचकों को देते तो हैं, पर तब जब जेब में कोई अठन्नी या निकम्मा सिक्का पड़ा हो। कोई भोजन मांगे तो बची हुई दाल और बासी रोटी उसकी ओर सरका दी जाती है। कपड़ों की माँग पर हमारे अलमारी के सबसे बदरंग और फटे वस्त्र दान के नाम पर याचकों के हिस्से कर दिए जाते हैं।

यह मानसिकता केवल हमारी सुविधा नहीं दर्शाती, यह दर्शाती है कि हमने दान को भी ‘वस्तु निपटान केंद्र’ बना दिया है।

भारतीय परंपरा में कहा गया है—
"सदा दानं गोपनीयं"
अर्थात् दान हमेशा गोपनीय होना चाहिए। परन्तु आज स्थिति उलट है। भोजन बाँटना हो, या कंबल देना—कैमरे साथ चलते हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट तैयार होती है। दान से ज़्यादा, चेहरा चमकता है।

यह न सेवा है, न परोपकार—यह आत्मप्रशंसा है, जहाँ याचक केवल प्रचार का माध्यम बनकर रह जाता है।

नचिकेता की कथा पुनः लौटती है—उसकी मृत्यु के द्वार तक यात्रा, उसका यमराज से संवाद, और अंततः उसका ज्ञान की ओर उन्मुख होना। यह कथा हमें सिखाती है कि दान केवल देने की क्रिया नहीं, यह एक आध्यात्मिक साधना है। सच्चा दान वहीं है जहाँ त्याग हो, निःस्वार्थता हो, और उसमें दिखावे की कोई मिलावट न हो।

दान की भावना केवल हिन्दू परंपरा तक सीमित नहीं है। इस्लाम में जकात और सदका के रूप में, सिख धर्म में वंड छकणा, और ईसाई परंपरा में चैरिटी के रूप में—हर धर्म में यह मूल मंत्र स्पष्ट है कि दान केवल वस्तु नहीं, दया, करुणा और प्रेम का प्रदर्शन है। जब हम अपने हिस्से का सर्वश्रेष्ठ, निस्वार्थ भाव से किसी ज़रूरतमंद को समर्पित करते हैं, तभी वह दान कहलाता है।

आज जब सामाजिक मंचों पर दिखावे की बाढ़ है, तो नचिकेता की यह कथा हमें मौन दान, गहन त्याग और अंतरात्मा की उस आवाज़ की याद दिलाती है, जो कहती है—
दान वही है जो दिया जाए बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी प्रदर्शन के—हृदय से।

Friday, April 4, 2025

सिंदूर

सिंदूर

वो स्नान के बाद आई,
जैसे मंदिर की मूर्ति जल से पवित्र हुई हो—
भीगी पलकों पर कुछ नमी,
और देह पर भोर की हल्की धूप।

वो शीशे के सामने रुकी,
धीरे से उठाया वह छोटा डिब्बा,
और जब उसने अपनी माँग में
लाल सिंदूर सजाया,
एक क्षण को समय रुक गया।

मैंने देखा—
उसके काले घने बालों के बीच
सूरज की पहली किरण
कुछ इस तरह उतर आई,
मानो स्वर्ण-रेखा कोई
रात्रि की गहराई में खो गई हो।

उसकी माँग में भरा लाल रंग
मुझे उसके जीवन की धड़कन-सा लगा,
जैसे किसी के प्रेम में डूबा रक्त
धमनियों से निकल
ललाट तक आ गया हो।

यह सिंदूर,
न केवल उसका श्रृंगार है,
बल्कि उसकी आस्था, उसकी शक्ति है—
जिसे वह हर दिन
अपने संकल्प की तरह पहनती है।

मैं अपलक निहारता रहा—
उस नारी में कोई देवी समाई थी,
या देवी ने उसका रूप लिया था?

सोचता रहा—
क्या वह सौभाग्यवती है
क्योंकि उसका कोई पति है?
या उसका पति ही
भाग्यशाली है
कि जीवन ने उसे
ऐसी अर्धांगिनी दी?

शायद,
यह सिंदूर उस लौ की तरह है
जो किसी और के जीवन को
उजाला दे जाती है,
बिना जले,
बिना कुछ कहे।

(महादेवपुर घाट, भागलपुर, चैत्र मास शुक्ल अष्टमी, 2025)