Saturday, November 15, 2025

लोकतन्त्र के महापर्व का विमर्श

भारतीय लोकतंत्र में चुनावों को प्रायः “महापर्व” कहा जाता है। पर्व का सामान्य अर्थ है उत्सव । अतः चुनावों को महापर्व की उपमा देने की प्रक्रिया सतही दृष्टि से केवल चुनावी उत्साह, जनभागीदारी और राजनीतिक गतिविधियों की चहल-पहल का संकेत प्रतीत हो सकती है; किंतु गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि “महापर्व” शब्द की वास्तविक व्यंजना उत्सव से कहीं अधिक व्यापक है। भारतीय परंपरा में पर्व केवल आनंद या अनुष्ठान का समय नहीं, बल्कि किसी कथा, किसी विचार या किसी व्यवस्था के विकास का महत्वपूर्ण अध्याय भी माना जाता है। महाभारत महाकाव्य के अठारह अध्यायों को अठारह पर्व कहा गया है, यथा भीष्म पर्व, शान्ति पर्व, आदि पर्व और स्वर्गारोहण पर्व। प्रत्येक पर्व कहानी को नई दिशा देता है, नए पात्र प्रस्तुत करता है और पुराने घटनाचक्रों का पटाक्षेप करता है। इसी दृष्टि से देखें तो भारतीय लोकतंत्र के प्रत्येक चुनाव को “महापर्व” कहना अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है।

चुनाव लोकतंत्र का मात्र तकनीकी पक्ष नहीं, बल्कि उसका आत्मा-भाग है। प्रत्येक चुनाव देश की सामूहिक चेतना के नए विचारों, नई आकांक्षाओं और नए विमर्शों को सामने लाता है। किसी पर्व में आर्थिक सुधार जनमत का केंद्र बनता है, तो कभी सामाजिक न्याय, कभी पारदर्शिता और लोक व्यवहार में शुचिता जनता के चिंतन के मध्य में विराजमान होता है तो कभी सुरक्षा तो कभी क्षेत्रीय पहचान। सामान्य और बोलचाल की भाषा में कहें तो हर चुनाव का अपना एजेंडा या नैरेटिव होता है। इसलिए हर चुनाव भारतीय जनतंत्र के इतिहास में एक नए अध्याय का उद्घाटन करता है। यह अध्याय न केवल सरकार के गठन से संबंधित होता है, बल्कि यह भविष्य की नीति-रेखाओं और शासन के चरित्र को भी निर्धारित करता है। जिस प्रकार महाभारत का प्रत्येक पर्व आगे की कथा का स्वर निर्धारित करता है, वैसे ही भारतीय चुनाव आगे के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मार्ग का निर्धारक बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, चुनाव नए राजनीतिक पात्रों के उद्भव का मंच भी है। कोई युवा नेतृत्व पहली बार राष्ट्रीय पहचान प्राप्त करता है, कोई क्षेत्रीय शक्ति राजनीतिक विमर्श को व्यापक आकार देती है, और कोई नई विचारधारा जनमानस में अपनी जगह बनाती है। इसी प्रक्रिया में कुछ पुराने पात्र धीरे-धीरे राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होते जाते हैं। इस प्रकार चुनाव जनतंत्र में पात्र-परिवर्तन की स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। यह परिवर्तन लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखता है, उसे स्थिरता और गतिशीलता दोनों का संतुलन प्रदान करता है।

चुनाव सामाजिक और राजनीतिक मानदंडों का भी पुनर्सृजन करते हैं। प्रत्येक चुनाव में यह स्पष्ट होता है कि जनता किन मूल्यों को महत्वपूर्ण मानती है—समानता, विकास, सुरक्षा, पहचान, या अवसर-सृजन। यह प्राथमिकता समय के साथ बदलती रहती है, और इसके साथ ही बदलते हैं नीतिगत निर्णय, चुनावी भाष्य और शासन का दृष्टिकोण। इस परिवर्तनशीलता में ही लोकतंत्र की शक्ति निहित है। इसलिए हर चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मनोवृत्ति का सूचक भी होता है।

अंततः, चुनाव लोकतंत्र के भविष्य की दिशा निर्धारित करते हैं। वे इस बात का निर्णय करते हैं कि देश किस प्रकार की आर्थिक नीति अपनाएगा, किन सामाजिक मूल्यों को प्राथमिकता देगा, विश्व मंच पर अपनी भूमिका कैसे परिभाषित करेगा, और जन-संस्थाएँ किस रूप में आगे बढ़ेंगी। अपने प्रभाव में चुनाव केवल दिन या सप्ताह की घटना नहीं हैं; वे वर्षों तक चलने वाली राष्ट्रीय यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस दृष्टि से वे वास्तव में भविष्य-सृजन के पर्व हैं।

इन सभी आयामों को समेटते हुए कहा जा सकता है कि चुनावों को “महापर्व” कहने की भारतीय परंपरा अत्यंत उपयुक्त और गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है। यहाँ पर्व का अर्थ केवल उत्सव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सतत चलने वाली कथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है—एक ऐसा अध्याय जो देश की दिशा, दशा और संवेदना को बदल सकता है।

इस प्रकार, भारतीय लोकतंत्र का प्रत्येक चुनाव न केवल मतदान का अवसर है, बल्कि एक नये युग का आरंभ, एक नए विमर्श का उद्घाटन और राष्ट्र-निर्माण की दीर्घकालिक प्रक्रिया का सशक्त चरण है। वास्तव में, चुनाव भारतीय जनतंत्र का वह महापर्व है जिसमें जनता स्वयं अपने भविष्य का लेखन करती है।

No comments: