मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ शासन प्रणालियों का स्वरूप भी बदलता रहा है। कभी राजतंत्र था, जहाँ सत्ता राजा के हाथों में केंद्रित रहती थी; कभी अभिजाततंत्र और निरंकुशतंत्र, जहाँ कुछ गिने-चुने वर्ग जनता पर शासन करते थे। इन व्यवस्थाओं ने कभी-कभी त्वरित निर्णय और तीव्र विकास की दिशा तो दी, परंतु जनता से दूरी और सत्ता के दुरुपयोग ने अंततः उन्हें अस्थिर बना दिया। इतिहास का अनुभव बताता है कि जब भी शक्ति और सत्ता का स्थायी हस्तांतरण हुआ, वहाँ अन्याय और शोषण ने जड़ें जमा लीं।
लोकतंत्र इन सभी व्यवस्थाओं से भिन्न और श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह शक्ति और सत्ता को सशर्त, सीमित और अस्थायी रूप से सौंपता है। यह मान्यता कि “सत्ता जनता से आती है” ही लोकतंत्र की आत्मा है। यही कारण है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह व्यवस्था आज भी सबसे उपयुक्त सिद्ध हो रही है। लोकतंत्र में सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यवस्था सर्वोपरि होती है। यहाँ शासन करने का अधिकार किसी व्यक्ति या वंश की स्थायी संपत्ति नहीं, बल्कि जनता द्वारा दिया गया अस्थायी दायित्व होता है।
“जनता जनार्दन” — यह केवल एक कहावत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की दार्शनिक नींव है। जनता ही वह शक्ति है जो सत्ता को जन्म देती है, उसे नियंत्रित करती है, और आवश्यकता पड़ने पर बदल भी देती है। यही परिवर्तनशीलता लोकतंत्र को जीवंत और आत्मसुधारक बनाती है। अन्य व्यवस्थाएँ जहाँ स्थायित्व के नाम पर जड़ता और तानाशाही को जन्म देती हैं, वहीं लोकतंत्र अपनी लचक और जवाबदेही के कारण निरंतर प्रगतिशील रहता है।
लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह सत्ता और सत्ताधारी दोनों को अस्थायी रखता है। यह अस्थायित्व ही जनता के स्थायी कल्याण की गारंटी है। जब किसी शासक को यह ज्ञात होता है कि उसे समय पर जनता के समक्ष जवाब देना है, तो वह जनता के हित में कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इसके विपरीत जहाँ सत्ता स्थायी होती है, वहाँ जवाबदेही समाप्त हो जाती है और शक्ति का दुरुपयोग अनिवार्य रूप से बढ़ जाता है। हमने पौराणिक कहानियों में पढ़ा है कि भगवान जब भी किसी को आशीर्वाद या वरदान देते थे तो कोई न कोई शर्त रख कर ही देते थे जिससे कि वह वरदान नियमों के उल्लंघन के बाद निष्प्रभावी हो जाता था। जनता भी जनार्दन की तरह अपना वरदान शर्तों से आधीन कर ही देती है, इसीलिए जनता जनार्दन कहलाती है । बिना शर्तों के दिया गया वरदान हिरण्यकश्यप और भस्मासुर ही पैदा करती है। लोकतंत्र में जनता जनार्दन हमेशा इसका ध्यान रखती है कि उसका वरदान किसी भस्मासुर को उत्पन्न न कर दे।
समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, और इसी परिवर्तनशीलता के साथ समाज को भी नये नेतृत्व, नयी नीतियों और नयी दृष्टि की आवश्यकता होती है। लोकतंत्र इस सतत परिवर्तन की प्रक्रिया को सहज बनाता है। यह जनता को अवसर देता है कि वह अपने समय, देश और काल के अनुरूप नेतृत्व का चयन करे। व्यक्ति चाहे वही रहे, उसकी सोच को समय के अनुसार बदलना ही पड़ता है — यही लोकतंत्र का आत्म-संशोधन तंत्र है।
अंततः यही सत्य है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक व्यवस्था नहीं, बल्कि शक्ति के संतुलन की एक सतत प्रक्रिया है। यह व्यवस्था हमें यह सिखाती है कि सत्ता को कभी भी स्थायी नहीं होना चाहिए — क्योंकि जहाँ शक्ति स्थायी होती है, वहीं से उसके दुरुपयोग की शुरुआत होती है।
इतिहास गवाह है कि जब शक्ति सीमाहीन हो जाती है, तो वह मानवता को ग्रस लेती है। यही कारण है कि लोकतंत्र सत्ता को सीमित और सशर्त रखकर समाज को सुरक्षित बनाता है। इस संदर्भ में यह कहावत अत्यंत सार्थक प्रतीत होती है —
“Power is poison.”
शक्ति जब जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो वह विष बन जाती है — जो अंततः शासन, समाज और नैतिकता — तीनों को क्षीण कर देती है।
लोकतंत्र इस विष को औषधि में बदल देता है, क्योंकि इसमें शक्ति का विष हर चुनाव में, हर जनमत में, जनता के विवेक से निरंतर निष्क्रिय किया जाता है।
यही लोकतंत्र की अमर विशेषता है —
सत्ता अस्थायी है, पर “जनता जनार्दन” शाश्वत है।
रश्मिरथी में जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि
"सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।"
संभवतः वे लोकतंत्र में जनता की ही बात करते हैं जहां शक्ति और सत्ता का अंतिम स्रोत जनता जनार्दन ही है।
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