Sunday, April 26, 2020

नूतन वैश्विक व्यवस्था की आहट

जिस दुनिया की व्यवस्था को हम जानते हैं, जिसके अभ्यस्त हो चुके हैं, वह व्यवस्था कमोबेश पिछले 75 सालों से कायम है। करीब 75 साल पहले द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ और दुनिया भर के देशों के लिए नीति निर्धारण के लिए एक सर्वमान्य संस्था के रूप में इसकी स्थापना हुई। इसके अन्तर्गत विभिन्न संस्थाओं जैसे सुरक्षा परिषद , यूनेस्को , यूनिसेफ , विश्व स्वास्थ्य संगठन के जरिए संयुक्त राष्ट्र के नयी वैश्विक व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देना प्रारंभ किया। लक्ष्य था वैश्विक शांति को बढ़ावा देना और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के  समाधान के लिए एक सर्वमान्य मंच प्रदान करना। चूंकि संयुक्त राष्ट्र का निर्माण ही विश्व युद्ध के परिपेक्ष्य में हुआ था, तो यह स्वाभाविक था कि इस संस्था के निर्माण और नीतियों में विजेता देशों का दखल होगा। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गठन को ही लीजिए। पांच देशों के पास वीटो का अधिकार है, जिसका साधारण अर्थ है कि यह पांच देश अगर चाहें को अकेले किसी फैसले को रोकने की असाधारण क्षमता रखते हैं। 

असाधारण शक्तियों का असाधारण कर्तव्यों और असाधारण नैतिकता के साथ मेल होना आवश्यक है। अगर यह मेल टूटा तो विनाश और अराजकता इनके  सामान्य  फलन के रूप में सामने आते हैं। ध्यातव्य है कि वीटो शक्तियों से लैस पंच शक्तियों का व्यवहार नैतिकता के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता दिखता। पहले के वर्षों में यह व्यवस्था फिर भी चल गई क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं पांच शक्तियों से आता था। काफी हद तक यह संस्था बड़ी शक्तियों की प्रवक्ता बन कर उनका हित साधन करने में लगी रही। लेकिन 75 साल का अंतराल एक बड़ा अंतराल होता है। विश्व 1945 वाला विश्व नहीं रहा, 2020 वाला विश्व 1945 में स्थापित व्यवस्था को मानने को तैयार नहीं है और कुछ जायज़ और गंभीर प्रश्न उठा रहा है। 

कोवीड 19 से जूझते विश्व के हर राष्ट्र के सामने यह प्रश्न है कि स्थितियां कब सामान्य होंगी।  दूसरा प्रश्न और ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उस क्या विश्व उन सामान्य स्थितियों की ओर लौटना चाहता है जिस के कारण आज ये असामान्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं। कोरॉन्ना संकट, जिसमें चीन की संदिग्ध भूमिका, नीतिगत अपारदर्शिता और आपराधिक प्रतीत होती लापरवाही की सजा विश्व भुगत रहा है, ने उन "सामान्य" को पुनर्भाषित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। 

भले ही कोरॉना संकट के कारण वैश्विक व्यवस्था को बदलने के सवाल अब मुखर होकर सामने आ गए हैं, इनकी झलक पहले से ही दिखने लगी थी। जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, व्यापार युद्ध, गरीबी उन्मूलन , विश्व स्वास्थ्य और आय की असमानता जैसे ज्वलंत प्रश्नों के समाधान पर हमारी वर्तमान व्यवस्था विफल ही रही है। एक तरफ पेरिस समझौते से जहां अमेरिका खुद को अलग कर चुका है तो बाकी विकसित देश भी जलवायु परिवर्तन को लेकर अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में रुचि नहीं दिखा रहे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई भी निज स्वार्थों के टकराव के कारण अधर में झूल रही है। सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान जैसे देशों में चल रही लड़ाई आतंक के खिलाफ है या तेल भंडारों पर स्वामित्व की जंग, कहना कठिन है। वर्ष 2018 से चल रहे चीन अमरीका व्यापार युद्ध को सुलझाने में विश्व व्यापार संगठन पूर्णतया असफल रहा है। व्यापार युद्ध की इस समस्या ने आर्थिक वैश्वीकरण की अवधारणा को लेकर विकासशील देशों में संशय का वातावरण बना दिया है। अमरीका की अमेरिका फर्स्ट की नीति यह दिखाती है वैश्वीकरण की नीति का प्रसार तब तक ही किया गया जब तक विकसित देशों के अपने हित साधना को संभव किया जा सका। विश्व में गरीबी उन्मूलन को दूर करने के शिथिल प्रयासों और सुरसा के मुख की तरह बढ़ती आर्थिक असमानता यह बताती है कि 7 दशक पुरानी वैश्विक व्यवस्था इक्कीसवीं सदी की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती।

कोरोंना संकट से निकलने के बाद वैश्विक व्यवस्था बदलेगी , हां कितनी बदलेगी , या किस गति से बदलेगी यह देखने योग्य होगा। अगर सामान्य स्थितियों का अर्थ विश्व समाज का  अपने रोजमर्रा की वस्तुओं के लिए चीन पर निर्भरता था, तो वह सामान्य अब स्वीकार्य नहीं लगता। 
अगर विश्व के सुरक्षा मसलों पर चर्चा के लिए वर्तमान सुरक्षा परिषद सामान्य व्यवस्था है, तो उसके बदलने का समय आ चुका है। विश्व में टूटी पड़ी आपूर्ति श्रृंखलाएं और अन्यायपूर्ण समझौतों को रोकने में विफल विश्व व्यापार संगठन आने वाले विश्व में अपनी जगह शायद ही बना पाएं। कोरोना संकट को रोकने में विफल या उसको फैलाने में संलिप्त विश्व स्वास्थ्य संगठन अपनी आखिरी सांस गिन रहा है। आने वाले विश्व में भारत, जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया की भूमिका अब तक के सामान्य विश्व से कहीं अलग और कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होने वाली है। 

विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था, किसी भी संकट को व्यर्थ ना जाने दो। भारत को भी चाहिए कि इस संकट को व्यर्थ ना जाने दे। नई वैश्विक व्यवस्था के निर्माण का दर्शक ना बन, एक पथप्रदर्शक शक्ति के रूप में अपने आप को स्थापित करे। ऐसा करने के लिए हमारे पास नैसर्गिक संसाधन, मानव संसाधन और अन्य अनुकूल परिस्थितियां मौजूद हैं। बस आवश्यकता है विश्व गुरु के अपने खोए स्थान को प्राप्त करने की दृढ़ इच्छशक्ति को दिखाने की। 
धार्मिक धारावाहिकों में देखता हूं कि ऋषि श्राप देते थे कि जा पत्थर की बन जा, अगला जन्म फलां योनि में ले, और वह सच ही जाता था। कौन जाने भविष्य में भारत भी ऐसी ही शक्तियां पुनः प्राप्त कर ले कि बस एक बार बोलने के साथ सभी समस्या का समाधान हो जाय। जिस गो कोरोना , कोरो ना गो पर अभी हम हंसते है, वह किसी व्याधि को दूर करने का मंत्र बन जाय। शायद इस दिशा में पहला कदम विश्व की "सामान्य" व्यवस्था को बदलने में निर्णायक भूमिका निभाने में छुपा है।

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