उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ के पिता श्री आनन्द सिंह बिष्ट का हाल में निधन हो गया। 89 वर्ष की आयु और अपने खराब स्वास्थ्य से जूझ रहे श्री बिष्ट ने एक भरपूर जीवन जिया। अतः उनका देहावसान दुखद तो है किन्तु इसे सामान्य जीवन का अंत मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। एक घटना जो इस सामान्य सी दिख रही मृत्यु को थोड़ा अलग बनाती है, वह है योगी आदित्य नाथ का अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल ना होने का निर्णय। मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी वक्तव्य में योगी जी ने उन्हें अपने पूर्व आश्रम में जन्मदाता बताया। फिर कहीं पढ़ा कि योगी जी ने राजधर्म निभाने के लिए पुत्र धर्म का बलिदान किया। पिता को खोने का दुख सबसे बड़ा नहीं तो उससे कमतर भी नहीं। तो क्या योगी जी द्वारा अपने पिता के प्रति कर्तव्य की अवहेलना की गई? या राजधर्म या संन्यास धर्म पितृ ऋण से बढ़कर है? पिता पुत्र संबंध की संकल्पना क्या है ? क्यों ना इस घटना के परिपेक्ष्य में इन वृहद प्रश्नों की सीमित ही सही लेकिन थोड़ी पड़ताल की जाए।
सामान्यतया पिता शब्द जनक के समानार्थी प्रयुक्त होता है। जिसके अंश से आप अपनी माता के गर्भ में आए, वह आपका जनक होता है। अंग्रेज़ी में कहें तो biological father। हिंदी में इसके लिए जनक शब्द का प्रयोग होता है। पिता शब्द का अर्थ जनक से थोड़ा व्यापक है। जनक जब अपनी संतान की रक्षा, भरण पोषण और लालन पालन की जिम्मेदारी निभाता है तो पिता कहलाता है। मोटे अर्थों में जनक और अभिभावक का युग्म रूप पिता है।
शास्त्रों में भी पितृऋण की चर्चा की गई है जो तीन तरह के ऋणों में सबसे भारी माना गया है जिसको चुकाना आवश्यक होता है। यहां तक कि किसी व्यक्ति की प्रगति और समृद्धि का श्रेय भी पिता के कर्मों को दिया गया है। गांव जवार में कहावत भी है कि बाढे पूत पिता के धरमे। अर्थात आपके जीवन में अगर सुख है तो इसका श्रेय भी पिता के कर्मों को दिया गया है। अपने शास्त्रों में ऐसे प्रसंग आते हैं जहां पिता के आदेश पर पुत्र ने अपने प्राण न्योछावर लिए है। जैसे नचिकेता अपने पिता का आदेश मानने के लिए मृत्यु का वरण कर यम के द्वार तक जा पहुंचे। मयूर ध्वज ने तो अपने पिता के आदेश पर अपनी माता तक का वध कर दिया। अगर पिता का स्थान इतना उच्च रखा गया है तो सिर्फ जनक होना पिता होने की आवश्यक शर्तों को पूरा करता नहीं लगता।
कर्ण को ही लें। सूर्य के अंश से उत्पन्न हुए, सूतपुत्र कहलाए और कुंती के पुत्र होने के कारण कृष्ण उन्हें पांडव का भाई बताते हैं। तो उनके पिता कौन हुए? सूर्य, सारथि अधिरथ या पांडु? योगी अगर अपने जैविक पिता को पूर्व आश्रम के जन्मदाता कहते हैं तो कहीं ना कहीं उन्हें पिता का स्थान से वंचित करते प्रतीत होते हैं। कारण कुछ भी रहा हो, योगी जी द्वारा अपने पिता की अंत्येष्टि में शामिल ना होना यह दिखाता है कि उनके और उनके दिवंगत जनक के बीच के संबंधों की परिभाषा सामान्य पिता पुत्र की परिभाषा से मेल नहीं खाती। जहां तक स्वर्गीय आनंद सिंह बिष्ट का प्रश्न है तो उन्होंने योगी जी को जन्म भी दिया और उनका लालन पालन भी किया, फिर भी कुछ ऐसा है जिसने योगी को उनके पुत्र धर्म का पालन करने से रोका या पितृऋण चुकाने की आवश्यकता से अपने आप वंचित तक कर दिया।
उत्तर वैदिक काल की एक कथा से इस जटिल प्रश्न पर प्रकाश पड़ता है। अपने पिता के लिए पिंडदान करते एक समय एक राजकुमार के सामने नदी से तीन हाथ प्रकट होते हैं। एक हाथ एक बंदी का होता है, दूसरा एक ब्राह्मण का और तीसरा राजा का जिसका अंतिम संस्कार राजकुमार कर रहा होता है। तीन हाथों में किसको अपना पिता मानकर वह पिंडदान करे, इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में राजकुमार के जीवनवृत्त पर प्रकाश पड़ता है। पता चलता है कि एक मरणासन्न बंदी जो सूली पर अपनी आखिरी सांसे गिन रहा होता है, एक स्त्री और उसकी पुत्री से मिलता है। बंदी कहता है कि राज्य के अन्यायी राजा ने उसे निर्दोष होने के बावजूद मृत्युदंड दिया है। वह चाहता है कि वह इस अन्याय का प्रतिशोध ले। इसके लिए वह बंदी स्त्री की पुत्री से एक संतान मांगता है जो उसका प्रतिशोध ले। स्त्री उसकी बात मान लेती है। स्त्री एक गुणी योग्य ब्राह्मण युवक से अपनी पुत्री का गर्भधारण संस्कार करवाती है और एक पुत्र उत्पन्न होता है। स्त्री उस नवजात को एक निस्संतान राजा के दरवाजे पर छोड़ आती है जहां उसका लालन पालन होता है। वही नवजात बालक आज अपने राजा पिता का पिंडदान कर रहा होता है जहां उसके सामने तीन हाथ निकल कर आते हैं।
इस कथा के द्वारा ना केवल हमारे समाज में पिता की जटिल अवधारणा पर प्रकाश पड़ता है बल्कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। एक मरणासन्न बंदी जिसकी जाति अज्ञात है, एक वैश्य स्त्री से विवाह करता है। वैश्य स्त्री एक ब्राह्मण के संसर्ग से पुत्र प्राप्त करती है जिसका भरण पोषण एक क्षत्रिय करता है। पिंडदान के प्रश्न के उत्तर में यह बताया जाता है कि वह बंदी ही राजकुमार का पिता कहलाने का अधिकारी है क्यूंकि उसने ही उसके जीवन को लक्ष्य दिया है। और वह लक्ष्य है अन्यायी राजा का अंत।
अतः पिता होने की परिभाषा ना ही पूर्णतया दैहिक है और ना ही पूर्णतया सामाजिक। अतः जैविक पिता होना पर्याप्त नहीं , पालन पोषण करना भी पर्याप्त नहीं, आवश्यक है अपने पुत्र के जीवन को एक लक्ष्य देना।
मैं योगी जी की मनःस्थिति का ज्ञाता नहीं हूं और ना ही यह जानता हूं कि किन समस्त कारणों से उन्होंने अपने जन्मदाता की अंत्येष्टि में शामिल ना होने का निर्णय लिया, किन्तु उनका यह निर्णय हमारी समृद्ध परंपरा के अनुकूल ही प्रतीत होता है।
गोरखनाथ के मठ में आकर ही उनको जीवन लक्ष्य का संज्ञान हुआ। इस हिसाब से उनके गुरु ही उनके पिता होते हैं। इस प्रसंग को पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत एक खोज में भी लिखा है। आप इस कथा को नीचे दिए गए यूट्यूब लिंक पर भी देख सकते हैं। आप चाहें तो पूरा एपिसोड भी देख सकते हैं लेकिन ऊपर उद्धृत कथा 20 मिनट 39 सेकंड से शुरू होती है।
https://youtu.be/lKv7d0vi_sA?t=1239
भगवान स्वर्गीय बिष्ट जी को अपने चरणों में स्थान दें। ॐ शांति।।
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