Saturday, October 25, 2025

जीवन चक्र

यौवन रात्रि है —
नव ओस से भीगी, स्वप्नों से सजी।
यह रात्रि गंध से भरपूर है,
जैसे किसी कमल पर चाँदनी उतर आई हो।
हर तारा कोई अव्यक्त स्वप्न है, दूर से टिमटिमाता सा
अपनी ओर बुलाता सा।
हवा का हर झोंका है
मानो किसी अदृश्य आलिंगन का निमंत्रण।
मन में लहरें हैं — जो शब्द नहीं जानतीं,
केवल गुनगुनाती हैं,
“मैं हूँ, मैं चाहती हूँ, मैं जीना चाहती हूँ…”

यौवन की यह रात है चपल 
स्पंदित तरंगित विचलित
थिरकती है —जैसे कृष्ण बांसुरी की धुन पर झूमती गोपियां।
इसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं,
पर अनुभूति की दीप्ति है।
यह रात्रि प्रेम की है, संगीत की है,
मृगतृष्णा की भी है —
पर मृगतृष्णा भी तो एक सौंदर्य ही है।


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फिर पूरब में अरुणिमा जागती है।
रात्रि की कोमल छाँवें सिमट जाती हैं,
और यथार्थ का सूर्य सिर पर आता है।
अब सपने धरती मांगते हैं,
अब भावना श्रम बनती है।
माँग में सिंदूर नहीं, पसीना भरता है।
प्रेम अब शबनम की नाजुक बूंद नहीं,
खेत की मिट्टी की नमी बन जाता है।
दिन में आँखें खुली रहती हैं,
पर दृष्टि थकी हुई।
अब चाँदनी की शीतलता नहीं,
प्रकाश की तीव्रता है —
जो सुंदर नहीं,
पर आवश्यक है।

यह मध्यवय है —
जहाँ आत्मा तपती है,
शरीर पर हावी होने लगती है जरा
निश्छल चेहरे पर आ जाती हैं
लकीरें निशान और भर चुके घाव के निशान
मानों गुजरते वक्त के छोड़ दिए हों अपने हस्ताक्षर
पर भीतर कहीं रात्रि की कोमल याद 
अब भी ठहरी रहती है।


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धीरे-धीरे दिन ढलता है।
धूप की तीखी रेखाएँ नरम पड़ती हैं।
क्षितिज पर जब सूर्य थककर बैठता है,
तो लगता है — जीवन ने एक लंबा अध्याय पूरा किया।

अब मन में कोई अधूरी चाह नहीं,
केवल स्मृतियों की मृदुल गूँज है।
अब आँखों में तारे नहीं,
पर उन तारों की याद है
जिन्होंने कभी यौवन की रात में साथ दिया था।

सांझ की हवा में एक शांति है —
जैसे कोई दीया अपने अंतिम क्षण में
सबसे उजली लौ बन जाए।
यह सांझ यौवन की वापसी नहीं,
उसकी परिपूर्णता है।

यौवन ने जो स्वप्न देखा,
दिन ने जो कर्म से पूरा किया,
सांझ उसी का सार है —
एक गहरी तृप्ति,
एक मौन प्रकाश।

भोर की कोमल मुस्कान से लेकर
रात्रि की निस्तब्ध शांति तक —
जीवन एक ही दिन है।

हर अवस्था —
भोर, रात्रि, दिन, सांझ —
एक-दूसरे में विलीन।
जैसे लहरें समुद्र से निकलकर
फिर उसी में लौट जाती हैं।
यौवन की रात में आत्मा ने जो जाना,
सांझ में वही आत्मा उसे पहचानती है।
और तब समझ आता है —
जीवन बीता नहीं,
केवल संपूर्ण हुआ है।

Saturday, October 18, 2025

नीले निशान का गीत

देखता हूं —
युवा पीढ़ी को उंगली में स्याही लगा के
सेल्फी लेते हुए।
कैमरे के सामने मुस्कुराते हैं,
जैसे कोई युद्ध जीत आए हों
या जैसे लोकतंत्र
उनकी उंगली पर सिमट आया हो।

पर मैं जानता हूं —
यह स्याही यूं ही नहीं लगती।
इसका रंग बना है
असंख्य शिक्षकों के पसीने से,
जो घर-घर जाते हैं,
नाम पुकारते हैं —
“कहीं कोई मतदाता छूट तो नहीं गया?”

उनके जूतों में धूल है,
पर आंखों में उजाला —
कि नाम जुड़ते रहें
तो देश जुड़ता रहेगा।

इस स्याही में मिला है
उन सिपाहियों का त्याग,
जो अपने घरों से दूर
वीरान स्कूलों में ठहरते हैं —
जहां बिजली नहीं,
पर मच्छर जरूर होते हैं।
वे कहते हैं —
“ड्यूटी इज़ ऑन, सर।”
और उस एक वाक्य में
सारा राष्ट्र गूंजता है।

यह स्याही बनी है
उन अधिकारियों की थकी  सूखी आंखों से
जो भूल चुके हैं
अपना घर, अपनी छुट्टियां, अपनी नींद।
फाइलों के बोझे तले
वे खोजते हैं लोकतंत्र का चेहरा —
हर बार नए नाम से, नई सटीकता से।

और जब कोई युवा
अपनी स्याही लगी उंगली
सोशल मीडिया पर दिखाता है —
मुझे लगता है
जैसे किसी नदी ने
अपना जल लौटाया है बादलों को।

यह स्याही का काला टीका
सिर्फ़ निशान नहीं —
एक वादा है,
एक स्मरण है,
कि हम इस सपने को सहेज कर रखेंगे,
और स्नेह भरा एक दबा सा डर
कि अपनी जम्हूरियत पर
कभी किसी की नज़र न लगे।

हर कुछ वर्षों में
यह स्याही फिर लगनी चाहिए —
जैसे दीपावली में दिया जलता है,
वैसे ही चुनाव में लोकतंत्र।

क्योंकि यही तो वह रंग है
जिससे भरी जाती है आशा की मतपेटी।
हर वोट — एक कली है
जो खिलती है विश्वास के मौसम में
और बनाती है अपना लोकतंत्र का बागीचा।

तो जब उंगली पर स्याही लगे —
थोड़ा ठहर कर देखना,
यह सिर्फ़ नीला काला  रंग नहीं है —
यह मेहनत, यह त्याग, यह उम्मीद का रंग है।

और इस रंग को
बीच-बीच में लगाना ज़रूरी है —
कि याद रहे,
हम अब भी ज़िंदा हैं
एक लोकतंत्र में,
जहां स्याही सूखती नहीं,
बस अगली सुबह तक
सम्भाल कर रखी रहती है।