सत्तर के दशक की घटना है। वो समय जब कार का मतलब एंबेसडर कार हुआ करती थी और आइएएस का मतलब था लाल बत्ती लगी एंबेसडर । शाम की धुंधलके का वक्त हो रहा था। मधुबनी जिला के कलक्टर साब किसी दूर के ग्रामीण दौरे से मुख्यालय लौट रहे थे। अचानक गाड़ी हिचकोले खा के बंद पड़ गई। ड्राइवर ने कहा कि साब घबराने की बात नहीं है, कार की बैटरी डाउन है, कोई धक्का लगा दे तो गाड़ी स्टार्ट होकर मुख्यालय तक पहुंच जाएगी। अब गाड़ी को धक्का लगाने के लिए आदमी चाहिए, कलक्टर साब ने आस पास देखा तो चार लोग आस पास एक मचान पर बैठे ताश खेल रहे थे। डीएम साब ने ड्राइवर को कहा कि जाकर उन लोगों को कहो कि कलक्टर साब की गाड़ी खराब हो गई है इसलिए धक्का लगाने के लिए साहब बुला रहे हैं। ड्राइवर गाड़ी से उतर कर मचान पर बैठे लोगों के पास गया। फिर भागा भागा घबराया सा कार में बैठे साहब के पास आकर बोला। सर वो लोग बोल रहे हैं कि हम कार में धक्का तो लगा देंगे लेकिन अपने साब से यह पूछ कर आओ कि वो किस बैच के आइएएस हैं ताकि हमें भी पता चले कि वो हमसे सीनियर है या जूनियर। मचान पर बैठे ताश खेलते चारों सीनियर आईएएस ऑफिसर उसी गांव के थे जो किसी पारिवारिक समारोह में शामिल होने अपने गांव आये हुए थे।
साल 1986 में शारजाह में भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था। आखिर गेंद पर छह रनों की दरकार थी। बॉलर चेतन शर्मा की गेंदबाजी पर जावेद मियांदाद के लगाए छक्के की टीस आज तक भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को सालती रहती है। यह वो दौर था जब भारत पाकिस्तान के मैच रोमांचक हुआ करते थे, आजकल की तरह एक तरफा नहीं। आंकड़ों की बात मानें तो भारत पाकिस्तान से हारता ज्यादा जीतता कम था।
चाहे क्रिकेट का मैदान हो या आइएएस में आने वाले बिहारी। ना पाकिस्तान का वो जलवा रहा और ना आजकल आइएएस की परीक्षा में बिहारियों का पुराना दबदबा।आखिर क्या बदल गया हालिया वर्षों में।
पाकिस्तान की बात करें तो धन बल और क्रिकेट की आधारभूत सुविधाओं के मामले में पाकिस्तान अन्य देशों जैसे भारत , ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से कहीं ज्यादा पिछड़ गया है। आतंकवादी घटनाओं के कारण बाकी देशों की टीमें पाकिस्तान का दौरा नहीं करती, इससे वहां के युवा खिलाड़ियों को न विदेशी खिलाड़ियों के साथ का।अवसर मिलता है और ना ही पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के पास ऐसा पैसा है कि वो आईपीएल की तरह कोई बड़ा आयोजन करके अपने खिलाड़ियों को कोई अवसर दे सकें। बिहार की बात करें तो बिहार की शिक्षा व्यवस्था का उत्तरोत्तर ह्रास होता गया है वहीं बाकी देश की शिक्षा व्यवस्था का विकास हुआ है।
हर परिवार से एक आइएएस देने के लिए जाना जाने वाला बिहार आज कल परीक्षा में होने वाली नकल के लिए खबरों में जगह बनाता रहा है। एक तरफ जहां आइएएस जैसी परीक्षाओं में पब्लिक स्कूलों से पढ़े अंग्रेजी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत 99 तक पहुंच चुका है और परीक्षा की तैयारी कराने के लिए महंगे कोचिंग संस्थानों का एक तंत्र तैयार है। स्वाभाविक है कि बिहार की अधिकतर युवा को न अंग्रेजी स्कूलों की यह पढ़ाई मिलती है और ना कोचिंग संस्थानों का लांचिंग पैड।
किसी भी क्षेत्र में सफलता में दो चीजों का सम्मिलित परिणाम होती है, पहली प्रतिभा और दूसरा प्रशिक्षण। जिसमें प्रतिभा नहीं उसको प्रशिक्षण देकर सफल नहीं बना सकते और बिना प्रशिक्षण के प्रतिभा अपनी क्षमताओं का पूर्ण दोहन नहीं कर सकती। बिहार के लोगों में क्षमता नैसर्गिक है, वे मेहनती हैं, मिलनसार हैं, सहनशील हैं, मृदुभाषी हैं और तीक्ष्ण बुद्धि उन्हें विरासत में मिली है। ऐसा नहीं है कि बाकी क्षेत्र के लोगों में वो बात नहीं है, बात बस इतनी है कि बाकी लोगों को लगता है कि बिहार के लोगों में इन गुणों की कमी है। बाहरी क्या कभी कभी खुद बिहारी जनों को भी लगता है कि उनमें ही कुछ कमी है, जबकि यह आभासी कमी सिर्फ आधारभूत संरचना और यथोचित प्रशिक्षण की कमी के कारण है।
इन्ही चीजों की लंबे समय से कमी रुपी द्रोणाचार्य ने बिहारी प्रतिभा रुपी एकलव्य का अंगूठा काट लिया है। एकलव्य को उचित प्रशिक्षण मिले तो वो पार्थ पर भारी पड़ने का माद्दा रखता है। बिना प्रशिक्षण के अभाव में वो प्रतिभाशाली ऑफिसर और वैज्ञानिक न बन कर अकुशल मजदूर बनता है जिसे आप छठ के समय बिहार जाने वाली पैसेंजर ट्रेनों में जानवर की तरह ठूस ठूस कर भरा हुआ देखते हैं। याद रखिए कि लॉक डाउन के समय दिल्ली और पंजाब से सर पर पोटरी उठाकर धूप में पैदल चलती प्रवासी मजदूरों की फौज चाणक्य, सुश्रुत और आर्यभट की संतान है। यह वो ही लोग हैं जो एक एक गांव से पांच पांच आइएएस ऑफिसर दे सकते थे।
आशा है कि इस छोटी सी समस्या को जल्द ही दूर कर हम अपनी प्रतिभाशाली जन सामान्य को वास्तव में मानव संसाधन का रूप देंगे। हमारे प्रयास इस दिशा में हो तो रहे हैं लेकिन उनमें और भी तेजी लाने की नितांत आवश्यकता है।
बिहार दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।।
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