छुपा होता है कभी
उसी कांव कांव में
किसी नर कौवे का प्रणय निवेदन
उसी कांव कांव में
होता होगा किसी
प्रेमातुर मादा का
सहर्ष आमंत्रण।
कोयल हमेशा कुहू कुहू
कर नहीं गाती
कभी उस कुहू कुहू में
छुपा होता होगा
किसी बच्चे को बुलाती
मां कोयल का आर्तनाद
उसी कुहू कुहू में
शायद छुपा होता है
मां का इंतजार करते
बच्चों की पुकार।
लेकिन हम कौवे की
हर आवाज को
कांव कांव का शोर कहते हैं।
और कहते हैं कोयल की आवाज को
एक मधुर गीत
जबकि कोई कोयल जीवन भर
खुशी के गीत गा नहीं सकती।
तो क्या हम
कभी भी सुन पाते हैं
कोयल और कौवे की
असली आवाज ??
अगर सुन पाते तो
मादा कौवे का सस्वर प्रेम निमंत्रण
हमें शोर नहीं लगता
और ना ही मां कोयल का आर्तनाद
हमें मधुर गीत सुनाई देता।
हम सच में उनकी आवाज
तो कभी सुनते ही नहीं
हम तो सुनते हैं अपने विश्वास,
अपनी परंपराओं
अपनी मान्यताओं,
अपने दृष्टिकोण,
अपनी विचारधारा
और अपनी मनःस्थितियों
के सम्मिलित शोर
से दबी हुई
कोयल और कौवे की आवाज।
हम बहरे हैं
जो उनकी असली आवाज को
सुन नहीं सकते।
क्योंकि हम सिर्फ
सुन सकते हैं वोही
जो हम सुनना चाहते हैं
जो हम सुनते आए हैं
जो हम खुद सोच रहे हैं
जो हम सोचते हैं
कि हम सुन रहे हैं।
हमेशा कांव कांव नहीं करता कौवा
कांव कांव करती
है हमारी सोच
कांव कांव करते हैं हम
कुहू कुहू का गीत
भी थोपा हुआ है हमने
कोयल की हर आवाज पर।
काश कि कभी सुन पाता
कौवे को
कांव कांव से परे।
कभी सुन पाता कोयल को
कुहू कुहू के परे।
लेकिन उसके लिए
मुझे जाना होगा
अपने दायरे से परे।
जो मैं कर नहीं पाता।
मैं, मैं का गुलाम हूं
ऐसा गुलाम जो एक
चिड़िया की आवाज तक
सुन नहीं सकता।
ऐ कौवे, तू हमेशा कांव कांव नहीं करता।
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