देखा एक सांप
खड़ा फन फैलाए,
पुरानी किवाड़ की
जंग लगी सांकल से लिपटा,
मानो किवाड़ के पटों
को खोलने से रोक रहा हो ।
दीमक खायी काले काठ की चौखट
पर रेंगती वह काली सरसराहट ,
पसीने से भींग गई पेशानी मेरी
भय से निकल गई अधघुटी चीख ।
तो पाया लेटा हूं अपने
मुलायम बिछौने पर ।
ओह! सांप नहीं सपना था
व्यर्थ ही भय से मेरा कांपना था ।
देखा एक सांप
जब नहीं था कोई सांप !!
बरामदे पर लटका बल्ब
अंधेरे से लड़ता लड़ता आखिर
हो गया शहीद ,
लिए झूलता हुआ टूटा फिलामेंट
अब बरामदे पर छाया है अंधेरा ।
सोचा बदल दूं बल्ब
जैसे ही पहुंचा बरामदे ,
फिर देखा वही सांप
लंबा सी काया श्याम उन्मुक्त ।
फिर से वही सरसराहट,
ऊपर से नीचे गया कांप ।
फिर किसी ने जलाई टॉर्च
और हंसने लगा मुझपर ।
ओह! सांप नहीं रस्सी थी,
जिसे देख मेरी घिग्घी बंधी थी ।
देखा एक सांप
जब नहीं था कोई सांप ।
गुजरता जंगलों से
मिला एक भील बच्चा ,
(पांच साल का रहा होगा)
अकेला प्रकृति से साकार ।
मां बाप गए थे जंगलों में,
महुआ बीनने लकड़ियां चुनने ।
अकेला बच्चा अपने मचान
पर खड़ा फूस की छत में
कुछ ढूंढ रहा था ।
कुछ बुदबुदाता हुआ
हंसता हुआ ।
पास जाकर देखा तो फिर
वही सांप लटकता हुआ ।
और बच्चा उसके साथ खेलता हुआ ।
और सांप मानो ऊब गया हो
बच्चे की चुहल से ।
जैसे बूढ़े दादा बचकर निकलना
चाहते हों नटखटी पोते से ।
देखा एक सांप
हां देखा एक सांप
इस बार असली सांप था ।
वही काली सरसराहट ,
लेकिन बच्चे को क्यों
नहीं दिखा सांप ?
सांप नहीं होने पर भी
मुझे दिखता ।
सांप होने पर भी
बच्चे को नहीं दिखता ।
सांप का यह खेल निराला है ।
सांप बाहर नहीं
मन में बैठा है ।
वह काली सरसराहट
मेरे मन की है,
वह सांप का खौफ़
मेरे मन का है।
उस नन्हे भील का मन
और मेरा मन,
एक सांप का ही तो अंतर है।
देखा एक सांप
तो एक गुदगुदाया
एक थर्राया ।
मन ही है जिसने
दिखाया एक सांप
जब नहीं था कोई सांप।
सोचता हूँ अब
क्या वाकई होते हैं सांप
क्योंकि देखा एक सांप
जब नहीं था कोई सांप।
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