अपने ही शहर की उन पुरानी गलियों में,
एक अधीर-सी धूप
मेरे भीतर उतर आती है—
मानो स्मृतियों की कोई चुप्पी
अचानक मेरे कंधों पर
हल्के से हाथ रख दे।
जी उठता है मन
कि फिर से चख लूँ वह हलवाई की मिठाई—
जो बचपन में
बस सुगंध बनकर ही
मेरे हिस्से आती थी;
जिसकी मिठास को
मैंने कभी चखा नहीं,
केवल चाहा था—
और चाहना ही
मेरी भूख का त्योहार बन जाता था।
कदम अनायास
उस खोमचे वाले के धुँआते चूल्हे के पास ठहर जाते हैं।
माँ की मनाही आज भी
किसी कठोर ऋतु-सी
कानों में टपक पड़ती है,
पर उससे भी ज़्यादा
उस चाट की उठती भाप
मेरे भीतर का बच्चा छू लेती है—
और मुझे पता लगता है
कि आकर्षण का स्वाद
सदा मन में ही बसता है,
जीभ पर नहीं।
नज़रें जब उस बंद पड़े टाकीज़ को छूती हैं
तो लगता है जैसे
किसी पुरानी नदी का स्रोत
रेत में बदल गया हो।
वहीं, उसी अँधेरे अहाते में
मैंने पहली बार जाना था
कि रोशनी परछाइयों का ऋण होती है—
और कहानियाँ
सिर्फ़ देखी नहीं जातीं,
वे आत्मा में उभरकर
अपना ही रूप धारण कर लेती हैं।
वह—
हाँ, वही जर्जर टाकीज़—
मेरे सपनों का द्वार था,
जहाँ प्रवेश करते ही
मन एक दीप बन जाता था
और संसार
एक विशाल, शांत-सा जल।
दूर धूल से भरी पगडंडी पर
अब भी पड़ी है वह कार्डों की दुकान—
बंद, पर मरी नहीं।
उसकी टूटी खिड़कियों से झाँकता अँधेरा
जैसे अब भी पूछता है—
क्या स्मृतियों के रंग
कभी फीके पड़ते हैं?
यहीं से खरीदे गए
पहले ग्रीटिंग कार्ड,
पहली शर्मीली मुस्कानें,
पहला एहसास कि
जो नहीं कहा जाता,
वही वाक़ई कहने योग्य होता है।
उससे थोड़ा आगे
एक पुराना घर है—
जिसकी दीवारों पर
समय की धूल
ऐसे जमी है
जैसे किसी मौन ऋषि की दाढ़ी।
वहीं रहते थे मेरे गणित के गुरू।
उनकी डाँटें,
उनकी तीखी नज़रें—
आज भी किसी अदृश्य नियम-सी
जीवन को बाँधे रखती हैं।
पाठ बिसर गए,
पर अनुशासन का वह शीतल स्पर्श
अब भी कुछ अनुबंधों-सा
भीतर अटका है।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्यों इतनी दूर आकर
फिर वहीं लौट जाता हूँ—
उस नदी तक
जिसमें उतरता था
तो जल सिर्फ़ देह नहीं भिगोता था,
किसी गहरी चिंता को भी
बहा ले जाता था?
अब वह नदी
बचपन की तरह उछलती नहीं,
पर मन उसके किनारे
अब भी उसी नमी की तलाश में
भटकता है।
समय की यह अनगिनत पगडंडियाँ
अब मेरे भीतर ही खुलती और बंद होती रहती हैं।
बीते दिनों की परछाइयाँ
कभी दीया बनकर मेरी राह रोशन करती हैं,
कभी घनी धुंध बन
दृष्टि को ढँक लेती हैं।
और मैं—
इन दोनों के बीच
एक थकी हुई नाव-सा
किसी अदृश्य किनारे की प्रतीक्षा करता रहता हूँ।
यह पूरा शहर क्यों मुझे घर सा लगता है
शायद इसीलिए इसे होम टाउन कहते हैं।
कभी लगता है
भविष्य मेरे सामने
अभी-अभी जन्मा एक शिशु है—
जिसकी आँखों में उजाला तो है,
पर दिशा नहीं।
और अतीत
कोई वृद्ध वृक्ष—
जो गिरने को ठहरा है,
पर अपनी छाया
अब भी मुझे थामे हुए है।
इन्हीं दोनों के बीच
मैं खड़ा हूँ—
जैसे कोई पंख
हवा में स्थिर हो गया हो।
न उड़ने का साहस,
न गिरने की अनुमति।
शायद यही नियति है—
कि मैं अपनी स्मृतियों की बाँहों में
उतना ही बँधा रहूँ
जितना उनसे मुक्त होने की
असमर्थ इच्छा में।
और इसी अदृश्य जाल में
धीरे-धीरे महसूस करता हूँ
कि मैं लौट भी नहीं सकता,
आगे बढ़ भी नहीं सकता—
बस एक विरह-सा संगीत
मेरे भीतर बजता रहता है,
और मैं—
उसकी धुन में फँसा
शायद सदा-सदा के लिए
अपने ही अतीत और भविष्य
के बीच टँगा रह जाता हूँ
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