Wednesday, November 26, 2025

प्राकृतिक या कृत्रिम

काफ़ी लोग अभिनेता धर्मेंद्र के निधन से दुखी हैं । उनपर दुखों का दूसरा पहाड़ तब टूट पड़ा जब भारत दक्षिण अफ़्रीका से घर पर टेस्ट सीरीज़ हार गई । धर्मेंद्र को ही मैन कहा जाता है जो एक काल्पनिक चरित्र है । किसी कल्पना शील व्यक्ति ने अपनी कल्पना से ही मैन को गढ़ा । धर्मेंद्र में फ़िल्मों में काम करते थे , फिल्में जो कई कल्पनाशील व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास के बाद ही बनती हैं । तो कुछ लोगों बी कल्पित चलचित्र में धर्मेंद्र को देख कर उनमें ही मैन की छवि देखी और उनको ही मैन कहने लगे । 

इससे ऊपर चलिए । कुछ पीढ़ियों की सामूहिक कल्पना शीलता का परिणाम है क्रिकेट का खेल । यह प्रकृति प्रदत्त नहीं है हमारी शारीरिक विशेषताओं जैसे आँख कान नाक की तरह । हमने इस खेल को बनाया है । उसी तरह देशों की अवधारणा भी बिल्कुल मानव की रचना शीलता पर आधारित है । प्रकृति को कोई अन्य जीव देशों साम्राज्यों आदि की सीमाओं को नहीं जानते और नहीं मानते । यही चीज़ें धर्म , प्रेम , ईश्वर , जाति आदि के लिए भी सच है । सारे वाद , सारे विवाद ,सारी विचारधाराये और इनसे जनित सारे संघर्ष और समस्याएं भी इसी में शामिल हैं । मानव ने अपने आप को इन कल्पित संकल्पनाओं के आधार पर संगठित किया है , इन्ही आधारों पर वह अपनी खुशियाँ ढूँढता है जैसे जितने भी त्योहार हैं , मानव द्वारा कल्पित हैं , चाहे होली हो या क्रिसमस । इन्ही आधारों पर मानव दुखी होने का कारण ढूँढ लेता है । जैसे कि क्रिकेट में हार पर फैन उदास हो जाते हैं और जीत पर प्रसन्न हो जाते हैं । दोनों का आधार कल्पित और कृत्रिम है । संसार का कोई भी जीव ऐसे कारणों से ना उदास होता है और ना हर्षित । हमारी कल्पना ही है जो निर्जीव चंद्रमा में अपने महबूब को और सुदूर तारों में अपने मृत पूर्वजों को खोज लेता है । 
यह कल्पना शीलता ही मानव सभ्यता का आधार है जो ख़ुद की बनायी चीज़ों को उनके मूल रूप से अलग रूप में देख कर अपने जीवन को अलग अलग रूप से कभी धनात्मक और कभी ऋणात्मक रूप से प्रभावित करता है । 

थोड़ा विचार करके देखिए तो यह सारा मायाजाल हमारे दिमाग़ की उपज है । आप इन संकल्पनाओं को माने या ना माने आपकी प्राकृतिक संरचना में कोई बदलाव नहीं आने वाला । 

आप आप चाहें तो भारतीय अभिनेता के जाने और भारत के क्रिकेट श्रृंखला की पराजय का दुख महसूस कर सकते हैं या विचार कर सकते हैं कि यह दुख महसूस करना या ना करना आपकी चॉइस हैं कोई प्रकृति सिद्ध नियम नहीं । प्रकृति की नज़र में हम सिर्फ़ एक प्राणी हैं जिसके नियम सिर्फ़ हमारी क्षुधा , निद्रा और मैथुन और मृत्यु तक सीमित हैं । बाक़ी आपकी भावनाएँ सब कृत्रिम हैं बनावटी हैं मानव जनित हैं और सिर्फ़ आप पर निर्भर करती हैं कि यह कृत्रिम संसार आप पर वास्तविक प्रभाव डाल सकता है या नहीं । 

Saturday, November 15, 2025

लोकतन्त्र के महापर्व का विमर्श

भारतीय लोकतंत्र में चुनावों को प्रायः “महापर्व” कहा जाता है। पर्व का सामान्य अर्थ है उत्सव । अतः चुनावों को महापर्व की उपमा देने की प्रक्रिया सतही दृष्टि से केवल चुनावी उत्साह, जनभागीदारी और राजनीतिक गतिविधियों की चहल-पहल का संकेत प्रतीत हो सकती है; किंतु गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि “महापर्व” शब्द की वास्तविक व्यंजना उत्सव से कहीं अधिक व्यापक है। भारतीय परंपरा में पर्व केवल आनंद या अनुष्ठान का समय नहीं, बल्कि किसी कथा, किसी विचार या किसी व्यवस्था के विकास का महत्वपूर्ण अध्याय भी माना जाता है। महाभारत महाकाव्य के अठारह अध्यायों को अठारह पर्व कहा गया है, यथा भीष्म पर्व, शान्ति पर्व, आदि पर्व और स्वर्गारोहण पर्व। प्रत्येक पर्व कहानी को नई दिशा देता है, नए पात्र प्रस्तुत करता है और पुराने घटनाचक्रों का पटाक्षेप करता है। इसी दृष्टि से देखें तो भारतीय लोकतंत्र के प्रत्येक चुनाव को “महापर्व” कहना अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है।

चुनाव लोकतंत्र का मात्र तकनीकी पक्ष नहीं, बल्कि उसका आत्मा-भाग है। प्रत्येक चुनाव देश की सामूहिक चेतना के नए विचारों, नई आकांक्षाओं और नए विमर्शों को सामने लाता है। किसी पर्व में आर्थिक सुधार जनमत का केंद्र बनता है, तो कभी सामाजिक न्याय, कभी पारदर्शिता और लोक व्यवहार में शुचिता जनता के चिंतन के मध्य में विराजमान होता है तो कभी सुरक्षा तो कभी क्षेत्रीय पहचान। सामान्य और बोलचाल की भाषा में कहें तो हर चुनाव का अपना एजेंडा या नैरेटिव होता है। इसलिए हर चुनाव भारतीय जनतंत्र के इतिहास में एक नए अध्याय का उद्घाटन करता है। यह अध्याय न केवल सरकार के गठन से संबंधित होता है, बल्कि यह भविष्य की नीति-रेखाओं और शासन के चरित्र को भी निर्धारित करता है। जिस प्रकार महाभारत का प्रत्येक पर्व आगे की कथा का स्वर निर्धारित करता है, वैसे ही भारतीय चुनाव आगे के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मार्ग का निर्धारक बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, चुनाव नए राजनीतिक पात्रों के उद्भव का मंच भी है। कोई युवा नेतृत्व पहली बार राष्ट्रीय पहचान प्राप्त करता है, कोई क्षेत्रीय शक्ति राजनीतिक विमर्श को व्यापक आकार देती है, और कोई नई विचारधारा जनमानस में अपनी जगह बनाती है। इसी प्रक्रिया में कुछ पुराने पात्र धीरे-धीरे राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होते जाते हैं। इस प्रकार चुनाव जनतंत्र में पात्र-परिवर्तन की स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। यह परिवर्तन लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखता है, उसे स्थिरता और गतिशीलता दोनों का संतुलन प्रदान करता है।

चुनाव सामाजिक और राजनीतिक मानदंडों का भी पुनर्सृजन करते हैं। प्रत्येक चुनाव में यह स्पष्ट होता है कि जनता किन मूल्यों को महत्वपूर्ण मानती है—समानता, विकास, सुरक्षा, पहचान, या अवसर-सृजन। यह प्राथमिकता समय के साथ बदलती रहती है, और इसके साथ ही बदलते हैं नीतिगत निर्णय, चुनावी भाष्य और शासन का दृष्टिकोण। इस परिवर्तनशीलता में ही लोकतंत्र की शक्ति निहित है। इसलिए हर चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मनोवृत्ति का सूचक भी होता है।

अंततः, चुनाव लोकतंत्र के भविष्य की दिशा निर्धारित करते हैं। वे इस बात का निर्णय करते हैं कि देश किस प्रकार की आर्थिक नीति अपनाएगा, किन सामाजिक मूल्यों को प्राथमिकता देगा, विश्व मंच पर अपनी भूमिका कैसे परिभाषित करेगा, और जन-संस्थाएँ किस रूप में आगे बढ़ेंगी। अपने प्रभाव में चुनाव केवल दिन या सप्ताह की घटना नहीं हैं; वे वर्षों तक चलने वाली राष्ट्रीय यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस दृष्टि से वे वास्तव में भविष्य-सृजन के पर्व हैं।

इन सभी आयामों को समेटते हुए कहा जा सकता है कि चुनावों को “महापर्व” कहने की भारतीय परंपरा अत्यंत उपयुक्त और गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है। यहाँ पर्व का अर्थ केवल उत्सव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सतत चलने वाली कथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है—एक ऐसा अध्याय जो देश की दिशा, दशा और संवेदना को बदल सकता है।

इस प्रकार, भारतीय लोकतंत्र का प्रत्येक चुनाव न केवल मतदान का अवसर है, बल्कि एक नये युग का आरंभ, एक नए विमर्श का उद्घाटन और राष्ट्र-निर्माण की दीर्घकालिक प्रक्रिया का सशक्त चरण है। वास्तव में, चुनाव भारतीय जनतंत्र का वह महापर्व है जिसमें जनता स्वयं अपने भविष्य का लेखन करती है।

Wednesday, November 12, 2025

जनता जनार्दन और शक्ति का अस्थाई हस्तांतरण

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ शासन प्रणालियों का स्वरूप भी बदलता रहा है। कभी राजतंत्र था, जहाँ सत्ता राजा के हाथों में केंद्रित रहती थी; कभी अभिजाततंत्र और निरंकुशतंत्र, जहाँ कुछ गिने-चुने वर्ग जनता पर शासन करते थे। इन व्यवस्थाओं ने कभी-कभी त्वरित निर्णय और तीव्र विकास की दिशा तो दी, परंतु जनता से दूरी और सत्ता के दुरुपयोग ने अंततः उन्हें अस्थिर बना दिया। इतिहास का अनुभव बताता है कि जब भी शक्ति और सत्ता का स्थायी हस्तांतरण हुआ, वहाँ अन्याय और शोषण ने जड़ें जमा लीं।

लोकतंत्र इन सभी व्यवस्थाओं से भिन्न और श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह शक्ति और सत्ता को सशर्त, सीमित और अस्थायी रूप से सौंपता है। यह मान्यता कि “सत्ता जनता से आती है” ही लोकतंत्र की आत्मा है। यही कारण है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह व्यवस्था आज भी सबसे उपयुक्त सिद्ध हो रही है। लोकतंत्र में सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यवस्था सर्वोपरि होती है। यहाँ शासन करने का अधिकार किसी व्यक्ति या वंश की स्थायी संपत्ति नहीं, बल्कि जनता द्वारा दिया गया अस्थायी दायित्व होता है।

“जनता जनार्दन” — यह केवल एक कहावत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की दार्शनिक नींव है। जनता ही वह शक्ति है जो सत्ता को जन्म देती है, उसे नियंत्रित करती है, और आवश्यकता पड़ने पर बदल भी देती है। यही परिवर्तनशीलता लोकतंत्र को जीवंत और आत्मसुधारक बनाती है। अन्य व्यवस्थाएँ जहाँ स्थायित्व के नाम पर जड़ता और तानाशाही को जन्म देती हैं, वहीं लोकतंत्र अपनी लचक और जवाबदेही के कारण निरंतर प्रगतिशील रहता है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह सत्ता और सत्ताधारी दोनों को अस्थायी रखता है। यह अस्थायित्व ही जनता के स्थायी कल्याण की गारंटी है। जब किसी शासक को यह ज्ञात होता है कि उसे समय पर जनता के समक्ष जवाब देना है, तो वह जनता के हित में कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इसके विपरीत जहाँ सत्ता स्थायी होती है, वहाँ जवाबदेही समाप्त हो जाती है और शक्ति का दुरुपयोग अनिवार्य रूप से बढ़ जाता है। हमने पौराणिक कहानियों में पढ़ा है कि भगवान जब भी किसी को आशीर्वाद या वरदान देते थे तो कोई न कोई शर्त रख कर ही देते थे जिससे कि वह वरदान नियमों के उल्लंघन के बाद निष्प्रभावी हो जाता था। जनता भी जनार्दन की तरह अपना वरदान शर्तों से आधीन कर ही देती है, इसीलिए जनता जनार्दन कहलाती है । बिना शर्तों के दिया गया वरदान हिरण्यकश्यप और भस्मासुर ही पैदा करती है। लोकतंत्र में जनता जनार्दन हमेशा इसका ध्यान रखती है कि उसका वरदान किसी भस्मासुर को उत्पन्न न कर दे। 

समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, और इसी परिवर्तनशीलता के साथ समाज को भी नये नेतृत्व, नयी नीतियों और नयी दृष्टि की आवश्यकता होती है। लोकतंत्र इस सतत परिवर्तन की प्रक्रिया को सहज बनाता है। यह जनता को अवसर देता है कि वह अपने समय, देश और काल के अनुरूप नेतृत्व का चयन करे। व्यक्ति चाहे वही रहे, उसकी सोच को समय के अनुसार बदलना ही पड़ता है — यही लोकतंत्र का आत्म-संशोधन तंत्र है।

अंततः यही सत्य है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक व्यवस्था नहीं, बल्कि शक्ति के संतुलन की एक सतत प्रक्रिया है। यह व्यवस्था हमें यह सिखाती है कि सत्ता को कभी भी स्थायी नहीं होना चाहिए — क्योंकि जहाँ शक्ति स्थायी होती है, वहीं से उसके दुरुपयोग की शुरुआत होती है।

इतिहास गवाह है कि जब शक्ति सीमाहीन हो जाती है, तो वह मानवता को ग्रस लेती है। यही कारण है कि लोकतंत्र सत्ता को सीमित और सशर्त रखकर समाज को सुरक्षित बनाता है। इस संदर्भ में यह कहावत अत्यंत सार्थक प्रतीत होती है —

“Power is poison.”

शक्ति जब जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो वह विष बन जाती है — जो अंततः शासन, समाज और नैतिकता — तीनों को क्षीण कर देती है।
लोकतंत्र इस विष को औषधि में बदल देता है, क्योंकि इसमें शक्ति का विष हर चुनाव में, हर जनमत में, जनता के विवेक से निरंतर निष्क्रिय किया जाता है।

यही लोकतंत्र की अमर विशेषता है —
सत्ता अस्थायी है, पर “जनता जनार्दन” शाश्वत है।

 रश्मिरथी में जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि 
"सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।"
संभवतः वे लोकतंत्र में जनता की ही बात करते हैं जहां शक्ति और सत्ता का अंतिम स्रोत जनता जनार्दन ही है। 

Wednesday, November 5, 2025

दुःख का चरित्र

दुःख युधिष्ठिर के कुत्ते के समान है — जहाँ भी जाओ, यह पीछे-पीछे चलता है, पीछा नहीं छोड़ता। स्वर्ग देखा तो नहीं, पर वहां भी दुःख विद्यमान है। अगर दुःख वहां न होता तो इंद्रराज हर बात पर यूं विचलित न होते।


भाई, बंधु, सखा, हितैषी — सब साथ छोड़ दें, लेकिन दुःख सदा साथ रहता है।
यह आपके जूतों में छिपे उस कंकड़ की तरह है — अपने जूते में हो तो जान निकाल दे, पर किसी और के जूते में हो तो दिखाई भी नहीं देता।
अपना दुःख दिल-दिमाग में बस जाने वाला वह बिना किराया चुकाए रहने वाला ज़िद्दी किरायेदार है, जिसे जितना भी कहो, मकान खाली नहीं करता।


दुःख वह पाठ है जो चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ समय के लिए स्मृति से उतर भी जाए, तो भी आस-पास कहीं छिपा रहता है, और अवसर मिलते ही फिर से सामने आ खड़ा होता है। दुःख वह सूदखोर महाजन है, जिसकी किश्तें हर हाल में चुकानी ही पड़ती हैं — चाहे जैसा भी समय हो।

दुःख जीवन की सामान्य अवस्था है —
जीवन यात्रा का वह सराय है जहाँ से हर सफर शुरू होता है और जहाँ हर सफर का अंत भी होता है। बचपन में खिलौने टूटने का दुःख है, जवानी में सपनों के टूटने का दुःख सालता है तो बुढ़ापा रिश्तों, स्वास्थ्य, उम्मीदें और शरीर गंवाने का दुख लेकर आता है।
हर रिश्ते की डोर का पहला और आख़िरी छोर भी दुःख ही है। दुख ऐसा है कि सर्वव्यापी है, वर्तमान का दुख तो दुःख देता ही है, भूतकाल का दुःख याद करने पर दुःख देता है, और आने वाले दुःख की चिंता दुःख का कारण बनती है।

 
दुःख वो बेताल है जो आपकी पीठ पर बैठा रहता है, आपको डराता है, आपसे तरह तरह के सवाल पूछा करता है। और दुखों को जवाब देकर भी क्या फायदा। उसे न सही उत्तर में कोई दिलचस्पी है और न गलत उत्तरों की कोई जिज्ञासा। आपकी पीठ पर बैठा बेताल रूपी दुःख आपसे कुछ दूर दूर भी जाने लगे तो आपके अंदर का विक्रम उसके पीछे दौड़ कर खुद पकड़ लेता है।


दुःख जीवन का ध्रुव तारा है, उसे देख कर ही जीवन निरंतर आगे बढ़ता रहता है। सभी सुख प्राप्त हो जाने पर आगे का सफर तय करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी।

दुःख का एक दूर का सौतेला भाई है — सुख।
दोनों में कभी बनती नहीं।


सुख का स्वरूप दुख से भले अलग प्रतीत हो , वास्तव में  अलग नहीं है। अन्यथा दूसरों का सुख देख कर मनुष्य दुखी क्यों होता और सुख भोगता मनुष्य भी संभावित दुःख को विचार कर दुःखी क्यों होता।
ज्यादा सुख पा रहा व्यक्ति अपने से कम सुख में रह रहे व्यक्ति को दुखी क्यों मानता। और पहले से सुखी व्यक्ति दूसरे का अधिक सुख देख कर दुःखी क्यों हो जाता।

सुख और दुःख जीवन की चाकी के दो पाट हैं —
दुःख नीचे वाला पाट है, जो स्थिर रहता है,
और सुख ऊपर वाला — जो कभी चलता है, कभी ठहर जाता है।
पर दुःख वाला पाट हमेशा वहीं रहता है,
अडिग, अचल, सदा साथ।

और जो जीवन में अटल है, अचल है, उसका दुःख कैसा??