Tuesday, December 29, 2020

तुम कल पत्थर थे, आज मिट्टी हो

तुम मिट्टी हो। तुम्हें हमेशा आस पास ही पाया है। आस पास क्या, हमेशा तुम्हें अपने पैरों के नीचे ही देखा है। फिर भी, कभी तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनी,  तुम्हें कभी बोलते नहीं सुना। शायद तुम्हें बोलने की इजाज़त लोगों ने कभी दी ही नहीं। तुम हर जगह हो पर मिट्टी को लोग अपने घर आने तक नहीं देते हैं। घर की चौखट के बाहर रखे, उस स्वागतम लिखी चटाई तक ही तुम्हारा स्वागत रुक जाता है, तुम्हारे आगे जाने से घर गन्दा हो जाएगा ना। यह अलग बात है कि वह घर खुद मिट्टी ने बनाया है। 

ऐसा नहीं है कि इन्सानों ने ही  तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव किया हो। बारिश का पानी , जिसका इंतजार कर कर के तुम्हारी छाती फट जाती है। जिस पानी को तुम सूरज की तेज धूप से बचाने के लिए अपने सीने में छुपा लेते हो | अपने अंदर रख कर भी उसको अपने को उससे दूर रखते हो, ताकि वह निर्मल कहला सके | जिसके लिए तुम्हारे पूरे बदन पर दरारें आ जाती है,  वह भी तुमसे मिलने में कतराता है। तुमसे मिलने के बाद उसका रंग मटमैला जो हो जाता है।  हर चीज़ तुम्हीं से निकलती है, पर तुमसे पीछा छुड़ाना चाहती है।

गेहूं , गुलाब, अफीम  या अंगूर सब तुमसे ही निकलते हैं, लेकिन सबसे पहले उन पर लगी मिट्टी धोयी जाती है। तुमसे ही निकले जब तक तुमसे जुदा ना हों, साफ सुथरे नहीं कहलाते। कहते हैं मनुष्य का शरीर भी तुमने ही बनाया है, मिट्टी का तन मिट्टी का मन तो बहुत सुना, यह किसी ने नहीं बताया कि वही मिट्टी अगर शरीर से लग जाय तो मैल कह कर क्यों दुत्कारी जाती है। जिसने अपना सर्वस्व सृजन के लिए न्योछावर हो,  उसका नाम बर्बादी और विनाश से जोड़ कर मिटटी में मिला दूंगा जैसी बातें क्यों की जाती है|  जो मिटटी सोना और हीरा उगलती है उसकी कीमत को माटी के मोल कह कर क्यों नीचे दिखाते हैं | 

शायद दुनिया ऐसी ही है | सुना है कि तुम भी कभी पत्थर थे। वक्त के थपेड़ों ने घिस घिस कर तुम्हें आज मिट्टी बना दिया। पत्थर थे तो शालिग्राम थे, आज मिट्टी बन गए तो मैल, धूल, कीचड़, गन्दगी क्या क्या नहीं कहलाते। फिर सोचता हूं, कि तुम कल पत्थर थे, आज मिट्टी हो | मैं आज इंसान हूं, कल मिट्टी बनूंगा। कल मिट्टी बनूंगा। 



Sunday, December 20, 2020

Ideology and Confusion

 If you have an ideology ( left, right, centrist, good, bad, ugly , ultra left, pro life, you name it), congratulations!! It means you have a full stomach. Ideology lives in the head of a body with full stomach only.


If you are confused ( about life, about career, about anything), congratulations again.. Confusion is a trait of thinking mind. It means that you are open to new ideas. Wise can never match the confidence of idiots. Confusion and lack of confidence is a sign that you are trying to access something.

If you are confused regarding your ideology, you are one step ahead of people described above. This places you in top 0.1% of humans, so why worry. #LittleThingsToRejoice

Friday, December 18, 2020

सैम मानेकशॉ के प्रति

महिला फोन पर : हैलो, अभी व्यस्त हो क्या?
व्यक्ति : हां मैंने हमेशा व्यस्त रहता हूं, लेकिन इतना भी नहीं कि  तुमसे बात ना कर सकूं।
महिला: ठीक है ,अभी इधर आ जाओ।
व्यक्ति: लेकिन मैं अभी चाय पी रहा हूं।
महिला: इधर आ जाओ, तुम्हें यहां चाय पिला दूंगी।
व्यक्ति: यहां मैं अच्छी चाय पी रहा हूं, तुम्हारे घर की चाय रद्दी होती है।
महिला: अब आ भी जाओ।
व्यक्ति फोन रख कर अपने असिस्टेंट को कहता है, मुझे जाना होगा.. लड़की मुझे बुला रही है।

लड़की के घर पर पहुंचने के बाद..
व्यक्ति: क्या हुआ? क्या समस्या है?
महिला: तुम मेरी समस्या हो!!
व्यक्ति: अब क्या किया मैंने?
महिला: सब कह रहे हैं कि तुम मेरी कुर्सी हथियाना चाहते हो।
व्यक्ति: तुम्हें क्या लगता है?
महिला: तुम ऐसा नहीं कर सकते।
व्यक्ति: तुम्हें मैं इतना नालायक लगता हूं?

प्रसंग २:
पहला व्यक्ति: तुम शराब पीते हो?
दूसरा व्यक्ति: हां पीता हूं।
पहला: तुम्हें नहीं पीना चाहिए।
दूसरा: मैं आपके पास आता हूं, तो आप शराब पीने से मना करते हो। मैं किसी पार्टी में जाता हूं तो  मेरी बीवी किसी खूबसूरत लड़की से बात करने के मना करती है। यह भी कोई ज़िन्दगी हुई?
पहला: तुम्हारी बीवी सही कहती है। शराब और लड़कियां तुम्हें बर्बाद कर देगी।
दूसरा: अब तक तो बर्बाद नहीं कर पाई। आगे भी नहीं कर पाएगी।

अगर यह कहूं कि ऊपर के दोनों प्रसंग में बातचीत देश के प्रधानमंत्री और उनके सेना प्रमुख के बीच हो रही है तो शायद आप यकीन ना करें। दोनों बातचीत में साझा व्यक्ति है फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, महिला है श्रीमति इंदिरा गांधी और दूसरे व्यक्ति हैं मोरारजी भाई देसाई।



देहरादून के शेरवुड स्कूल से दो प्रसिद्ध हस्तियां निकलीं। पहले अमिताभ बच्चन और दूसरे हैं सैम मानेकशॉ। भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि भले ही ढाका की मुक्ति हो, सैम का जीवन की उपलब्धियां अनगिनत हैं। सैम का जीवन इतिहास भारत का सैन्य इतिहास है।

सरदार पटेल के आदेश और महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद कश्मीर को पाकिस्तानी हमले से बचाने में जहां सैम की महती भूमिका थी, वहीँ  विभाजन के बाद कोलकाता में हो रहे भीषण दंगों को रोकने में भी सैम खड़े थे।

कोलकाता में भीषण दंगों से परेशान सरदार पटेल ने सैम को अपने दफ्तर बुलाया। 

माणिक जी , (सरदार पटेल  सैम को माणिक जी बुलाते थे ) कोलकाता में क्या करें, सरदार ने पूछा।
सैम : मैं क्या कहूं? आप बताओ क्या करना है?
सरदार: वहां दंगा रोकना है। अब बताओ, तुम्हें कितना समय लगेगा, और तुम्हें कितने बंगालियों की जान लेनी पड़ेगी।
सैम : सर, करीब एक महीना लगेगा और सौ लोग की जान जाएगी।

कुछ दिनों बाद जब सरदार पटेल सैम से फिर से मिले, तो सरदार ने कहा सैम तुम झूठ बोलते हो। 

सैम ने कहा, क्या झूठ कहा सर मैंने। सरदार से मुस्कुराते हुए गुजराती में कहा, तुमने कहा था कि सौ बंगाली मारोगे, एक भी नहीं मारा और दंगे शांत करवा दिया!!


सामान्यतः एक सैनिक का गौरव पूर्ण इतिहास इसका गवाह होता है कि उसने कितने दुश्मनों की जान ली, सैम ऐसे योद्धा के रूप में याद किए जाएंगे जिन्होंने 95000 युद्ध बंदियों की प्राण रक्षा की। बाद में सैम जब पाकिस्तान गए तो उनके एक सैनिक ने अपनी पगड़ी सैम के पैर पर रख दी और कहा कि आप हैं कि हम बच गए। अब हम कभी हिन्दू से नफ़रत नहीं कर सकते। यही नहीं अपने लंबे सैनिक कैरियर में सैम ने किसी को सजा नहीं दी। यहां तक कि हर कोर्ट मार्शल में उन्होंने अपने ऑफिसर को बचाया।

दूसरी बात जो सैम जो सबसे अलग बनाती है वह था उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर। ब्रिटिश सेना की तरफ से द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ते समय एक जापानी ने अपनी कार्बाइन सैम के पेट पर खाली कर दी। हॉस्पिटल में एक ऑस्ट्रेलियन डॉक्टर ने जब उनके पूछा कि जवान क्या हुआ है तुमको। अपना आधा खून गँवा  चुके अर्ध मूर्छित सैम ने कहा, डॉक्टर, मुझे एक गधे ने जोर की दुलत्ती मार दी है।  डॉक्टर अपनी मुस्कान तक नहीं रोक पाया।




एक इंटरव्यू में जब सैम से पूछा गया कि अगर विभाजन के समय पाकिस्तान की फौज में शामिल होने का प्रस्ताव मान लिया होता, तो क्या होता। उन्होंने मुस्कुराते हुआ कहा था कि फिर 71 की जंग पाकिस्तान जीत जाता। ऐसा आत्मविश्वास अदम्य साहस और अपने कार्यक्षेत्र में अद्वितीय होने के अहसास  से आता है, जिससे वह कूट कूट कर भरे थे। उनका यह आत्मविश्वास उनके व्यवहार में झलकता था जिसके बल पर वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को स्वीट हार्ट कह के संबोधित कर सकते थे।

आज जब बांग्लादेश अपनी पचासवीं वर्षगांठ मना रहा है, हमारे पास मौका है कि हम भारत के महानतम सपूतों में एक सैम बहादुर या फील्ड मार्शल सैम हॉर्मुश जी फ्राम जी जमशेद जी मानेकशॉ को याद करें और नमन करें। उनकी कहानियां अनंत हैं |उनके जीवन की एक एक बानगी यह वाक्य चरितार्थ कर देता है कि जीना इसी का नाम है। 







Monday, December 7, 2020

उज्जैन इंदौर यात्रा वृतांत

छह महीने हमने घर पर कैसे बिताए यह हम ही जानते है। इस टेंपो में भरकर सब्जी और फल बेचे। क्या बेचे? सब्जी और फल।
मैं तो 3 बजे सुबह उठ जाता था ताकि 8बजे से पहले कि पुलिस वाले सड़क पर दिखे, सब्जी बेचकर घर वापिस जाता था।  महाकाल की दया से जब से मंदिर के पट दर्शन के लिए खुले हैं, हमारी जान में जान आई है। क्या आई है? जान में जान आई है।

हमारे टेंपो चालक सह गाइड सह दार्शनिक के बात करने का अंदाज़ निराला है। लंबे बाल , कानों में बालियां और गहरी काली दाढ़ी के बीच उनकी मुस्कान को ढूंढना कठिन नहीं है। राजस्थान के बूंदी जिले से उज्जैन आकर बसे महेश नागवंशी जी का जीवन संघर्ष कठिन रहा है। आज वे गर्व से बताते हैं कि उनके आज चार ऑटो चलते हैं उज्जैन में।  मैं भी उन्हें बताता हूं कि हम भी काफी परेशान रहे हैं तो नागवंशी जी अपने टेंपो के शीशे से हमें ऐसे देखते हैं कि मुझे जल्द ही अपनी बात के हल्केपन का अहसास हो जाता है और मेरी नजर वापस से उज्जैन की सड़कों पर हो जाती है जहां उज्जैन को सफाई सर्वेक्षण में नंबर एक बनाने की अपील की गई है।

उज्जैन या अवंति शहर प्रारंभ से ही जीवन से संघर्ष करने वालों की कर्मभूमि रहा है।
युवराज अशोक को जब खबर मिली कि उनके पिता बिम्बिसार उनकी जगह सुशीम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रहे हैं, तो वे अवंति में ही  थे। अवंति महाजनपद को मगध का एक अंग बनाने और इसपर मगध की प्रभु सत्ता को स्थाई बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारी में युवराज अशोक पूर्णतः सफल रहे थे। अवंति से उनके लगाव एक और कारण था कि वेदिशा गिरी या वर्तमान विदिशा की राजकुमारी से ना केवल उनका विवाह हुआ था बल्कि उनके पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा ने भी अवंतिका में भी जन्म लिया था।



उज्जैन की धरा भारत के राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास की धुरी रहा है। महान अशोक हो या विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय, भारतीय इतिहास के दो महानतम विजेता शासकों की कर्मभूमि की मिट्टी में कुछ खास तो होगा ही।  उज्जैन की पावन धरती पर ही महाकवि कालिदास ने मेघदूतम और अभिज्ञान शाकुन्तलम की रचना की है। इसके अलावा भृत्तिहरि, भास या शूद्रक, या फिर ह्वेनसांग  सबों ने उज्जयनी का नाम  अपनी रचनाओं में अत्यंत सम्मानपूर्वक लिया है।

किताबों में जिस अवंतिका , उज्जैन , उज्जयिनी, अवंति का नाम इतना सुन रखा था, कि कोरोना के डर और दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन की चिंता किये बगैर निकल कर अगर कोई जगह जाने की सोचा भी जा सकता है तो वो  भगवान महाकाल की धरती उज्जैन ही हो सकती थी। महाकाल मंदिर में पहुंच कर पता चला कि सुबह की भस्म आरती के दर्शन बंद हैं। क्षिप्रा तट पर सुबह की पहली चिता की राख से महाकाल के श्रृंगार के कितने अर्थ हो सकते हैं इसमें पड़े बगैर मैं सिर्फ यह अद्भुत दृश्य देखना चाहता था। अब महाकाल की इच्छा से परे क्या हो सकता है। पहले दिन सिर्फ सामान्य दर्शन कर लौट आया कि अगले दिन प्रातः महाकाल आरती के दर्शन करूंगा।

मां उज्जयिनी के विस्तृत दर्शन को अगले दिन के लिए रख छोड़ने के बाद सोचा कि अब दिन भर क्या किया जाय। उज्जैन की छोटी बहन है इंदौर। जिस तरह ननिहाल में मां के प्यार से ज्यादा आकर्षक होता है मौसी का लाड़, उसी प्रकार इंदौर के खाने की सुगन्ध के वशीभूत ही इंदौर के लिए निकल पड़ा।

उज्जैन से करीब एक घंटे की दूरी पर बसा है इंदौर। मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा शहर जिसे अपनी प्रतिभा के हिसाब से राजधानी होना चाहिए था लेकिन शायद इंदौर को गद्दी से ज्यादा जायके की पड़ी थी। उसी ज़ायके की तलाश में हमारा पहला पड़ाव था रजवाड़ा पैलेस के पास स्थित सर्राफा बाज़ार रजवाड़ा पैलेस होलकर वंश के शासकों की हवेली है जिसका आजकल जीर्णोद्धार चल रहा है। बस हवेली के मंदिर प्रांगण और म्यूजियम तक ही जाने की अनुमति है। पैलेस के मंदिर प्रांगण में घुसते ही आपकी नजर जाएगी बड़े से तुलसी पिंडे पर। खुले आंगन के बीच में स्थित तुलसी स्थान को नमन कर मुख्य मंदिर तक जाने के लिए एक प्रतिक्षणा पथ बना हुआ है। उस प्रतिक्षणा पथ पर एक से एक दुर्लभ प्रतिमाएं लगी है। दुर्भाग्यवश ना ही भारतीय वास्तु शास्त्र का इतना जानकार हूं और ना इतना समय था कि हरेक कलाकृति को ध्यान से देख उसको समझ सकूं। हां कांसे की बनी नटराज एक  प्रतिमा आपका ध्यान जरूर आकर्षित करेगी।


मंदिर प्रांगण के ऊपर संकरे जीने के जरिए आप अस्थाई से बने संग्रहालय तक पहुंच सकते हैं। भारतीय राजे रजवाड़ों में के संग्रहालयों में सामान्यतः वो दो प्रमुख तत्व सामान्य रूप से दिखते हैं , जिनके कारण उनका पतन हुआ। पहला उनके भोग विलास की सामग्री जैसे बड़ी बड़ी पालकियां , महंगे डिनर सेट , बड़े बिछौने इत्यादि। दूसरा सामान्यतः उनके जंग लगी तलवारें और बाबा आदम के ज़माने की तोपें जिनका उपयोग जंग में कम सलामी बजाने के लिए ज्यादा होता था। मैं ऐसी चीजों से सामान्यता आकर्षित नहीं होता। लेकिन रजवाड़ा पैलेस में रानी अहिल्या रानी होलकर की एक फोटो गैलरी है। रानी अहिल्या बाई , जिन्हें कुछ विचारकों ने आधुनिक भारत के सबसे योग्य महिला प्रशासकों में माना है, के द्वारा किए गए अनेक कल्याणकारी कार्यों तथा उनके जीवन के पहलुओं के चित्र वहां लगे हैं। एक चित्र ने मेरा खास ध्यान खींचा जहां रानी अहिल्या बाई अपने मृत पति के साथ सती होने को तैयार हैं और उनके श्वसुर उनको रोते हुए रोक रहे हैं कि मेरा एक बेटा तो चला गया, अब तुम्हीं मेरे बेटे हो। मुझे निपुत्र ना करो बेटा। एक पुत्र शोक से पीड़ित पिता ने भी अपने ज्ञान और प्रगतिशील विचारों से ना केवल होलकर वंश का कल्याण किया बल्कि समाज को अहिल्या बाई जैसा योग्य शासक दिया।

रजवाड़ा पैलेस के पास ही है कसारा बाज़ार और सराफा बाज़ार। और सड़क पर पसरा है असंख्य फेरी वालों का साम्राज्य। भीड़ इतनी कि कोरोना वायरस तक को पैर रखने की जगह ना मिले। और चीजें इतनी आकर्षक और सस्ती कि चीन के बाज़ार शरमा जाएं। बच्चों के कपड़े, जूते, खिलौने,से लेकर चीनी मिट्टी के बर्तन , बैग आप जितना सोच सकते हैं सब कुछ मिल रहा था वहां। किसी  वालमार्ट और शॉपर्स स्टॉप का शॉपिंग एक्सपीरियंस उस जीवंत बाज़ार के एंबियंस की  बराबरी नहीं कर सकता। कुछ नहीं भी खरीदना हो तो भी बाज़ार ही देखने लायक है। जेब में पैसे हों तो आप बिना  कुछ खरीदे वापस नहीं सकते। अगर गए तो आप अपने आप को सुकरात के सच्चे उत्तराधिकारी मान सकते हैं।

कसारा बाज़ार में सजे बर्तनों को निहारते निहारते हम सर्राफा बाजार पहुंचे। गहनों के दुकानों की लड़ियां और उसके आस पास खड़ी लड़कियां , अगर यह माया नहीं तो और क्या है? शाम हो रही थी, इसीलिए सर्राफा बाज़ार के पास हमने रबड़ी ,मूंग दाल के हलवे को आनंद लिया और पास की दुकान पर गरमागरम गुलाब जामुन भी चखे।

उसके बाद हम ऑटो लेकर छप्पन दुकान पहुंचे। छप्पन दूकान इंदौर का प्रसिद्ध नाइट स्पॉट है जहां खाने पीने की दुकानें एक कतार से है। छप्पन पहुंच कर आपको अहसास हो जाता है कि इंदौर को चटोर शहर की उपाधि देना बहुत ग़लत नहीं है। रबड़ी, हलवा और गुलाब जामुन से भरे पेट के ऊपर भी हमने टिक्की चाट और पोटेटो ट्विंस्टर का लुफ्त उठाया। उसके बाद भारी मन और भारी पेट के साथ हमने उज्जैन की बस पकड़ी। हां कुछ देर के इंदौर प्रवास के दौरान भी शहर की सफाई और स्वच्छता ने हमें अत्यंत प्रभावित किया। इंदौर की जनता और प्रशासन दोनों इसके लिए बधाई के पात्र हैं।



सुबह सुबह हमारे फोन की घंटी घनघनाने लगी तो हमने पाया कि हमारे सारथी महेश नागवंशी साहब हमें सवेरे नींद से जगाने का वादा पूरा कर रहे हैं। हम चटपट तैयार हुए और दिल्ली से अपने साथ ले गई छंटी हुई धोती पहन कर  हम भगवान महाकालेश्वर के दर में जा पहुंचे। मंदिर के सामने टेंपो रोकते समय महेश जी कहते हैं, यहीं पकड़ा गया था विकास दुबे कानपुर वाला। मैंने सोचा कहां मैं महाकाल के बारे में सोच रहा था और कहां विकास दूबे पर ध्यान चला गया। फिर सोचा किबाबा महाकाल की संगत में लोहा भी सोना हो जाता है तो अशोक और विक्रमादित्य की धरती पर आकर विकास दूबे का भी नाम हो गया तो आश्चर्य कैसा।

मंदिर के अंदर जाकर हमने महाकाल की प्रातः आरती के दर्शन किए और एक वहां खड़े एक पुरोहित के सहयोग से परिवार के साथ भगवान शिव की उपासना की। मंदिर प्रांगण में खड़े फोटोग्राफर से अर्जेंट फोटो खिंचवाई और इसका पूरा ध्यान रखा कि पूरे ललाट पर लगे चंदन सिंदूर की भव्यता तस्वीरों में अच्छे से आए।

भगवान की पूजा के पेटपूजा का वक्त हो रहा था। महाकाल प्रांगण के बाहर ही 'अपना स्वीट्स' की दुकान है जहां आप इंदौर वाले पोहा जलेबी का आनंद ले सकते हैं। बिहार में सामान्यतः चूड़ा या तो सीधे धोकर दही के साथ खाया जाता है या भून कर उसका भूजा खाया जाता है। पोहा हमारे लिए एक अलग व्यंजन है जिसका आनंद लिए बगैर इंदौर और उज्जैन की यात्रा अधूरी है। अपना स्वीट्स पर नर्म पोहे और गर्म जलेबी की दो प्लेट छक के हम उज्जैन दर्शन को निकल पड़े



सबसे पहले हम पहुंचे गढ़कालिका देवी मंदिर में। ऐसा कहा जाता है कि महाकवि कालिदास गढ़कालिका देवी के अनन्य भक्त थे और उनकी साहित्यिक क्षमताओं का श्रेय उनकी इष्ट देवी गढ़कालिका को ही है। गढ़कालिका मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्ष ने करवाया था जो भारत वर्ष के अंतिम महान हिन्दू शासक माने जाते हैं। मंदिर के पास लगी पट्टिका पर सम्राट हर्ष का नाम देख कर कक्षा छह की इतिहास पुस्तक में उनके हस्ताक्षर का बरबस स्मरण हो आया। उनके हस्ताक्षर में लिखा होता था, " स्व- हस्तो-मम महराजाधिराज श्री हर्षश्या "


गढ़कालिका मंदिर से आगे  पहुंचे राजा भर्तृहरि की गुफा में। राजा भर्तृहरि यहां मौजूद दो गुफाओं में समाधिस्थ होते थे और उनके साथ ही नाथ संप्रदाय के मत्स्येंद्र नाथ और गोरख नाथ की प्रतिमाएं भी विराजमान हैं। अतः गढ़कालिका मंदिर जहां एक तरफ संस्कृत के गौरव स्तंभ  कालिदास से जुड़ा है तो भर्तृहरि की गुफा हिन्दी भाषा और माता संस्कृत के बीच की कड़ी अपभ्रंश के कवियों मत्स्येंद्र नाथ अथवा मछंदर नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ का प्रतिनिधित्व करती हैं। हठ योग की परम्परा से जुड़े संतों का जीवन कैसा रहा होगा, इन गुफाओं में जाकर सहज ही अनुभव हो जाता है।
भले ही हठयोगी संत सांसारिक सुखों से परे थे लेकिन सेवा का भाव उनमें अत्यंत प्रबल था। 
नौ लख पातरि आगे नाचैं, पीछे सहज अखाड़ा.
ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै भंडारा.” के जीवन दर्शन का पालन करते हुए भी गौसेवा और गो रक्षा को उन्होंने अपने जीवन चर्या में शामिल किया। पास ही बनी गौशाला में गौ सेवा का सौभाग्य मिला और खास कर बच्चों को बछड़ों को हरी घास खिलाते देख कर खुश होते देख और बछड़ों का बच्चों की चुहल स्नेह पूर्वक स्वीकार करते देख मन को शांति का भाव मिला।



इसके बाद हमारी अगली मंज़िल थी काल भैरव मंदिर। काल भैरव के इष्ट को प्रसाद में मदिरा चढ़ती है। इसीलिए मंदिर के बाहर दुकानों पर फूल, अगरबत्ती और माला के साथ साथ देसी विदेशी शराब की बोतलें सजी हुई देख आश्चर्य भी हुआ तो  हर भारत की विविधता का एक और रूप देख कदाचित गर्व भी हुआ। हां यह विचार भी आया कि अगर काल भैरव का मंदिर बिहार में होता क्या काल भैरव को पार्थिव नियमों से छूट मिलती या नहीं। मंदिर के बाहर ही सोडा शिकंजी की दुकानों पर काल भैरव के प्रसाद का सेवन करते भक्तों की भीड़ ने बता दिया कि शायद भक्त और भगवान दोनों को आबकारी नियम मानने ही  पड़ते। खैर, दिन के तीन बज रहे थे, और मेरा मन मंदिर प्रांगण में बिक रहे बड़े बड़े साबूदाना के पापड़ों पर मोहित हो रहा था। हमने खरीद कर दो तीन पापड़ खाए और आगे चला। वैसे कोरोना के कारण प्रशासन ने किसी भी प्रकार के प्रसाद या माल्यार्पण पर रोक लगा दी है अतः प्रसाद की बोतलें भक्तों के काम रही हैं, भगवान भक्तों की खुशी में ही प्रसन्न हो रहे हैं।



उसके बाद हम उज्जैन दर्शन के अंतिम पड़ाव की ओर अग्रसर थे। महर्षि सांदीपनी आश्रम जहां यह मान्यता है कि बाल कृष्ण, अग्रज बलराम और सखा सुदामा ने एक साथ शिक्षा ग्रहण की थी। सुंदर से सजे उद्यान में शुंग वंश  कालीन शिव मंदिर भी है जहां एक दुर्लभ नंदी की प्रतिमा है जो खड़ी मुद्रा में है। प्रायः शिव के वाहन नंदी की प्रतिमा में नंदी बैठे होते हैं, लेकिन यह एकमात्र मंदिर है जहां नंदी की प्रतिमा खड़ी मुद्रा में है। बाक़ी मूर्तियां आधुनिक हैं। सांदीपनी आश्रम के नीरव माहौल में कुछ समय बिताने के बाद हमने लडडू बाफना में खाना खाया और शुद्ध शाकाहारी भोजन से तृप्त हुए।



समय उतनी जल्दी से निकल गया और हम अपने महेश नागवंशी के साथ उज्जैन स्टेशन की तरफ निकल पड़े। रास्ते में नागवंशी जी ने अपने पुराने ग्राहकों को बातें बताई कि कैसे उनके निजी संबंध सालों से बने हुए हैं। स्टेशन पहुंच कर पैसे लेने के बाद मुझे नागवंशी जी ने पूछा कि वापिस कब आना है? मैने कहा सोमवार को सुबह ऑफिस जाना है। वह हंसने लगे। कहा सर आप कब वापस आओगे उज्जैन? मैंने मुस्कुराते हुए कहा यह तो महाकाल की इच्छा पर है। यह कह कर मैं प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ गया।