वर्ष था 1999. उदारीकरण का एक दशक पूरा होने जा रहा था। भारतीय उद्योग जगत नए सदी का स्वागत करने को उत्सुक था। इसी समय एक भारतीय उद्योगपति ने अपनी कंपनी को नई सदी में नई ऊंचाइयों पर ले जाने का सपना देखा। उन्होंने सोचा कि भारत में एक ऐसी कार होनी चाहिए जो पूरी तरह से स्वदेशी हो, भारतीय लोगों के लिए बनी हो और भारत की सड़कों पर दौड़ सके। इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की और अपनी कार लॉन्च की।
लेकिन अनुभव की कमी को सिर्फ सपने और नीयत पाट न सके। यह कार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। कार की परफॉर्मेंस की आलोचना होने लगी और उसकी बिक्री भी बेहद कम हो रही थी। लोग इसे एक बड़ी असफलता मानने लगे। यहां तक कि कंपनी के अंदर भी कई लोगों ने सलाह दी कि कार डिवीजन को बेच देना चाहिए। चारों तरफ से निराशाजनक माहौल बन चुका था।
उसी दौरान, अमेरिकी कार कंपनी Ford ने इस भारतीय कंपनी की कार डिवीजन खरीदने में रुचि दिखाई। अमेरिकी कंपनी के प्रमुख ने भारतीय उद्योगपति को डेट्रॉइट में अपने मुख्यालय में आमंत्रित किया। वह उद्योगपति अपने कुछ साथियों के साथ वहां पहुंचे। मीटिंग के दौरान, फोर्ड के प्रमुख ने उनसे कहा, कि आपको कार व्यवसाय के बारे में कुछ नहीं आता। आपने यह व्यवसाय क्यों शुरू किया?
यह अपमानजनक टिप्पणी सुनकर भी वह भारतीय उद्योगपति शांत रहे। वह कोई प्रतिक्रिया दिए बिना वापस भारत लौट आए, लेकिन भीतर ही भीतर उन्होंने एक प्रण ले ली थी। उन्होंने अपनी कंपनी को बेचने से इंकार कर दिया और कार के डिज़ाइन को बेहतर बनाने के लिए अपनी पूरी टीम के साथ दिन-रात मेहनत की। धीरे-धीरे कार की बिक्री बढ़ने लगी, और कंपनी का आत्मविश्वास वापस लौट आया।
कुछ सालों बाद, वही भारतीय उद्योगपति न केवल अपने कार डिवीजन को सफल बना चुके थे, असफल घोषित की चुकी कार के 14 लाख से ज्यादा गाडियां बेच चुके थे बल्कि उन्होंने फोर्ड की दो प्रमुख कंपनियाँ, Jaguar और Land Rover, को खरीद लिया। यह घटना उस उद्योगपति के धैर्य, साहस और दूरदृष्टि का प्रतीक बन गई।
कहानी में बताई गई कार थी इंडिया और वह उद्योगपति कोई और नहीं, बल्कि रतन टाटा थे। सफलतम भारतीय उद्योगपति । आपको टाटा कहना बुरा लग रहा है। शायद ईश्वर को भी कोई नया उद्योग शुरू करना हो, इसलिए आपको अपने पास बुला लिया। शुभ विदा और कृतज्ञ राष्ट्र का प्रणाम।
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