Tuesday, November 15, 2022

कांतारा और रामलीला में गूंजते अनुनाद की ध्वनियां

भौतिकी की एक अवधारणा है जिसे अनुनाद कहते हैं। अंग्रेजी में इसे resonance कहा जाता है। इसके अनुसार हर वस्तु की एक प्राकृतिक आवृति होती है, जब भी कोई बाह्य बल वस्तु पर उसकी प्राकृतिक आवृति के बराबर या उसके आस पास की आवृति से लगता है तो वस्तु में सर्वाधिक दोलन प्रारंभ हो जाता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में समझें तो इसे किसी वस्तु के बाह्य बल के प्रति प्रतिक्रिया उस समय सर्वाधिक होती है जब वस्तु बाह्य बल की आवृति या प्रकृति से साम्य का अनुभव करता है। 

हमारे गांवों में शहरों में विदेशों में बसे भारतीय मूल के समाजों में रामलीला या रामायण आधारित कहानियों का मंचन एक सामान्य बात है। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रामलीला को देखने के लिए उमड़ती भीड़ एक सवाल जगा जाती है। आखिर यह भीड़ इतनी उमड़ती क्यों है? सबको पता है कहानी क्या है, यहां तक कि पात्र तक वही रहते हैं। वोही एक आदमी हर साल हनुमान बनता है और वोही एक आदमी रावण। यहां तक कि सीता भी कोई आदमी ही बनता है वो भी हर एक साल। फिर भी हजारों की भीड़ जमा होती है, हरेक संवाद पर ताली बजाती, हरेक दृश्य पर भावुक होती, हरेक युद्ध के दृश्य पर रोमाचित होती। ऐसा दृश्य किसी और भी फिल्म नाटक या कथा को देखते वक्त क्यों नहीं होता, जहां अलग कहानी अलग पात्र अलग संवाद और अलग रोमांच मिलकर भी रामलीला का असर उत्पन्न नहीं कर पाते।
हाल में फिल्म कंतारा देखने का अवसर मिला। बिल्कुल गंवई कहानी है। बीड़ी, गांजा, ताड़ी पीता नायक। पुलिस में सिपाही की छोटी नौकरी करती नायिका। गांव के अनपढ़ लोगों की दकियानूसी वाली बातें जिन्हें कोला नृत्य करने वाले नर्तक को भगवान मानने की आदत है। संगीत भी मुझे कोई खास नहीं लगा, लेकिन जाने क्या बात है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर और समीक्षकों दोनो की नजर में विजेता बन के उभरी है। ऊपरी सरसरी निगाह से ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिसकी वजह से फिल्म इतनी बड़ी हिट हो जाय। लेकिन फिल्म सिर्फ हिट होने की बात नहीं है, दर्शकों पर यह फिल्म गहरा असर छोड़ती है। थिएटर के अंधेरे कमरे से बाहर निकलने के बाद भी दर्शक अपने साथ कंतारा का एक टुकड़ा साथ लेकर लौटते हैं। 
रामालीला हो, कांतारा हो, रामायण सीरियल का दूरदर्शन पर फिर से दिखाया जाना हो, दर्शकों पर इसकी प्रतिक्रिया सामान्यतया अपेक्षित प्रतिक्रिया से कहीं ज्यादा है। ऐसा कुछ जैसे गैर भौतिक चीजों में अनुनाद या resonance की प्रक्रिया हो रही हो। कांतारा का नायक नशा करता है, भैंसों के साथ दौड़ता है, जंगली सूअर का शिकार करता है, लेकिन फिर भी दर्शकों का प्यारा बना रहता है। शायद इसलिए कि कहीं न कहीं वो शिव के ढांचे में ढाला गया एक चरित्र है। और भगवान शिव तो भारतीय जनमानस में हमेशा से बसे हैं। चाहे वो सिंधू घाटी के मुहरों पर विराजमान पशुपति हों, या हर हर शंभू वाले पॉप सांग की प्रेरणा , या फिर कांतारा के नायक की मूल प्रतिकृति। शिव हमारी संस्कृति के सतत चरित्र के संवाहक रहे हैं। ऐसा ही कुछ राम के चरित्र के साथ भी है। कदाचित इसीलिए राम कथा चिर पुरातन होने के साथ साथ सदैव नव्यता का भाव लिए चिर नूतन भी बनी रहती है।

राम और शिव के चरित्र की आवृति भारतीय जनमानस भारतीय संस्कृति की मूल आवृति के बहुत नजदीक है। इसलिए इन चरित्रों के आसपास गढ़ी गई कथाएं हम पर इतना ज्यादा प्रभाव डालती हैं। यह अनुनाद या रेजोनेंस का एक ही एक और पहलू है जिसे मौतिकी के सूत्रों या सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित या व्याख्यायित करना संभव नहीं है। 

Sunday, November 6, 2022

गांव और डस्टबिन

हमारा गांव बहुत पिछड़ा हुआ था। हमारे गांव में किसी के घर में डस्टबिन नहीं था। कचरा के नाम पर सब्जी के छिलके होते थे जिसे गौमाता को खिला दिया जाता था। किचन से मांड़ और चोकर निकलता था जो गौमाता को ही अर्पित हो दूध बन कर वापस आ जाता था। दूध भी गौशाले से सीधे बाल्टी में घर आता था इसीलिए कभी प्लास्टिक के थैलों की जरूरत नहीं थी। सब्जी वाली अपने सर पर ताजी खेतों के तोड़ी हुई सब्जियों को ढोकर घर घर बेच आती थी, बाकी सब्जियां घर के पिछवाड़े बाड़ी से निकल आती थी। पॉलिथीन बैग का नाम नहीं सुना था। 

गेंहू धोकर आंगन में पुरानी साड़ी पर रख कर सुखा लिया जाता था और फिर गांव की चक्की में पीस कर आ जाता।कभी प्लास्टिक के थैलों में आटा रखने की जरूरत नहीं पड़ी। दालान वाला नीम का पेड़ ब्रश दे देता था और बहुत जरूरत पड़ी तो नमक और सरसों का तेल से दांतों की सफाई हो जाती थी। 

कपड़े साल में दो बार थान से कट के आते और पड़ोस से दर्जी से सिल के आते। कभी अमेजन वाली प्लास्टिक की तीन तह वाली पैकिंग की जरूरत नहीं पड़ी। गांव में कोई म्युनिसिपैलिटी वाली गाड़ी, गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल, वाला गाना सुना कर कचरा तक जमा नहीं करता। क्योंकि किसी घर में कोई कचरा था ही नहीं। सत्यनारायण पूजा भी हुई तो प्रसाद केले के पत्ते पर और गांव में भोज हुआ तो सखुए के पत्ते में भोज हो जाता था। 

पानी घड़े में रहता था, उस समय प्लास्टिक की बोतल में पानी अगर कोई बेचता तो लोग उसपर आश्चर्य से हंसते बस। इसीलिए नहीं कि गांव वाले पानी की कोई कीमत नहीं समझते थे बल्कि इसीलिए की वो पानी को अमूल्य समझते थे। इसलिए नदियों को मां कहते और पोखर में किसी न किसी देवता का वास मानते। छठ की पूजा के बाद घाटों पर प्लास्टिक का अंबार नहीं बस केले के थंबों से बनी सजावट शेष रहती थी, जिसे साफ करने के लिए किसी एनजीओ या नगरनिगम की जरूरत नहीं पड़ती थी। 

आज देखता हूं घर घर में प्लास्टिक के कचरे को रखने के लिए प्लास्टिक के डस्टबिन हैं जिनमें प्लास्टिक का एक नया थैला रोज लगता है। अंदर दूध के पैकेट, पुराने टूथ ब्रश, सब्जियों वाली पॉलिथीन, पूजा के बाद प्लास्टिक के दोने और रात की पार्टी के बाद डिस्पोजेबल प्लेट और ग्लास के ढेर लगे होते हैं। कचरा अच्छे से जमा किया जाता है और अच्छे से शहर से दूर एक जगह जमा कर दिया जाता था। धीरे धीरे शहर खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है।  फिर कचरे का वो पहाड़ किसी और जगह दूर चला जाता है और फिर शहर खिसक खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है। कचरे के ढेर का पीछा करता शहर बड़ा होता जाता है। हमारा गांव कभी ऐसे बड़ा नहीं हुआ क्योंकि वोह कचरे के ढेर ना बनाता था और न उसका पीछा करता था। हमारा गांव पिछड़ा ही रह गया क्योंकि हमारे गांव में किसी भी घर में डस्टबिन नहीं था।

Thursday, November 3, 2022

शरीर में बांछे कहां होती हैं?

हिंदी में एक मुहावरा है बांछे खिलना। और इसी के साथ श्रीलाल शुक्ल द्वारा राग दरबारी में लिखा एक मशहूर मजाक है कि मुझे नहीं पता कि शरीर में बांछे कहां होती हैं लेकिन मेरी बांछे खिल गईं। मैने सोचा कि हिंदी में कोई बात ऐसे निरर्थक नहीं होती। अगर मानव शरीर में बांछे जैसा कोई अंग नहीं होता तो बांछे खिलना मुहावरा आया कहां से। बांछे खिलना का अर्थ है अत्यधिक प्रसन्न होना। 

चूंकि प्रसन्नता एक मानसिक अवस्था है तो बांछे खिलना का कोई मतलब मन से होना चाहिए। एक तत्सम शब्द है वांछा, जिसका अर्थ है इच्छा अभिलाषा। इसी शब्द से वांछनीय , अवांछनीय जैसे शब्द बने हैं। कल्पतरु को भी वांछा कल्पद्रूम कहा गया है। संभव है कि बांछे शब्द वांछा का अपभ्रंश है। स्वाभाविक है कि जब व्यक्ति प्रसन्न होता है तो इसमें अनेक सपनों, इच्छाओं, सुखद भविष्य की कल्पनाओं और आशाओं का संचरण होता है। यह सब व्यक्ति के मन में होता है और संभवतः मन और मन से जुड़े कल्पना लोक में आई इसी तीव्रता को बांछे खिलना जैसे मुहावरे द्वारा निरूपित किया जाता है। वैसे बांछा का एक देशज अर्थ होता है होंठो की संधि। मुस्कुराने की वजह से  हमारी चेहरे पर आई मुस्कान के लंबे होने को भी बांछे खिलने से जोड़ा जा सकता है। वैसे बांछे खिलना अगर प्रसन्नता से जुड़ा है तो आवश्यक नहीं कि वो चेहरे पर प्रतिबिंबित हो ही। मिलाजुलाकार इसकी पहली व्याख्या ही ज्यादा सही प्रतीत होती है।

तो अगली बार कोई जब कहे कि उन्हें नहीं पता कि शरीर में बांछे कहां होती हैं, तो आप उनको कह सकते हैं कि बांछे शरीर में नहीं आपके मन में होती हैं। और उन्हें यह भी बताएं कि बांछे ज्यादा खिलना वांछनीय नहीं है।