इस शहर के बनते हैं किले
किसी पहाड़ का सीना
चीर कर निकाले गए लाल लाल पत्थरों से,
इसकी इमारतें बनती हैं
किसी खेत की मिट्टी को भट्ठी में
जला कर बनी ईंटों से,
और इन सब को जोड़ने के लिए,
लगते हैं छोटे शहरों के कारीगर,
दूर गांव के मजदूर,
और उनके बसने के लिए,
बनती हैं गंदी बस्तियां
और फिर साथ ही बनती हैं
बदनाम गलियां।
दिल्ली ऐसी ही नहीं बसती।
इस शहर की प्यास बड़ी है
इसीलिए दूर पहाड़ों में
उछलती कूदती नदियों
को बांधते हैं गारे से पत्थरों से
फिर उसी बांध के
पीछे कैद नदी को
लोहे की मोटी पाइपों
से दिल्ली लाया जाता है
ताकि भरे जा सकें स्विमिंग पूल
धोई जा सकें बड़ी बड़ी गाड़ियां
बहाया जा सके मल
और धोए जा सकें लाखों शहरियों
के चमचमाते करोड़ों जोड़ी कपड़े।
दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
इस शहर को चाहिए चमचमाती सड़कें
सड़कों पर दौड़ती कारें,
और उन सड़कों पर
काली कोलतार बिछाने के लिए चाहिए
काले गंदले चेहरों वाले सस्ते मजदूर,
उन कारों को चलाने के लिए
उनके दरवाजे खोलने के लिए
चाहिए ड्राइवर जो
आगे वाली सीट पर बैठ
सीधा सड़क पर देखें
जिनको पता हो लेकिन
जलन बिल्कुल न हो यह जान
कि क्या चल रहा है
पिछली सीट पर,
जो सड़क पर की हर आहट सुन लें,
लेकिन पूरी तरह बहरे हों अपने
साहब की गालियों से, उनके राज भरी बातों से
ऐसे ही अनगिनत लोगों के पसीने
खून और आंसुओं से पटी
जमीन पर खिलता है मुगल गार्डेन
और बसती है वो रंगीन शाम।
दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
सिर्फ गांवो को उजाड़
वहां के लोगों को उखाड़
उनका पानी छीन
उनके खेत छीन जब
भर जाता है दिल दिल्ली का,
तो यह खुद को उजाड़ती है।
बार बार कई बार
कहते हैं दिल्ली सात बार उजड़ी
सात बार बनी,
पता नहीं क्या है ज्यादा त्रासद
दिल्ली का उजड़ना
या दिल्ली का बनना ?
दिल्ली के उजड़ने पर
आंसू बहाने वाले मिल जायेंगे
हजारों दस्तावेज हजारों नज़्म
बीसियों कहानियां,
दिल्ली के बनने पर आंसू
बहाने वाली एक नज़्म नहीं मिलेगी
यही तो खासियत है दिल्ली की
सबको लूट लुटी सी रहती है
सबको रूला रोती रहती है
सबके घर छीन बेघर रहती है
छीन सबका पानी प्यासी रहती है
जिसका हर कोना भींगा है
खून से, खून से रंगी है हर दीवार
गजलों में फिर भी इसे कहते
बस इश्क मोहब्बत प्यार।
दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
कैसा होता अगर कि कभी न बनती दिल्ली
तो शायद बच जाती द्रौपदी की लाज
ना गूंजती निर्भया की चीख
और न जलती कोई तंदूर में
ना मारी जाती प्रियदर्शनी
काश कि एक बार उजड़ फिर ना
बसती दिल्ली
तो बच जाते कई उजड़ने से
लेकिन यह दिल्ली है कि
सबको उजाड़ उजाड़ बसती रहती है
और खुद उजड़ उजड़ फिर बसती रहती है
यही दास्तां है उजड़ने बसने की
आखिर यह दिल्ली है
और यह दिल्ली
ऐसे ही नहीं बसती।
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