Saturday, December 28, 2019

आवरण में छुपा सत्य

बच्चों के रोने की आवाज़ें आ रही थी। भूखे प्यासे बच्चों के करुण क्रंदन का अनहद आलाप एक त्रासद वातावरण बना रहा था। लेकिन उस निर्दयी को उसका क्या फर्क पड़ता!! उस तो आग लगाने की पड़ी थी। जिस कमरे से बच्चों के रोने की आवाज़ आ रही थी, उसी के पास वाले कमरे में उसने माचिस निकाली। आग लगाने ही वाली थी, कि कुछ सहसा याद आया और एक पल के लिए वह रुक गई। कुछ सोच कर पास पड़े एक बड़े से चाकू को उठाया। ना इतने बड़े चाकू की जरूरत नहीं है। चाकू छोटा हो और उसकी धार तेज हो तो काम जल्दी हो जाएगा। बच्चों के रोने के आवाज़ें उसको परेशान कर रही थी। इनका कुछ करना पडेगा, यही सोच कर उसने तेज धार वाला एक चाकू निकाला। हां ये वाला ठीक रहेगा। बच्चों को शांत कराना जरूरी था , उसका बाकी काम आसानी से हो उसके लिए जरूरी था कि बच्चों को शोर बंद हो। उसने माचिस निकाली, आग लगाने से पहले फिर रुकी। तेल भी चाहिए, सिर्फ आग लगाने से क्या होगा? तेल का कनस्तर देखा। हां इतने तेल में हो जाएगा, छोटे छोटे बच्चे ही तो हैं, कितना तेल लगेगा। फिर उसने माचिस निकाली और आग लगा दी। बच्चों का स्वर और भी आर्द्र हो उठा। मम्मी मम्मी की आवाज़ गली में गूंज रही थी। कुछ देर तक यह स्वर गूंजता रहा। फिर शायद बच्चे थक गए। आवाज़ आनी बंद हो गई। बाहर अंधेरा और कोहरा और भी घना हो चुका था। घर के बाहर गली से अब आग दिखनी भी बंद हो चुकी थी। बच्चे शांत हो चुके थे। शायद सुला दिए गए थे। लेकिन यह आग फिर नहीं लगेगी इसकी क्या गारंटी है। यह आग कल फिर लगेगी, शायद किसी और घर में। बच्चों का शोर फिर होगा, आग फिर लगेगी और उनकी आवाज़ बंद करा दी जाएगी। उनको फिर सुला दिया जाएगा।  सवाल यह नहीं है कि आग क्यूं लगाई जा रही है, सवाल यह है कि आप चुप क्यूं है! सवाल यह नहीं है कि बच्चे आवाज़ क्यूं उठा रहे थे, सवाल यह है कि क्या उनकी आवाज़ बंद करने का यह तरीका सही है। सवाल यह नहीं है कि आग क्यूं लगी, सवाल यह है कि आग लगाने वाले वह थे जो घर के ही थे, और बच्चों की रखवाली की जिम्मेदारी उनपर थी। सवाल आपके सरोकारों से है , सवाल आपकी चुप्पी से है, सवाल आपकी चुप्पी वाली नपुंसक तटस्थता से है। सवाल आपसे है।

कैसा लगा उपर का आलेख पढ़ कर? गुस्से में भर गए? कुछ ना कर पाने की विवशता से आत्मग्लानि से भर गए? इस समाज का कुछ नहीं हो सकता यह सोच कर विचारमग्न हो गए? या सड़क पर उतर कर क्रांति करने की सोच रहे हैं? 

वास्तव में ऊपर का प्रसंग सिर्फ इतना है कि बच्चे भूख से रो रहे थे, और मां ने रसोई में जाकर चूल्हा जलाया और खाना बना कर बच्चों को खिलाया। फिर बच्चों का रोना बंद हुआ और फिर नर्म नर्म लिहाफ में वे पेट में मां के हाथ का सुस्वादु खाना और आंखों में ढेर  सारे सपने लेकर सो गए। हां चूल्हा कब सुबह फिर जलेगा, बच्चे फिर रोएंगे और फिर बच्चे खाना खाकर सो जायेंगे।

साहित्य , मीडिया या  कोई भी विचार संप्रेषण निहित लक्ष्यों से परे नहीं है। मासूम से मासूम घटना को ऐसे प्रस्तुत किया जा सकता है मानो प्रलय आ चुका है। और प्रलय बरपा देने वालों को ऐसे प्रस्तुत किया जा सकता है मानो कोई देवदूत हों। AK 47 लहराने वाले गरीब हेडमास्टर के बेटे बना दिए जा सकते हैं, और बच्चों का खाना बनाने वाली मां को जल्लाद बना दिया जा सकता है। कोई क्या कह रहा है यह महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है कि वह ऐसा क्यूं कह रहा है, अभी ही क्यूं कह रहा है, और कहने का निहित उद्देश्य क्या है? किसी भी बात पर उद्वेलित होने और उसको ब्रह्मसत्य मान लेने से पहले इतनी पड़ताल तो बनती है। सत्यमेव जयते तो सही है लेकिन सत्य क्या है वह जानना उसकी पूर्व शर्त है। सत्य का अन्वेषण करना होता है, जो इतनी आसानी से सतही तौर पर दिखे कदाचित वह सत्य नहीं है। सत्य कहीं नीचे छुपा है, स्वार्थ के धागों से बुने गए शब्दजाल के भीतर। उसको पाने का प्रयास करें, फिर अपनी विचारधारा बनाएं या बदले। बाकी इन्कलाब जिंदाबाद और फासीवाद हाय हाय के नारे लगाने में मज़ा तो आता है, लेकिन अगर फासीवाद का मतलब भी समझ जाएं तो मज़ा ज्यादा हो जाए। किसी के कहने से फासीवाद नहीं आ जाता और किसी के कहने से रामराज्य नहीं आ जाता। हां मीडिया आपको इसका झूठा अहसास जरूर करवा सकता है। सतर्क रहने में कोई हानि नहीं है।

Friday, December 20, 2019

सरकार को झुकाना है

हां सरकार झुकती है। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता चाहे तो बार बड़े तख्त को झुकना पड़ता है। लेकिन सरकार को झुकाने के लिए तर्कपूर्ण वादविवाद होना चाहिए ना कि लोगों को बहला फुसला कर आगजनी कराके। सरकार और जनता को इमोस्नली ब्लैकमेल करके अगर तथाकथित जीत मिल भी गई तो भी आगे चल कर ऐसी शिकस्त मिलेगी जिसको बताना कठिन है। सरकार तो झुक जाएगी, नुकसान किसका होगा?

‌आज से बीस साल पहले भी ऐसा वक़्त आया था। दिसंबर 1999। कंधार में हमारे ic 814को अगवा करके के के जाया गया था। उन्होंने हमारे नागरिकों को बचाने के लिए मसूद अजहर और अन्य आतंकियों को छोड़ने की मांग की। उस समय यही मीडिया थी जिसने  उनके अपहृत नागरिकों के परिवारों को के जाकर 7 रेसकोर्स रोड पर बिठा दिया था। उनके आंसू दिखा दिखा कर ऐसा माहौल बनाया कि सरकार कितनी निर्दय है जो अपने नागरिकों की जान की परवाह नहीं कर रही।  सरकार झुक गई। छोड़ दिया मसूद अजहर को। आगे क्या हुआ? उसी मसूद अजहर ने संसद पर हमला किया, मुंबई को दहला डाला। सरकार नहीं हारी, हार गया देश।



‌ सड़क पर हजार कंकड़ हों, आज जूते पहन कर आराम से चल सकते हैं। लेकिन एक कंकड़ अगर आपके जूते के अंदर चला जाए तो आप एक कदम भी नहीं चल सकते। बाहरी खतरों से कहीं ज्यादा खतरनाक है अंदरूनी कमजोरी। अपनी तात्कालिक जीत आगे चल कर कितनी महती हार सिद्ध होती है, कंधार प्रकरण उसका जीवंत उदाहरण है। सिर्फ मसूद नहीं छूटा, टूट गया यह भरम भी भारत सख्त कदम उठा सकता है और पागल कुत्तों के सामने समर्पण नहीं करता है।

‌एक राष्ट्र की परिभाषा के चार तत्वों में शामिल है जनसंख्या, भूभाग, संप्रभुता और सरकार। पहली ही शर्त है जनसंख्या। संविधान की प्रस्तावना आरंभ ही होती है, हम भारत के लोग से। क्या राष्ट्र को इतना अधिकार नहीं कि वह अपने लोगों की पहचान तक कर सके?  इस आंदोलन के दौरान एसी आवाज़ें उठी है कि हम अपने राज्य में नागरिकता अधिनियम लागू नहीं करेंगे, संयुक्त राष्ट्र से दखलंदाज़ी तक की बात हो चुकी है। यह देश की संप्रभुता पर हमला है। आइडिया ऑफ इंडिया के नाम पर इंडिया को ही तार तार किया जा रहा है। एनआरसी आ गया तो मेरी विधवा दादी का क्या होगा, मेरे जुम्मन चचा की खाला कहां से कागज दिखाएगी? ऐसे तर्क सुन कर 1999 फिर से याद आ जाता है। भाई जो सरकार, जो देश आपको मुफ्त शिक्षा, मुफ्त निवास, मुफ्त उपचार, मुफ्त भोजन दे रही है, उससे इतनी तो मानवता की आशा तो रखो कि उन सभी मानवों का खयाल रखा गया है और रखा जाएगा। 10 लोगों के आंसू दिखा कर पूरी मुंबई को हम पहले ही रुला चुके हैं। पिछली बार तो सिर्फ एक मसूद छोड़ा था, नागरिकता कानून सख्त नहीं बनाया तो इतने मसूद घर घुस आएंगे कि आंसू तक सूख जाएंगे। नागरिकों की पहचान ना कर पाने की अक्षमता को हम अपनी दयालुता और मानवता का नाम नहीं दे सकते।

‌वैसे आप चाहे मुझे निराशावादी कह लें अपनी जनता पर भरोसा मुझे कम ही है। अपना ही खून चाट कर जनता अपना प्यास बुझाने का स्वांग भरती है। नागरिकता कानून तो बहुत बड़ी बात है। हमारे यहां प्याज महंगा हो जाए तो हम सरकार गिरा देते हैं। भाई महाराष्ट्र में इस बार बारिश बहुत ज्यादा हुई, प्याज की फसल औसत से कम हुई। प्याज तो महंगा हो गा ही। हमारे पुरखों ने यथेष्ठ संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं बनाए जिसमें हम प्याज रख सकें। लेकिन हमें क्या? हमें प्याज चाहिए। चाहे सरकार को जाकर तुर्की के सामने हाथ फैलाना पड़े कि हमें प्याज दे दो। उसी तुर्की के सामने जिसे दुनिया के सामने कश्मीर मुद्दे पर हमारा विरोध करने पर हमने फटकार लगाई थी।

‌ 1965 की लड़ाई के समय देश में अनाज की कमी थी। शास्त्री जी ने देश से एक शाम का खाना नहीं खाने को कहा, तो क्या हमने जाकर उनके कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया? अगर हमने उस समय ऐसा किया होता तो सरकार झुक जाती। पक्का झुक जाती और कहीं से मांग कर अनाज भी ले आती। क्या यह जनता की जीत होती या राष्ट्र की हार? विचार करके देखें।

‌संविधान की दुहाई देने से पहले और हाथ में मोमबत्ती लेकर "हम भारत के लोग" का समवेत वाचन करने से पहले "भारत के लोग " बनने का कर्त्तव्य तो निभाएं। घर का लड़का पानी टंकी पर चढ़ कर जिद करे कि मैं तो अपनी बकरी से विवाह करूंगा और अगर मना किया तो कूद कर जान दे दूंगा। और उसके घर वाले मान जाएं, तो जीत लड़के की हुई या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर में मन सोच लें और निकल पड़ें सड़कों पर जनतंत्र बचाने और सरकार को झुकाने को।

Thursday, December 12, 2019

जेम्स वाट और सोनागाछी

अठारहवीं शताब्दी का  पांचवा दशक चल रहा था । अलसाई सी दुपहरी में अपनी मां को खाना बनाते देखता एक बालक की कौतूहल भरी दृष्टि चूल्हे पर चढ़ी पतीले पर पड़ी। उबलते हुए पानी के पतीले का ढक्कन बार बार उठता और गिरता था। बालक के मन में एक विचार आया कि यह जलवाष्प क्या इतना शक्तिशाली है कि पतीले के ढक्कन को उठा सकता है। क्या भाप की इस शक्ति का प्रयोग किसी अन्य कार्य के लिए किया जा सकता है? अगर हां तो कैसे।


इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी कोलकाता के शोभाबाजार मेट्रो से उतर कर चहलकदमी करके आप पहुंच सकते हैं सोनागाछी । वही सोनागाछी जिस के मकान की खिड़कियों से झांकती आखें आपको बुलाती हैं इशारे करती हैं और बंद दरवाजों के पीछे चंद रुपयों के लिए मानवता तार तार होती रहती हैं। यह चंद्रमुखियों का इलाका है। फर्क बस इतना है कि उनके देवदास दिन में पच्चीस बार बदल सकते हैं और चुन्नी बाबू चंद्रमुखी के साथ सहानुभूति नहीं रखते बल्कि उसकी कमाई का अधिकतर हिस्सा अपनी जेब में रख लेते हैं। इन चंद्रमुखी की कमाई अंधेरे में होती है और उजाले में यह चंद्रमुखी तभी आती है जब उसे अपने अंधेरे कमरे में लौटने के लिए एक और देवदास की तलाश करनी होती है। यह विश्व की शायद सबसे बड़ी देहमंडी है जहां इंसान की इंसानियत की कसक सिक्कों की  खनखनाहट के नीचे दब गई है। क्या कारण है कि जिस कोलकाता शहर को उल्लास का शहर कहा जाता है वहीं पर सिसकियां का स्वर इतना तीव्र है? क्या कारण है कि विद्रूपताओं भरे इस शहर ने छह नोबेल पुरस्कार विजेता दिए हैं? क्या कारण है कि बंगाल पर ही लाल झंडे ने करीब चार दशक का निर्बाध शासन किया? 

 

इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए हम वापस चलते है अठारहवीं सदी के उस दुपहरी में  पानी के पतीले के ढक्कन को गिरते उठते देख विस्मित होते बालक के पास। इस बालक का नाम है जेम्स वॉट। बालक जेम्स अपने इस कौतूहल को यूं ही नहीं जाने देता। जलवाष्प की उस शक्ति का दोहन वह बड़े पैमाने पर करना चाहता है।


जेम्स वॉट की यह कोशिश सफल होती है और वह भाप इंजन का निर्माण करता है। यह भाप इंजन प्रथम औद्योगिक क्रांति का आधार बनता है और विश्व में आधुनिकता का प्रादुर्भाव होता है। इस भाप इंजन की बदौलत घर पर आधारित कुटीर उद्योगों का स्थान फैक्ट्रियों ने ले लिया है और अहर्निश धूम्र उगलते इंजनों और उनसे चलने वाले मशीनों को चाहिए कच्चे माल की अनवरत आपूर्ति । साथ ही साथ बने माल की मांग के लिए चाहिए एक बड़ा बाज़ार। 

कच्चे माल के स्रोतों और उनकी फैक्ट्रियों के बने सामानों के बाज़ार के लिए ब्रितानियों का देश अपर्याप्त सिद्ध होता है और उनकी नजर सात समंदर पार भारत पर पड़ती है।


भारत का राजनीतिक नेतृत्व इन सभी बदलावों से बेखबर रीतिकाल के साहित्य के मांसल सौंदर्य का रसास्वादन करने में व्यस्त है। चारण कवियों की चाटुकारी से उब होने पर मन बहलाने के लिए हरम का रुख किया जाता है और हरम से जी भर जाए तो शिकार करने का बंदोबस्त किया जाता है। मुगलिया साम्राज्य नाम भर का रह गया है और उनके सामंतों में एक मुर्शीद कुली खां बंगाल का नवाब है। बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रांत है लेकिन राजनीतिक रूप से सबसे सुभेद्य। ढाका के कारीगरों द्वारा  बनाई गई रेशमी साड़ी एक अंगूठी से आर पार हो जाती है। बंगाल का नवाब सिरजुद्दौला इससे पहले कि कुछ समझ पाए क्लाइव और जाफर के षडयंत्र का शिकार हो जाता है और अपनी प्रजा के भविष्य को गोरी सरकार के काले मंसूबों के हवाले कर देता है। और गोरों को वह सब मिल जाता है जो उनको , उनकी कंपनी और उनकी ब्रिटेन की फैक्ट्रियों को चाहिए होता है।


अगर जेम्स वॉट के उस पतीले और सिराज की प्लासी में पराजय का संबंध यहां तक आप समझ गए हैं तो आगे की कहानी आसान होगी। ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल पर स्थायी बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा लागू करती है। जिसके तहत किसानों से नकद में लगान वसूला जाने लगा जिसकी न्यनूतम सीमा तो तय थी लेकिन अधिकतम सीमा जमींदार तय करने लगे। आखिर कुल लगान के ग्यारहवें हिस्से पर ही उनका अधिकार था बाकी सारा कंपनी बहादुर को जमा करना होता था। धन कमाने का एक ही मार्ग था अधिकाधिक करों की वसूली। परिणाम यह हुआ कि विश्व का सबसे समृद्ध क्षेत्र दुर्भिक्ष का केंद्र बन गया। बंगाल और अकाल समानार्थी हो गए। 


आशा करता हूं आप अब तक मेरे साथ हैं। अगर हां तो अब हम अपने प्रश्नों के उत्तर के अत्यंत समीप हैं। जेम्स वाट के इंजन से बंगाल का दुर्भिक्ष कैसे जुड़ा है आप समझ चुके हैं। कम्पनी का अत्याचार कारीगरों पर भी हुआ। उनके हस्तकौशल का कोई खरीदार ना रहा , मशीनों के पिस्टन से उनकी नाज़ुक उंगलियां कब तक संघर्ष कर पाती। वे भी किसान पहले बने और भूमिहीन मजदूर बाद में। लेकिन जमींदार का लगान सुरसा के मुख की तरह बड़ा ही होता गया। अपनी फसल और ज़मीन बेचने के बाद भी जब किसान लगान ना भर पाते तो अपनी बेटियों तक को बेचने की नौबत तक आ गई। पेट की आग सारी नैतिकता और आदर्शों को जला देती है और उसकी ताकत के आगे मानवता सर झुका देती है। मानव मूल्यों की बात क्षुधापीडितों के पल्ले नहीं पड़ती। जैसे जैसे दुर्भिक्ष का काल बढ़ता गया, बेची गई बेटियों का बाज़ार बढ़ता गया। वही बाज़ार आज सोनागाछी कहलाता है ।


यही सोनागाछी शरत चन्द्र की चंद्रमुखी का निवास है और देवदास उस जमींदार का लड़का है जिसके हाथ में किसानों के खून से भी गाढ़ा मय का प्याला है और जिसे पीकर वह पारो और चंद्रमुखी के बीच डोलता रहता है। जमींदार ही थे जिनके बच्चे लंदन जाकर पढ़ सकते थे। यही कारण है कि जमींदारों के परिवार से आने वाले राजा राम मोहन राय लंदन जाकर पढ़ सके तो सत्येन्द्र नाथ ठाकुर पहले आईसीएस अधिकारी बन सके। गुरुदेव रवींद्रनाथ भी जमींदार थे इसीलिए उनके पास रवीन्द्र संगीत और गीतांजलि रचने के लिए समय था। यही कारण है कि भारत का पहला नोबेल बंगाल में  ही आया। जो श्रृंखला जेम्स वॉट के इंजन से शुरू हुई उसकी ही कड़ी है कि दरिद्र नारायणों की सेवा करने की आवश्यकता मैडम टेरेसा को पड़ी। युवा टेरेसा के मदर टेरेसा और और फिर संत टेरेसा बनने के कहानी के बीज भी उस अल्साई सी दुपहरी में बोए गए थे जिसकी चर्चा हमने शुरू में की। मेरा विश्वास है कि अब आप यह भी समझ गए होंगे कि पूरे  भारत में बंगाल पर ही वामपन्थ का प्रभाव सर्वाधिक क्यों पड़ा ? गरीब किसानों और शोषित मजदूरों की अस्थियों से बनी खाद पर वामपन्थ की फसल सबसे अच्छी उगती है।


गणित का एक सिद्धांत है जिसे बटर फ़्लाई प्रभाव कहते हैं। यह कहता है कि विश्व के एक कोने में एक तितली के फड़फड़ाने से विश्व के दूसरी तरफ तूफान आ जाता है। भारत और विश्व में आए साम्राज्यवाद की उस सुनामी की जड़ें उस पानी के पतीले में उबलते पानी से सींची गई थी। हर घटना महत्वपूर्ण है और हर घटना का एक कारण है। अगर आप कारण समझते हैं  तो दुनिया को समझना कतिपय सरल हो जाता है।

Saturday, December 7, 2019

आक्रोश का नियंत्रण

भारत विविधतापूर्ण संस्कृति है। यहां की मिट्टी में बुद्ध आए तो अंगुलिमाल भी। पृथ्वीराज हमारे अपने हैं तो जयचंद भी पराया नहीं था। भगवान राम को अगर कौशल्या ने गोद उठाया होगा तो संभव है कि मंथरा ने  भी एक बार ही सही उन्हें लाड़ जरूर किया होगा। इसीलिए भारतीय घटनाओं और पात्रों का मूल्यांकन करते वक़्त इसका ध्यान अवश्य रखें कि मात्रा के परिमाण में विसरण काफी ज्यादा हो सकता है । अपने विचार को रखते वक़्त माध्यमिक प्रवृति और विसरण दोनों के परिमाणों को तौल कर देखें। हैदराबाद की घटना के बाद आपका मूल्यांकन कोई आवश्यक नहीं कि आपके मित्रजनों से मेल खाता हो। कल  अगर घटना से जुड़े नए तथ्य प्रकाश में आ जायें तो अपने विचारों में उनको समाहित करने की जगह बचा कर रखें। इससे ही विचारों में संतुलन और नियंत्रण आता है।
 
हैदराबाद में आरोपियों का एनकाउंटर होना उचित नहीं था पर इसका अर्थ यह नहीं है कि आप आरोपियों को सीधे राजगुरु सुखदेव और भगत सिंह बना कर घटना को देखें। हमारी पुलिस की कार्यशैली में हजारों कमियां हो सकती हैं लेकिन उन्हें जनरल डायर घोषित करने से पहले एक पल का चिंतन आवश्यक है। बलात्कार की भर्त्सना जरूर करें, जम कर करें लेकिन आवेश में आकर पूरे भारत को रेपीस्तान कहना भी उचित नहीं है। समाज में कमियां हैं, उनको दूर करने के लिए जनभागीदारी और सर्ववर्ग का सहयोग लगेगा। हमने सती प्रथा को समाप्त किया है लेकिन उसके लिए राजा राम मोहन राय ने कभी भारतीय समाज को नारी हंता नहीं कहा। अस्पृशयता को हमने जीत लिया है, लेकिन उसके लिए ब्राह्मणों और सामंती प्रतिनिधियों का एनकाउंटर नहीं किया। शनै शनै और नियंत्रित जन आंदोलन ही दीर्घकालिक  और स्थायित्व पूर्ण समाधान दे सकता है। 

हमने इतिहास में पढ़ा है कि मानव की आग की खोज की और मानव विकास का चक्र वहीं से प्रारंभ हुआ। सच कहें तो हमने आग की खोज नहीं की। आग तो प्रकृति में हमेशा से थी। मानव ने खोज की थी सिर्फ उसको नियंत्रण करने की कला का। आग की खोज वस्तुतः उसके नियंत्रण की खोज थी।  नियंत्रित आग ही मानव के विकास का आधार बना। जन आक्रोश भी अग्नि की तरह है। उसकी उपयोगिता तब तक ही है जब तक वह नियंत्रित रहे। 

सबको यह बात समझाना संभव भले ही ना हो, हम स्वयं को तो यह अवश्य समझा सकते हैं। बस आगे अपने आक्रोश को चाहे वह समाज की तरफ हो, या व्यवस्था की तरफ या फिर आपराधिक तत्वों की तरफ, उसके उद्घाटन से पहले सुनिश्चित कर लें कि आपने आक्रोश की अग्नि  को नियंत्रित करने का प्रबंध कर रखा है। आप कार चलाना नहीं सीखते, आप कार को रोकना सीखते हैं। कार की गति का रोमांच तब तक ही है जब तक आपको यह पता है कि कार आपके रोकने से इच्छानुसार रुक जाएगी। अगर नहीं तो
 आपकी   गति की मंजिल अस्पताल या शमशान है, आपका इच्छित गंतव्य नहीं। 

अपने विचारों की अग्नि को नियंत्रण में रखें। जिस प्रकार बिना कार को पूरी तरह नियंत्रण में रखने की कला सीखे बगैर आप वाहन लेकर नेशनल हाईवे पर नहीं निकलते, बिना अपने आक्रोश को नियंत्रित किये, उनका प्रचार क्यूं करने लगते हैं।