Sunday, February 2, 2020

वाराणसी यात्रा वृतांत

यह राजा घाट है, घातक सिनेमा में सनी देओल यहीं से नहा के निकलते हैं। आपने देखी है वो फिल्म? नाविक हरेक घाट के बारे में सही गलत ऐतिहासिक कल्पोक कल्पित कथाएं बड़े चाव से सुना रहा है। यह हरिश्चंद्र घाट है। राजा हरिश्चंद्र  इसी घाट पर चांडाल का काम करते समय अपने मृत पुत्र रोहिताश्व के अंतिम संस्कार के लिए भी अपने आदर्शो से नहीं डिगे। पता नहीं यह कहानी नाविक ने कितने लोगों को आज तक सुनाई होगी लेकिन यह मार्मिक कहानी सुनाते समय उसकी आखों के कोनों पर नमी दिखने लगती है। चलिए संध्या आरती का समय हो रहा है, जल्दी से आपको बाकी घाटों की परिक्रमा करवा देता हूं। दशाश्वमेध से शुरू हुई यह नौका यात्रा मणिकर्णिका तक पहुंचती है। जिस नाविक की आखें हरिश्चंद्र की कहानी सुनाते समय गीली हो गई थी, मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओ को देख उसपर कोई असर नहीं। वाराणसी ही वह शहर हो सकता है जहां मृत्यु पर शोक नहीं बल्कि मोक्ष प्राप्ति का उल्लास होता है। जीवन समाप्त नहीं होता बल्कि इहलीला के बाद के जीवन का प्रारंभ होता है। मणिकर्णिका पर शिव पार्वती ने स्नान किया था अतः यहां के जल से अंतिम स्नान कर बैकुंठ निश्चित है। आस्था और श्रद्धा के आगे नमस्तक हो हम आगे चले।

दशाश्वमेध धाट हमने सुबह भी देखा था, काशी विश्वनाथ के दर्शनों से पहले इसी घाट पर आये। बाबा विश्वनाथ के दर्शनों से पहले पुष्प और प्रसाद खरीदना आवश्यक हो जाता है। आशा यही कि बाबा भोलेनाथ पुष्प और प्रसाद पा खुश हो जाएं और उनका ध्यान हमारे पापों की गठरी पर ना जाए। भोलेनाथ की काशी में हर तरफ बाबा का ही साम्राज्य है। हर चीज पर बाबा का प्रभाव है , धूनी रमाते साधु हों या गांजा के चिलम से काश लगाते विदेशी या ठंडाई छानते काशीवासी। कभी कभी सच ही लगता है कि काशी बाबा के त्रिशूल पर है, जीवन और दुनिया के साधारण नियम यहां लागू नहीं होते। 

घंटे दो घंटे कतार में खड़े रहे और हर हर महादेव का जयकारा लगता रहा। ललाट पर भभूत लगाए जब बाहर निकले तो भूख तेज़ लगी थी। मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद है कि काशी में कोई भूखा नहीं रहता। बनारस की गलियों में हर तरफ बनारसी जायके की सुगंध आपको बताती है कि अन्नपूर्णा का आशीर्वाद विफल ना हो, इसकी कितनी उन्नत व्यवस्था की गई है। आप आराम से जलपान कर सकते है, समय और मात्रा की कोई पाबंदी नहीं। पूरियां बांटने वाला गिन कर पूरियां नहीं बांटता। जितनी सखुवे के दोने में आ गई सब आपकी। गरमागरम पूरी , आलू की मसाले दार सब्जी और चाशनी में डूबी जलेबी छक कर हम आगे बढ़े।

काशी विश्वनाथ की गलियों में हमें एक दुकान मिली लकड़ी की । कारीगरी देख कर सीना चौड़ा हो गया और दुःख भी हुआ कि प्लास्टिक ने हमारे पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंचाया है उससे कहीं अधिक लकड़ी और उसकी कारीगरी को पहुंचाया है। कौन खरीदेगा यह महंगी लकड़ी जब प्लास्टिक कहीं ज्यादा सस्ती है। लेकिन बाबा की नगरी में सब कुछ इतना सीधा और सपाट कैसे हो सकता है। चीज़ों के दाम प्लास्टिक से सस्ते और ऐसी कारीगरी की मोम से भी मुश्किल से हो। यादगार की लिए कुछ चीजें खरीदी यह सोच कर कि अगले बार सामान एक अलग थैला इनके सामानों से ही भरूंगा। इसके बाद गंगा आरती का अप्रतिम दृश्य देखा। आरती की उठती पवित्र अग्नि की लौ और उनको चतुर्दिश घुमाते युवा पंडितों के प्रदीप्त चेहरों को देख विश्वास हुआ कि हमारी सनातन संस्कृति को कोई मिटा नहीं सकता। यह ज्योति अखंड रूप से भारतवर्ष की भूमि को प्रकाशित करती रहेगी और मंत्रोच्चार के बीच उठता यह पवित्र धुआं हमारे मनोमस्तिष्क को सुवासित करता रहेगा।

बच्चे थक रहे थे, इसीलिए संध्या आरती के बाद रात को होटल में लौट गए। होटल  भी बिल्कुल घाट किनारे। टैक्सी कुछ दूर ही रुक गई और अपने  रैन बसेरे तक पहुंचने के लिए हम बनारस की उन मशहूर गलियों से गुज़रे जिनसे भौतिक दुनिया की बड़ी कारें नहीं गुजर सकती। मानो भौतिकवाद की नो एंट्री है बनारस की गलियों में। आपके बड़े ईगो का भी गुजरना मुश्किल है बनारस की गलियों से। जहां गर्व से आपने अपना सर ऊंचा किया और ज़मीन से नज़रें हटाई और औंधे मुंह गिरेंगे फिसल कर सांढ़ के गोबर पर। इसलिए आंखें नीचे किए बनारस की तंग गलियों से हम अपने होटल पहुंचे। 

बनारस की सुबह देखने चटपट जा पहुंचा घाट पर। वहीं राजा घाट जहां पर घातक फिल्म की शूटिंग हुई थी। हनुमान मदिर के बाहर गदा घुमाते बनारस के युवा मिले जो अपनी रोजाना वर्जिश कर रहे थे। घातक फिल्म का काशीनाथ कोई काल्पनिक चरित्र नहीं था, इन युवकों को देख यह विश्वास हो गया। गदा के साथ फोटो लेने का लोभ संवरण ना कर पाया। उसके बाद गंगा में डुबकी लगा कर बाहर निकला तो लगा जैसे मनों बोझ उतर गया हो। वरुणा और असी की जलधारा गंगा के पतितपावन वाले भगीरथ कार्य में उनका सहयोग करती हैं। नाम वाराणसी भी वरुणा और असी से मिलकर ही बना है।

काशी के मानस मंदिर और संकट मोचन मंदिर को सुबह देख कर हम चल पड़े सारनाथ की ओर। भगवान बुद्ध की प्रथम शिक्षा वाली पावन धरती का दर्शन करना आवश्यक था। सारनाथ जाकर देखा तो सैकड़ों तिब्बती, थाई और चीनी नागरिक वहां मौजूद थे। मन में विचार आया कि धर्म प्रसार तो बुद्ध ने भी किया और पूरी दुनिया में किया लेकिन बिना तलवार के और बिना किसी  को लोभ दिये। बुद्ध की 90फीट की आजनुबाहु प्रतिमा और बुद्ध की ध्यानमग्न मुद्रा आपको मंत्रमुग्ध कर देगी। जिसकी प्रतिमा इतनी आकर्षक है वह व्यक्ति वास्तव में कैसा रहा होगा, सोचना भी असंभव है।  चौखंडी और धमेक स्तूप के दर्शनों के बाद हमने स्थानीय बुनकरों की दुकान का रुख किया। 
पत्नी जहां साड़ियों के संसार में मग्न हो गई मैं दुकान के पीछे बने उनकी कार्यशाला में गया। बुनकर चाचा ने मेरे बेटे को प्यार से पास में बिठाया और उसे भी अपने कारीगरी के गुण सिखाए। फणीश्वनाथ रेणु के सिरचन याद आ गए। सामने एक मजदूर नहीं एक कलाकार बैठा था। काम में बाधा पहुंचाने वाले बच्चों से कोई इतनी तन्मयता से कोई सहृदय कलाकार ही बात कर सकता है। फोटो लेने की आवश्यक खानापूर्ति समाप्त होने के बाद चुपके से सिरचन चाचा के हाथ में सौ रुपए का एक नोट थमाया और उन्होंने मना किया। मैंने कहा चाचा कुछ खा लेना। कलाकार ह्रदय ने भावना से पूरित हो आशीर्वाद मुद्रा में हाथ उठा दिए। लगा मानो फिर से काशी में गंगा स्नान हो गया।

कलाकार का ह्रदय भले ही कोमल हो समय हमेशा कठोर होता है। घड़ी बताने लगी कि स्वप्न संसार से निकलने का समय आ गया है। ऑटो में बैठ कर हम वाराणसी स्टेशन पहुंचे और वंदे भारत एक्सप्रेस में बैठ कर आध्यात्मिकता, भावुकता के संसार से आधुनिकता और वैज्ञानिकता के अजूबे की सराहना करने लगे। ट्रेन दिल्ली के लिए खुल चुकी थी कि स्टेशन की दीवार पर एक पेंटिंग दिखी।लिखा था स्मार्ट सिटी वाराणसी: अलौकिक आध्यात्मिक आधुनिक। मानो पूरी यात्रा का सार इन्हीं तीन शब्दों में सिमट आया। वाराणसी से प्रयागराज की यात्रा के बीच चटपट यह वृतांत लिख डाला , कौन जाने दिल्ली पहुंच कर यह सुकून का भाव रहे ना रहे , हृदय प्रसन्नचित मन रहे या ना रहे। 

No comments: