किसी भी सभ्यता के विचारों के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार का यह चक्र अनवरत चलता रहे इसके लिए आवश्यक है कि लेखकों और कवियों की यह उर्वर धरती बनी रहे। उस उर्वर धरा की नमी भौतिक आवश्यकतों के ताप से सूख ना जाए। उस उर्वर भूमि पर बाजारवाद का मॉल ना खोल दिया जाय जहां गिरे बीज की जगह डस्टबिन होती है। ना ही उस उर्वर भूमि पर समाज की गंदगी गिरा गिरा कर उसे नाला बना दिया जाय कि जहां सिर्फ विषैले पादप उत्पन्न हों।
उस उर्वर भूमि को बचाने की जिम्मेदारी पूरे समाज की तो है ही, यह जिम्मेदारी व्यक्तिगत भी है। अपनी चेतना की समस्त भूमि पर भौतिकता की अट्टालिका खड़ी ना करें। कुछ उर्वर भूमि को बचा कर रखें बाह्य अतिक्रमण से। फिर देखिए आपके अंदर भी वो संवेदनशीलता की नमी रहेगी और आप भी विचारों के प्रसार की वो कड़ी बनेंगे जिसने पूरी मानवता की प्रगति जोड़ रखी है।
No comments:
Post a Comment