हिंदी में एक कहावत है कि काबुल में क्या गधे नहीं होते। मतलब यह कि अच्छी से अच्छी चीज में कुछ न कुछ बुराइयां जरूर होती हैं। रवींद्र नाथ टैगोर की एक कालजयी कहानी है काबुलीवाला। जिसमें एक अफगानी अपनी बेटी के नन्हे पंजों की छाप उसकी निशानी के रूप में अपने साथ रख कर कलकत्ता की गलियों में सूखे मेवे बेचता है। भगवान बुद्ध की सबसे विशाल और अनुपम प्रतिमाएं बामियान में बनी और करीब दो हजार साल तक खड़ी रही।
जिस जगह की उपमा सबसे नायाब जगह से दी जाने वाले मुहावरे हों। जहां के लोग अपनी बेटियों को इतना प्यार करते हों और जहां पर कभी बुद्ध का इतना गहरा प्रभाव रहा हो, इस मुल्क से आने वाली खबरें पिछले पांच दशक के इतनी भयावह क्यों हैं?
क्यों काबुल से भागने के लिए लोग हवाई जहाजों में लटक रहे हैं? आज काबुली वाला ऐसा कैसे हो गया कि अपनी बेटियों को सरेआम कोड़े से पीटने को धर्मसम्मत समझता है? और कैसे बुद्ध की धरती अपनों के खून से लाल हो गई है और उसी बुद्ध की प्रतिमाओं जिसे कम से कम एक विश्व धरोहर मान कर सहेजना चाहिए था, तबाह कर दी गई हैं?
संस्कृति और सभ्यता चिरकालिक नहीं होते, उनका जीवन किसी जीवित मनुष्य या पौधे की तरह ही पोषण, हवा और पानी की लगातार खुराक पर निर्भर करता है। अगर पोषण में कमी हुई या उसमें किसी ने जहर मिलाना शुरू किया तो पौधा हो या मनुष्य सूख जाता है। सभ्यता और संस्कृति में यह पोषण नए विचारों की खोज और प्रगतिशील विचारों को अपनाने से प्राप्त होता है। जिस दिन किसी में सभ्यता में यह खुराक मिलनी बंद हो जाती है, सभ्यता का वटवृक्ष सूखने लगता है। हरा भरा बरगद भी ठूंठ बन जाता है।
यह भी सच्चाई है कि अफगान समस्या का उपरोक्त वर्णन एक अत्यंत ही सरलीकृत और उथला सा कारण प्रस्तुत करता है, लेकिन यह भी सच है कि अनेक बाह्य और बड़े कारणों के मूल में समाज का पार्श्वमुखी विचारों को अपनाना है। अफगान त्रासदी दुखद तो है ही लेकिन हरेक सभ्य समाज के लिए एक सबक भी है कि अपनी सभ्यता का निरंतर पोषण और उसकी अनवरत देखभाल करते रहें । वरना काबुल को जहन्नम बनने में देर नहीं लगती।
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