भौतिकी की एक अवधारणा है जिसे अनुनाद कहते हैं। अंग्रेजी में इसे resonance कहा जाता है। इसके अनुसार हर वस्तु की एक प्राकृतिक आवृति होती है, जब भी कोई बाह्य बल वस्तु पर उसकी प्राकृतिक आवृति के बराबर या उसके आस पास की आवृति से लगता है तो वस्तु में सर्वाधिक दोलन प्रारंभ हो जाता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में समझें तो इसे किसी वस्तु के बाह्य बल के प्रति प्रतिक्रिया उस समय सर्वाधिक होती है जब वस्तु बाह्य बल की आवृति या प्रकृति से साम्य का अनुभव करता है।
हमारे गांवों में शहरों में विदेशों में बसे भारतीय मूल के समाजों में रामलीला या रामायण आधारित कहानियों का मंचन एक सामान्य बात है। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रामलीला को देखने के लिए उमड़ती भीड़ एक सवाल जगा जाती है। आखिर यह भीड़ इतनी उमड़ती क्यों है? सबको पता है कहानी क्या है, यहां तक कि पात्र तक वही रहते हैं। वोही एक आदमी हर साल हनुमान बनता है और वोही एक आदमी रावण। यहां तक कि सीता भी कोई आदमी ही बनता है वो भी हर एक साल। फिर भी हजारों की भीड़ जमा होती है, हरेक संवाद पर ताली बजाती, हरेक दृश्य पर भावुक होती, हरेक युद्ध के दृश्य पर रोमाचित होती। ऐसा दृश्य किसी और भी फिल्म नाटक या कथा को देखते वक्त क्यों नहीं होता, जहां अलग कहानी अलग पात्र अलग संवाद और अलग रोमांच मिलकर भी रामलीला का असर उत्पन्न नहीं कर पाते।
हाल में फिल्म कंतारा देखने का अवसर मिला। बिल्कुल गंवई कहानी है। बीड़ी, गांजा, ताड़ी पीता नायक। पुलिस में सिपाही की छोटी नौकरी करती नायिका। गांव के अनपढ़ लोगों की दकियानूसी वाली बातें जिन्हें कोला नृत्य करने वाले नर्तक को भगवान मानने की आदत है। संगीत भी मुझे कोई खास नहीं लगा, लेकिन जाने क्या बात है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर और समीक्षकों दोनो की नजर में विजेता बन के उभरी है। ऊपरी सरसरी निगाह से ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिसकी वजह से फिल्म इतनी बड़ी हिट हो जाय। लेकिन फिल्म सिर्फ हिट होने की बात नहीं है, दर्शकों पर यह फिल्म गहरा असर छोड़ती है। थिएटर के अंधेरे कमरे से बाहर निकलने के बाद भी दर्शक अपने साथ कंतारा का एक टुकड़ा साथ लेकर लौटते हैं।
रामालीला हो, कांतारा हो, रामायण सीरियल का दूरदर्शन पर फिर से दिखाया जाना हो, दर्शकों पर इसकी प्रतिक्रिया सामान्यतया अपेक्षित प्रतिक्रिया से कहीं ज्यादा है। ऐसा कुछ जैसे गैर भौतिक चीजों में अनुनाद या resonance की प्रक्रिया हो रही हो। कांतारा का नायक नशा करता है, भैंसों के साथ दौड़ता है, जंगली सूअर का शिकार करता है, लेकिन फिर भी दर्शकों का प्यारा बना रहता है। शायद इसलिए कि कहीं न कहीं वो शिव के ढांचे में ढाला गया एक चरित्र है। और भगवान शिव तो भारतीय जनमानस में हमेशा से बसे हैं। चाहे वो सिंधू घाटी के मुहरों पर विराजमान पशुपति हों, या हर हर शंभू वाले पॉप सांग की प्रेरणा , या फिर कांतारा के नायक की मूल प्रतिकृति। शिव हमारी संस्कृति के सतत चरित्र के संवाहक रहे हैं। ऐसा ही कुछ राम के चरित्र के साथ भी है। कदाचित इसीलिए राम कथा चिर पुरातन होने के साथ साथ सदैव नव्यता का भाव लिए चिर नूतन भी बनी रहती है।
राम और शिव के चरित्र की आवृति भारतीय जनमानस भारतीय संस्कृति की मूल आवृति के बहुत नजदीक है। इसलिए इन चरित्रों के आसपास गढ़ी गई कथाएं हम पर इतना ज्यादा प्रभाव डालती हैं। यह अनुनाद या रेजोनेंस का एक ही एक और पहलू है जिसे मौतिकी के सूत्रों या सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित या व्याख्यायित करना संभव नहीं है।