नव ओस से भीगी, स्वप्नों से सजी।
यह रात्रि गंध से भरपूर है,
जैसे किसी कमल पर चाँदनी उतर आई हो।
हर तारा कोई अव्यक्त स्वप्न है, दूर से टिमटिमाता सा
अपनी ओर बुलाता सा।
हवा का हर झोंका है
मानो किसी अदृश्य आलिंगन का निमंत्रण।
मन में लहरें हैं — जो शब्द नहीं जानतीं,
केवल गुनगुनाती हैं,
“मैं हूँ, मैं चाहती हूँ, मैं जीना चाहती हूँ…”
यौवन की यह रात है चपल
स्पंदित तरंगित विचलित
थिरकती है —जैसे कृष्ण बांसुरी की धुन पर झूमती गोपियां।
इसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं,
पर अनुभूति की दीप्ति है।
यह रात्रि प्रेम की है, संगीत की है,
मृगतृष्णा की भी है —
पर मृगतृष्णा भी तो एक सौंदर्य ही है।
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फिर पूरब में अरुणिमा जागती है।
रात्रि की कोमल छाँवें सिमट जाती हैं,
और यथार्थ का सूर्य सिर पर आता है।
अब सपने धरती मांगते हैं,
अब भावना श्रम बनती है।
माँग में सिंदूर नहीं, पसीना भरता है।
प्रेम अब शबनम की नाजुक बूंद नहीं,
खेत की मिट्टी की नमी बन जाता है।
दिन में आँखें खुली रहती हैं,
पर दृष्टि थकी हुई।
अब चाँदनी की शीतलता नहीं,
प्रकाश की तीव्रता है —
जो सुंदर नहीं,
पर आवश्यक है।
यह मध्यवय है —
जहाँ आत्मा तपती है,
शरीर पर हावी होने लगती है जरा
निश्छल चेहरे पर आ जाती हैं
लकीरें निशान और भर चुके घाव के निशान
मानों गुजरते वक्त के छोड़ दिए हों अपने हस्ताक्षर
पर भीतर कहीं रात्रि की कोमल याद
अब भी ठहरी रहती है।
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धीरे-धीरे दिन ढलता है।
धूप की तीखी रेखाएँ नरम पड़ती हैं।
क्षितिज पर जब सूर्य थककर बैठता है,
तो लगता है — जीवन ने एक लंबा अध्याय पूरा किया।
अब मन में कोई अधूरी चाह नहीं,
केवल स्मृतियों की मृदुल गूँज है।
अब आँखों में तारे नहीं,
पर उन तारों की याद है
जिन्होंने कभी यौवन की रात में साथ दिया था।
सांझ की हवा में एक शांति है —
जैसे कोई दीया अपने अंतिम क्षण में
सबसे उजली लौ बन जाए।
यह सांझ यौवन की वापसी नहीं,
उसकी परिपूर्णता है।
यौवन ने जो स्वप्न देखा,
दिन ने जो कर्म से पूरा किया,
सांझ उसी का सार है —
एक गहरी तृप्ति,
एक मौन प्रकाश।
भोर की कोमल मुस्कान से लेकर
रात्रि की निस्तब्ध शांति तक —
जीवन एक ही दिन है।
हर अवस्था —
भोर, रात्रि, दिन, सांझ —
एक-दूसरे में विलीन।
जैसे लहरें समुद्र से निकलकर
फिर उसी में लौट जाती हैं।
यौवन की रात में आत्मा ने जो जाना,
सांझ में वही आत्मा उसे पहचानती है।
और तब समझ आता है —
जीवन बीता नहीं,
केवल संपूर्ण हुआ है।
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