Tuesday, February 16, 2021

सुगंध का उत्सव वसंत पंचमी

भाषा अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसने मानव सभ्यता में एक दूसरे तक भावनाओं तक संप्रेषित कर इसकी एक दृढ़ नींव रखी है। भाषा की संप्रेषण शक्ति का ही परिणाम है कि हम भगवान कृष्ण द्वारा कहे गए भगवद्गीता के श्लोक का श्रवण कर पाते हैं, यह भाषा ही है जिसके जरिए सूर हमें यशोदा के वात्सल्य रस में हमें डुबाते हैं तो राधा के प्रेम का आस्वाद हम भी कर पाते हैं। 

पद्मावती का अप्रतिम सौंदर्य जायसी की भाषा हम तक पहुंचाती है तो कबीर के ज्ञान का भी हम तक पहुंचने का जरिया भी भाषा ही है। तेनाली का चातुर्य , होरी की विवशता, पंत की कविता का पहाड़ी सौंदर्य या महादेवी का चिर विरह , इस सबको अगर ऐसे महसूस कर पाते हैं मानो सब कुछ हमारे सामने, हमारे साथ घटित हो रहा है।

 भाषा की संप्रेषण शक्ति की तथापि एक बहुत बड़ी सीमा है। भाषा रूप, रंग, प्रेम ,ज्ञान , विज्ञान जाने कितने जीवन के पहलुओं को आपके सामने चित्रित कर सकती है लेकिन भाषा सुगंध का वर्णन नहीं कर सकती। 

अब वसंत पंचमी के उत्सव को ही लें। अगर मैं इसका एक वर्णन कर आपको बताना चाहूं कि बिहार के एक छोटे गुमनाम से गांव,जहां पहुंच कर शहरी लोगों को टाइम मशीन वाली भावना होगी कि शायद बीस साल पीछे आ गया, में वसंत पंचमी का उत्सव कैसे मनाया जाता है तो कैसे बताऊंगा। शायद आपको बता दूं कि गांव की सीमा के बाहर आम के बागानों में मंजर आ गए हैं,लेकिन मैं उस मंजर की खुशबू आप तक नहीं पहुंचा पाऊंगा। आपको नहीं पता चलेगा कि हर आम की गंध अलग होती है, एक ही आम की टिकोले से पक कर आम बनने के बीच अलग खुशबू होती है। भाषा आप तक आम का रंग रूप पहुंचा सकती है, उसकी खुशबू नहीं। 

वसंत पंचमी का हर वृतांत तब तक अधूरा है, जब तक उस वासंती हवा जिसके गुणगान में ' हवा हूं हवा हूं वसंती हवा हूं' लिखा गया, का पूर्ण अहसास आप ना कर पाएं। और बसंती का हवा की सुवास का वर्णन भाषा में संभव नहीं। अब वसंत के इस पावन अवसर पर जब प्रकृति भी एक अपने कौमार्य की ओर प्रथम पग बढ़ाती दिखती है, उस वसंत के मौसम में गांव के बच्चों का उत्साह जोड़ दें, तो छटा ही अलग हो जाती है। गांव के बच्चे जिनके लिए सरस्वती पूजा उनका अपना पर्व है जिस दिन वह स्कूल को सजाते हैं और पूरे गांव को आमंत्रित करते हैं। 


स्कूल के प्रांगण में प्रवेश करते ही क्यारियों में लगे लाल पीले गेंदा, क्रोटन, और मुर्गा फूल के सौंदर्य का शब्द चित्र आपको  सभी फूलों की सम्मिलित  खुशबू से अवगत नहीं करा सकता। बच्चों द्वारा बनाए गए आटे की गोंद और पतली सुतली पर बारी बारी से लाल हरे और बैंगनी रंग के रंगीन तिकोने कागज की झालर की अपनी अलग सुगंध होती है । उसके साथ लटकती नारियल की रस्सी और उसके पेंचों में फंसाए गए आम के पत्तों की हरी विरल सी झालर सजे मंच के पास जल रही अगरबत्ती, कर्पूर, घी और धूमन से सुवासित वायु को आप तक भाषा नहीं पहुंचा सकती।

 भाषा कैसे बताए कि गुलाबों की खुशबू से परे जौ की हरी झूमती बालियों और उसके पत्ते पर लगे सरसों के पीले पराग का एक सम्मिलित सौरभ होता है। वही खुशबू आप उन उत्साही छोटे बच्चों के दल में बिखरा पा सकते हैं क्योंकि मां सरस्वती की पुष्पांजलि के लिए सुबह सुबह उठकर यह बच्चे खेत में पहरेदार की नजर बचाकर तोड़ने गए थे। उनके पांवों में लगी कीचड़ बता देती है कि किस खेत की बालियां तोड़ी गई हैं, क्योंकि सबको पता है कि अभी किसने अपने खेत में पानी पटाया है। 

सारे बच्चे अपने अपने घर से अपनी मां की नई चमकीली साड़ी लाकर उससे मां शारदे का चमकीला इंद्रधनुषी घर बनाते हैं। आखिर साल में एक बार तो आती है मां शारदे और वह सबकी मां है, तो उसका घर भी उन सबकी मां की साड़ियों से मिल कर ही  बनता है। 

मा शारदे की पूजा का अवसर भले ही हो, मा लक्ष्मी की कृपा के बिना हर उत्सव फीका ही है। इसीलिए गांव के हर घर से मान मनुहार, जिद और गुस्सा हर भाव दिखा कर बच्चे चंदा जुटाते हैं। और उसी चंदे की राशि से प्रसाद आता है। बेर, मिश्रीकंद, गाजर, खीरे, अक्षत का एक प्रसाद अलग होता है जिसे पुरानी भर चुकी कापियों के पन्ने फाड़ फाड़ कर बनाए गए पुड़िया में दिया जाता है। एक दूसरी पुड़िया होती है जिसमें बूंदी की मिठाई दी जाती है। आजकल भले ही कुछ जगह प्लेट और गत्ते के बक्सों में प्रसाद दिया जाने लगा है लेकिन पुड़िया वाले प्रसाद का आनंद अलग ही है।

मां के दर्शन और प्रसाद पाने के बाद आप बगल के अस्थाई रसोई में बन रहे भोग की खिचड़ी और उसमें डाले गए गोभी और हरे मटर और आलू और देसी घी की छौंक की खुशबू से अपने आप को नहीं रोक सकते। आप कितना भी प्रयास कर लें,घर में बनी खिचड़ी में वह स्वाद वह सुगंध नहीं आती। यह शायद वसंत का ही कमाल है।

प्रकृति के क्रूर नियम के तहत जहां हर आदि का एक अंत तय है, इसीलिए सरस्वती पूजा का भी समापन तो होना ही है। यह समापन भी पूरे वसंतोत्सव की तरह रंगों, खुशबू और उत्साह की गुलाल से सराबोर होता है। माता के विसर्जन के समय एक ठेले में सावधानी से मां  को बिठाया जाता है, दो बड़े बच्चे रक्षक की तरह मां की प्रतिमा के आस पास खड़े होते हैं जिससे हिचकोले खाने समय वह मां की रक्षा कर सकें। नेता लोग अपनी जेड श्रेणी की सुरक्षा में इतना सुरक्षित महसूस ना करते होंगे जितना यह बच्चे मां  को करवाते हैं।और बाक़ी बच्चों का काम होता है, जम के नाचना। खूब नाचना। एक दूसरे पर गुलाल मलते और झूमते इन बच्चों का मादक उत्साह किसी को भी थिरका सकता है। नदी किनारे मां को एक साल के लिए विदा कर बच्चे वापस से लौट आते हैं सरस्वती माता की जय का नारा लगाते मानो माता सीता को मुक्त करा के वानर सेना लौट रही हो।

सरस्वती पूजा के मेले में गाढ़ी सफेद चाशनी से बनते बताशे की सोंधी खुशबू हो या आस पास के खाली मैदान में सरसों तेल चुपड़े बालों वाले खेलते बच्चों की गंध हो या बगल की दालान पर सर्दी भगाते मोटी चादर में लिपटे गांव के बुजुर्ग, जो बच्चों को देख अपना समय याद करते रहते हैं, के बदन से आती दवाओं और तंबाकू की मिश्रित गंध, भाषा इनमें से किसी का पूरा बयान नहीं कर सकती। यद्यपि भाषा सरस्वती की दुहिता है लेकिन भाषा सुगंध के कार्निवाल वसंत पंचमी का बयान नहीं कर सकती। 

आप सबको वसंत पंचमी की शुभकामनाएं। 

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