Friday, March 26, 2021

mid life crisis

#बाज_का_पुनर्जन्म 

बाज एक ऐसा पक्षी है जिसकी उम्र लगभग 70 वर्ष होती है। परन्तु अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते-आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के 3 प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं:- पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है, तथा शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है, और भोजन में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूर्णरूप से खुल नहीं पाते हैं, उड़ान को सीमित कर देते हैं।

अब उसे भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना, और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं। अब उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, कि वह :-

1. देह त्याग दे !!
2. अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे !!
3. या फिर “स्वयं को पुनर्स्थापित" करे !!

आकाश के निर्द्वन्द एकाधिपति के रूप में जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, अंत में बचता है तीसरा लम्बा और अत्यन्त पीड़ादायी रास्ता। लेकिन बाज चुनता है तीसरा रास्ता और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।

वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, एकान्त में अपना घोंसला बनाता है और तब स्वयं को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है।

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार-मार कर तोड़ देता है, चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं है पक्षीराज के लिये ! और वह चोंच के पुनः उग आने की प्रतीक्षा करता है। उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है, और पंजों के पुनः उग आने की प्रतीक्षा करता है।




नयी चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक-एक कर नोंच कर निकालता है! और पंखों के पुनः उग आने की प्रतीक्षा करता है। 150 दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा के बाद उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान पहले जैसी।

इस पुनर्स्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है। ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ। इसी प्रकार इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं हम इंसानों में भी !

हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी। 150 दिन न सही, 60 दिन ही बिताया जाये स्वयं को पुनर्स्थापित करने में! जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही। और फिर जब बाज की तरह उड़ानें भरने को तैयार होंगे।

इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी। हर दिन कुछ चिंतन किया जाए और आप ही वो व्यक्ति हैं जो खुद को दुसरो से बेहतर जानते हैं।

Wednesday, March 24, 2021

दास्तां ए चखना

शराब या दारू की एक खास बात होती है। दारू शायद ही अकेले पी जाती है। दारू के साथ चाहिए होता है चखना। बिना चखने के साथ दारू का मजा नहीं। दारू किसी प्राइवेट कंपनी के मालिक की तरह है और चखना उसी प्राइवेट कंपनी के उस मेहनती और जुगाड़ू बंदे की तरह होता है जिसकी हर साल प्रमोशन होती रहती है। चखने का लेवल समय के साथ बढ़ता जाता है। शुरू में चखना मूंगफली और मसाला पापड़ के लेवल में रहता है। धीरे धीरे चखना तंदूरी चिकन के स्तर पर आ जाता है। लेकिन जैसा कि हमने कहा कि चखने का प्रमोशन बहुत जल्दी जल्दी होता है। जल्दी ही चखना तंदूरी के लेवल से ऊपर उठ कर बैंक बैलेंस की शकल ले लेता है। चखने में बैंक बैलेंस की प्लेट खाते समय आपका स्वास्थ्य एक साइड डिश बन जाता है। स्वास्थ्य का साइड डिश खतम होने के  बाद चखने के अगले प्रमोशन की बारी आ जाती है। दारू चखने को प्रमोशन देकर उसे रिश्तों का रूप दे देता है। अगला प्रमोशन पाते ही चखना जले भुने फ्राइड और टूटे स्क्रैंब्ल्ड रिश्तों के रूप में आता है। भुने टूटे रिश्तों वाला चखना खत्म होने के साथ साथ स्वास्थ्य वाला चखना खत्म हो जाता है। 

फिर तो चखने के प्रमोशन की झड़ी सी लग जाती है। फिर चखना प्रमोशन के लिए साल भर का इंतजार नहीं करता। कभी चखना बच्चों की फीस , कभी जमीन और कभी घर की शकल में भुन कर प्लेट में सज कर दारू का साथ निभाने आ जाता है। और जब उससे भी दारू का मन नहीं भरता तो चखना अपना सबसे बड़ा प्रमोशन लेकर जिंदगी फ्राय के रूप में आकर दारू के अंतिम पेग के साथ हलक में उतर जाता है। जिंदगी में प्रोग्रेस करनी है तो चखने से बड़ा आदर्श मिलना कठिन है।

Sunday, March 21, 2021

प्रतिभा और प्रशिक्षण


सत्तर के दशक की घटना है। वो समय जब कार का मतलब एंबेसडर कार हुआ करती थी और आइएएस का मतलब था लाल बत्ती लगी एंबेसडर । शाम की धुंधलके का वक्त हो रहा था। मधुबनी जिला के कलक्टर साब किसी दूर के ग्रामीण दौरे से मुख्यालय लौट रहे थे। अचानक गाड़ी हिचकोले खा के बंद पड़ गई। ड्राइवर ने कहा कि साब घबराने की बात नहीं है, कार की बैटरी डाउन है, कोई धक्का लगा दे तो गाड़ी स्टार्ट होकर मुख्यालय तक पहुंच जाएगी। अब गाड़ी को धक्का लगाने के लिए आदमी चाहिए, कलक्टर साब ने आस पास देखा तो चार लोग आस पास एक मचान पर बैठे ताश खेल रहे थे। डीएम साब ने ड्राइवर को कहा कि जाकर उन लोगों को कहो कि कलक्टर साब की गाड़ी खराब हो गई है इसलिए धक्का लगाने के लिए साहब बुला रहे हैं। ड्राइवर गाड़ी से उतर कर मचान पर बैठे लोगों के पास गया। फिर भागा भागा घबराया सा कार में बैठे साहब के पास आकर बोला। सर वो लोग बोल रहे हैं कि हम कार में धक्का तो लगा देंगे लेकिन अपने साब से यह पूछ कर आओ कि वो किस बैच के आइएएस हैं ताकि हमें भी पता चले कि वो हमसे सीनियर है या जूनियर। मचान पर बैठे ताश खेलते चारों सीनियर आईएएस ऑफिसर उसी गांव के थे जो किसी पारिवारिक समारोह में शामिल होने अपने गांव आये हुए थे।

साल 1986 में शारजाह में भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था। आखिर गेंद पर छह रनों की दरकार थी। बॉलर चेतन शर्मा की गेंदबाजी पर जावेद मियांदाद के लगाए छक्के की टीस आज तक भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को सालती रहती है। यह वो दौर था जब भारत पाकिस्तान के मैच रोमांचक हुआ करते थे, आजकल की तरह एक तरफा नहीं। आंकड़ों की बात मानें तो भारत पाकिस्तान से हारता ज्यादा जीतता कम था। 

चाहे क्रिकेट का मैदान हो या आइएएस में आने वाले बिहारी। ना पाकिस्तान का वो जलवा रहा और ना आजकल आइएएस की परीक्षा में बिहारियों का पुराना दबदबा।आखिर क्या बदल गया हालिया वर्षों में।

पाकिस्तान की बात करें तो धन बल और क्रिकेट की आधारभूत सुविधाओं के मामले में पाकिस्तान अन्य देशों जैसे भारत , ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से कहीं ज्यादा पिछड़ गया है। आतंकवादी घटनाओं के कारण बाकी देशों की टीमें पाकिस्तान का दौरा नहीं करती, इससे वहां के युवा खिलाड़ियों को न विदेशी खिलाड़ियों के साथ का।अवसर मिलता है और ना ही पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के पास ऐसा पैसा है कि वो आईपीएल की तरह कोई बड़ा आयोजन करके अपने खिलाड़ियों को कोई अवसर दे सकें। बिहार की बात करें तो बिहार की शिक्षा व्यवस्था का उत्तरोत्तर ह्रास होता गया है वहीं बाकी देश की शिक्षा व्यवस्था का विकास  हुआ है।

 हर परिवार से एक आइएएस देने के लिए जाना जाने वाला बिहार आज कल परीक्षा में होने वाली नकल के लिए खबरों में जगह बनाता रहा है। एक तरफ जहां आइएएस जैसी परीक्षाओं में पब्लिक स्कूलों से पढ़े अंग्रेजी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत 99 तक पहुंच चुका है और परीक्षा की तैयारी कराने के लिए महंगे कोचिंग संस्थानों का एक तंत्र तैयार है। स्वाभाविक है कि  बिहार की अधिकतर युवा को न अंग्रेजी स्कूलों की यह पढ़ाई मिलती है और ना कोचिंग संस्थानों का लांचिंग पैड। 

किसी भी क्षेत्र में सफलता में दो चीजों का सम्मिलित परिणाम होती है, पहली प्रतिभा और दूसरा प्रशिक्षण। जिसमें प्रतिभा नहीं उसको प्रशिक्षण देकर सफल नहीं बना सकते और बिना प्रशिक्षण के प्रतिभा अपनी क्षमताओं का पूर्ण दोहन नहीं कर सकती। बिहार के लोगों में क्षमता नैसर्गिक है, वे मेहनती हैं, मिलनसार हैं, सहनशील हैं, मृदुभाषी हैं और तीक्ष्ण बुद्धि उन्हें विरासत में मिली है। ऐसा नहीं है कि  बाकी क्षेत्र के लोगों में वो बात नहीं है, बात बस इतनी है कि बाकी लोगों को लगता है कि बिहार के लोगों में इन गुणों की कमी है। बाहरी क्या कभी कभी खुद बिहारी जनों को भी लगता है कि उनमें ही कुछ कमी है, जबकि यह आभासी कमी सिर्फ आधारभूत संरचना और यथोचित प्रशिक्षण की कमी के कारण है।

इन्ही चीजों की लंबे समय से कमी रुपी द्रोणाचार्य ने बिहारी प्रतिभा रुपी एकलव्य का अंगूठा काट लिया है। एकलव्य को उचित प्रशिक्षण मिले तो वो पार्थ पर भारी पड़ने का माद्दा रखता है। बिना प्रशिक्षण के अभाव में वो प्रतिभाशाली ऑफिसर और वैज्ञानिक न बन कर अकुशल मजदूर बनता है जिसे आप छठ के समय बिहार जाने वाली पैसेंजर ट्रेनों में जानवर की तरह ठूस ठूस कर भरा हुआ देखते हैं। याद रखिए कि  लॉक डाउन के समय दिल्ली और पंजाब से सर पर पोटरी उठाकर धूप में पैदल चलती प्रवासी मजदूरों की फौज चाणक्य, सुश्रुत और आर्यभट की संतान है। यह वो ही लोग हैं जो एक एक गांव से पांच पांच आइएएस ऑफिसर दे सकते थे।

आशा है कि इस छोटी सी समस्या को जल्द ही दूर कर हम अपनी प्रतिभाशाली जन सामान्य को वास्तव में मानव संसाधन का रूप देंगे। हमारे प्रयास इस दिशा में हो तो रहे हैं लेकिन उनमें और भी तेजी लाने की नितांत आवश्यकता है। 

बिहार दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।। 

Saturday, March 13, 2021

दिल्ली ऐसी ही नहीं बसती।

दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती

इस शहर के बनते हैं किले
किसी पहाड़ का सीना
चीर कर निकाले गए लाल लाल पत्थरों से,
इसकी इमारतें बनती हैं 
किसी खेत की मिट्टी को भट्ठी में
जला कर बनी ईंटों से,
और इन सब को जोड़ने के लिए,
लगते हैं छोटे शहरों के कारीगर,
दूर गांव के मजदूर,
और उनके बसने के लिए,
बनती हैं गंदी बस्तियां
और फिर साथ ही बनती हैं
बदनाम गलियां।

दिल्ली ऐसी ही नहीं बसती।
इस शहर की प्यास बड़ी है
इसीलिए दूर पहाड़ों में 
उछलती कूदती नदियों
को बांधते हैं गारे से पत्थरों से
फिर उसी बांध के 
पीछे कैद नदी को
लोहे की मोटी पाइपों
से दिल्ली लाया जाता है
ताकि भरे जा सकें स्विमिंग पूल
धोई जा सकें बड़ी बड़ी गाड़ियां
बहाया जा सके मल
और धोए जा सकें लाखों शहरियों
के चमचमाते करोड़ों जोड़ी कपड़े।

दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
इस शहर को चाहिए चमचमाती सड़कें
सड़कों पर दौड़ती कारें,
और उन सड़कों पर 
काली कोलतार बिछाने के लिए चाहिए
काले गंदले चेहरों वाले सस्ते मजदूर,
उन कारों को चलाने के लिए
उनके दरवाजे खोलने के लिए
चाहिए ड्राइवर जो
 आगे वाली सीट पर बैठ
सीधा सड़क पर देखें
जिनको पता हो लेकिन
 जलन बिल्कुल न हो यह जान 
कि क्या चल रहा है
पिछली सीट पर,
जो सड़क पर की हर आहट सुन लें,
लेकिन पूरी तरह बहरे हों अपने
साहब की गालियों से, उनके राज भरी बातों से
ऐसे ही अनगिनत लोगों के पसीने
खून और आंसुओं से पटी
जमीन पर खिलता है मुगल गार्डेन
और बसती है वो रंगीन शाम।

दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
सिर्फ गांवो को उजाड़ 
वहां के लोगों को उखाड़
उनका पानी छीन
उनके खेत छीन जब
भर जाता है दिल दिल्ली का,
तो यह खुद को उजाड़ती है।
बार बार कई बार
कहते हैं दिल्ली सात बार उजड़ी
सात बार बनी,
पता नहीं क्या है ज्यादा त्रासद
दिल्ली का उजड़ना
या दिल्ली का बनना ?
दिल्ली के उजड़ने पर 
आंसू बहाने वाले मिल जायेंगे
हजारों दस्तावेज हजारों नज़्म
बीसियों कहानियां,
दिल्ली के बनने पर आंसू 
बहाने वाली एक नज़्म नहीं मिलेगी
यही तो खासियत है दिल्ली की
सबको लूट लुटी सी रहती है
सबको रूला रोती रहती है
सबके घर छीन बेघर रहती है
छीन सबका पानी प्यासी रहती है
जिसका हर कोना भींगा है 
खून से, खून से रंगी है हर दीवार
गजलों में फिर भी इसे कहते
बस इश्क मोहब्बत प्यार।

दिल्ली ऐसे ही नहीं बसती।
कैसा होता अगर कि कभी न बनती दिल्ली
तो शायद बच जाती द्रौपदी की लाज
ना गूंजती निर्भया की चीख
और न जलती कोई तंदूर में
ना मारी जाती प्रियदर्शनी
काश कि एक बार उजड़ फिर ना
बसती दिल्ली
तो बच जाते कई उजड़ने से
लेकिन यह दिल्ली है कि 
सबको उजाड़ उजाड़ बसती रहती है
और खुद उजड़ उजड़ फिर बसती रहती है

यही दास्तां है उजड़ने बसने की
आखिर यह दिल्ली है 
और यह दिल्ली
ऐसे ही नहीं बसती।









Wednesday, March 10, 2021

महाशिवरात्रि २०२१

शिव विरुद्धों का सामंजस्य हैं। शिव आदियोगी भी हैं तो पार्वती के साथ दाम्पत्य में भी हैं। भोलेनाथ हैं तो तांडव भी कर सकते हैं। क्रोधित हो बाल गणेश का सर काट सकते हैं तो हलाहल का पान भी कर सकते हैं। देवों के देव महादेव हैं तो रावण के इष्ट भी। रौद्र रूप धारी रुद्र हैं, काल भैरव हैं तो समस्त आयुर्वेद के ज्ञाता वैद्यनाथ भी हैं। त्रिनेत्र खोल कर संहारक बनते हैं तो महाकाली के क्रोध को शांत भी करते हैं। काल जिसका अर्थ समय, मृत्यु, संकट कुछ भी हो, तो शिव स्वयं महाकाल हैं। शिव से परे कुछ नहीं, शिव के सिवा कुछ नहीं ।

महाशिवरात्रि की बहुत शुभकामनाएं। हर हर महादेव।।