Thursday, July 31, 2025

दो अलग यात्राए... ं एक समान लक्ष्य

सुबह 4:10 बजे — वर्ष 2019, नवंबर 24..= दिल्ली एयरपोर्ट।

ऑफिस के काम से तिरुवनंतपुरम जाना था — एक महत्वपूर्ण बैठक थी। वही सुबह उठकर फॉर्मल कपड़े पहनना, अपना लैपटॉप बैग लेना और साथ में एक टाई रख लेना जो मीटिंग से पहले गले में डाल सकूं।
मैं हमेशा की तरह समय से तीन घंटे पहले एयरपोर्ट पहुँच गया, कैपुचीनो के साथ लैपटॉप खोल कर ईमेल खंगाल रहा था और प्रेजेंटेशन में फाइनल टच दे रहा था।
तभी देखा — श्रीनिवासन सर, हमारे डायरेक्टर साहब… पर वो जैसे पहले कभी दिखे ही नहीं थे।
नंगे पाँव।
काले कपड़े।
गले में रुद्राक्ष, माथे पर चंदन। एक पल को लगा, शायद किसी धार्मिक सीरीज़ की शूटिंग कर रहे हैं।
लेकिन नहीं। वे गंभीर थे, शांत थे, और भीतर से बेहद प्रसन्न दिख रहे थे। "सर?" मैंने चौंकते हुए कहा।
उन्होंने मुस्कराकर सिर झुकाया।
"सबरीमाला," उन्होंने धीरे से कहा।
"स्वामी अय्यप्पा का बुलावा आया है। 41 दिन का व्रतम पूरा हुआ, अब यात्रा के अंतिम चरण पर हूँ।"

मैं सन्न रह गया।
एक कॉरपोरेट वर्ल्ड का सख्त, प्रोसेस-ड्रिवन व्यक्ति, जो रोज़ KPI और ROI में उलझा रहता है…
आज एक श्रद्धालु बनकर मेरे सामने खड़ा था — वह भी नंगे पाँव।

मैं पूरी फ्लाइट में सोचता रहा —
कौन सा बल होता है, जो इंसान को इस तरह बदल देता है? उस दिन पहली बार सबरीमाला की कठिन यात्रा के बारे में उनसे सुना और जान कर भक्ति रस में सराबोर हो गया।

सालों बाद आज 31 जुलाई 2025 में— ट्रेन में, पटना से भागलपुर जा रहा हूं। बहुत कुछ बदल गया है इस बीच में। कॉर्पोरेट जीवन को विदा कह चुका हूं। अब बिहार में बस गया हूं। पर बिहार से बाहर रहने के बाद बिहार अब भी चमत्कृत कर जाता है।

सावन भले ही अपने आखिरी चरण में हो, सावन के भक्त गण बोल बम कांवड़िए अपने पूरे उफान पर हैं। पूरी ट्रेन जैसे भगवा में रंग गई हो। "बोल बम" के नारे किसी राग की तरह गूंजते हैं।

मुझे बिहार में जन्मे हुए चार दशक हो चुके हैं।
कांवड़ यात्रा मेरे लिए कोई नई बात नहीं —
पर इस बार कुछ बदल गया है।
शायद नज़रिया।

मेरे सामने एक कांवड़ियों का जत्था बैठा है।
सिर पर गमछा, कंधे पर कांवड़, पैरों में छाले…
फिर भी चेहरों पर थकान नहीं — एक संतोष है, उत्साह है।
तभी मेरी आंखें उस पल से टकराईं, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता —एक दृष्टिबाधित कांवड़ियों का जत्था।
एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने वाले वो श्रद्धालु —
जिनकी आंखें नहीं थीं, लेकिन आस्था की रोशनी उनमें इतनी थी, कि रास्ता खुद उनके लिए झुककर बन रहा था। मैं देर तक उन्हें देखता रहा।

एक किशोर लड़का एक वृद्ध को थामे चल रहा था।
शायद वही उनका "नेता" था।
उनकी कांवड़ें कपड़े से सजी थीं — किसी ने उनके माथे पर “ॐ नमः शिवाय” का अस्थाई ही सही चंदन वाला टैटू बना रखा था। मुझे अपने बचपन के वो दिन याद आ गए, जब हमारे गांव में भी कांवड़ियों का जत्था रुकता और पूरा गांव उनकी सेवा में लगा रहता।

 हर हर महादेव का स्वर पूरे गांव में गुंजायमान रहता।
मैं उनके साथ गंगाजल भरता, और सोचता —
क्या भगवान सच में इतने दूर हैं कि इतने लंबे सफर की ज़रूरत है?
आज समझ में आया —
सफर भगवान के लिए नहीं होता… अपने भीतर के विश्वास तक पहुँचने के लिए होता है।
आज मन भीतर से भीगा है।
मैंने दो यात्राएं कीं —
एक कॉरपोरेट डायरेक्टर के साथ सबरीमाला की ओर,
और एक गरीब, दृष्टिहीन बालक के साथ देवघर की ओर।

पर दोनों यात्राओं में एक ही बात समान थी —
श्रद्धा, जो न उम्र देखती है,
न भाषा, न शरीर की सीमा।

भारत सिर्फ एक भूगोल नहीं है,
यह भक्ति का एक जीवित नक्शा है —
जहाँ हर रास्ता कहीं न कहीं ईश्वर की ओर ले जाता है।

Sunday, July 20, 2025

ब्लिंकिट जेनरेशन और धैर्य का संकट

वीरता, शक्ति, चातुर्य और बुद्धिमत्ता – ये वे गुण हैं जिनकी चर्चा इतिहास से लेकर आज तक होती रही है। शेर को जंगल का राजा भी इन्हीं खूबियों के कारण कहा जाता है। लेकिन जो बात अक्सर अनदेखी रह जाती है, वह है शेर का धैर्य। एक सफल शिकार के बाद अगला शिकार कब और कैसे मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। शेर घंटों, कभी-कभी दिनों तक घात लगाकर शिकार की प्रतीक्षा करता है – बिना हिले, बिना आवाज किए। यह धैर्य ही उसकी ताकत का सबसे बड़ा प्रमाण है।

इतिहास के पन्नों में महाराणा प्रताप का नाम वीरता के लिए स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। लेकिन क्या हम यह याद रखते हैं कि हल्दीघाटी की हार के बाद भी वे अकबर के खिलाफ लड़ते रहे? क्या हमें यह याद रहता है कि शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य का सपना उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने पूरा किया? यह सब केवल पराक्रम या योजना का परिणाम नहीं था, बल्कि गहन और अडिग धैर्य की देन था।

आज की पीढ़ी तकनीक से सम्पन्न है। विज्ञान उन्हें थाल में सजा कर परोसा गया है। सूचना और ज्ञान कभी इतने सहज, इतने सुलभ नहीं रहे। लेकिन इस सहजता ने एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया है – अधीरता की प्रवृत्ति। Blinkit जैसी सेवाएं 10 मिनट में सामान घर पहुंचाती हैं, इंस्टाग्राम हर पल के अपडेट देता है, और व्हाट्सएप की नीली टिक ने प्रतीक्षा को असहज बना दिया है। जो चाहिए, वही चाहिए और अभी चाहिए — यह मानसिकता गहराती जा रही है।

हमारे समय में, दूरदर्शन के 'चित्रहार' और 'रंगोली' जैसे कार्यक्रमों को देखने के लिए लोग पूरे सप्ताह इंतजार करते थे। घरों में पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र आते थे जिनका इंतजार हफ्तों तक किया जाता था। किसी जानकारी के लिए हमें ChatGPT पर एक सेकेंड में उत्तर नहीं मिलता था, बल्कि पुस्तकालयों की धूल भरी आलमारियों को खंगालना पड़ता था। यह इंतजार ही उस ज्ञान, सुख और आनंद को चिरकालीन बना देता था — क्योंकि उस तक पहुँचने की यात्रा में धैर्य, परिश्रम और एक विशेष भावनात्मक जुड़ाव होता था।

रिसर्च बताते हैं कि मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक प्रयोग किशोरों और युवाओं में त्वरित संतुष्टि (instant gratification) की भावना को जन्म दे रहा है। 2023 में American Psychological Association ने एक रिपोर्ट में उल्लेख किया कि स्मार्टफोन पर बिताया गया अत्यधिक समय युवा मस्तिष्क में डोपामिन सेंसिटिविटी को प्रभावित कर रहा है, जिससे धैर्य और सहनशीलता में गिरावट आ रही है।

इसका प्रभाव केवल मानसिक स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना पर भी दिख रहा है। रिश्ते छोटे-छोटे विवादों में टूट जाते हैं, परिवार संवाद की बजाय स्क्रीन पर निर्भर होते जा रहे हैं। WHO की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में भारत में 15-29 आयु वर्ग के युवाओं में आत्महत्या मृत्यु का प्रमुख कारण बन गया। यह केवल मानसिक अवसाद का नहीं, बल्कि असमर्थ धैर्य का भी सूचक है।

शैक्षणिक क्षेत्र में भी इसका प्रभाव दिख रहा है। इस संदर्भ में वेब सीरीज़ Aspirants का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा, जिसमें 'धैर्य' नाम की एक महिला पात्र है। दिलचस्प बात यह है कि 'धैर्य' केवल एक नाम नहीं, बल्कि प्रतीक भी है – प्रतीक उस गुण का, जो किसी भी प्रतियोगी की सफलता की रीढ़ होता है। एक पात्र जो अंततः IAS बन जाता है, लेकिन वह अपने भीतर की अधीरता को कभी त्याग नहीं पाता। नतीजा यह होता है कि 'धैर्य' नाम वाला पात्र उससे अलग हो जाता है। यह रूपक हमें यह समझाने के लिए काफी है कि अगर चरित्र से धैर्य चला जाए, तो सफलता भी अधूरी और अस्थिर हो जाती है।

NEET और JEE जैसी परीक्षाओं में सफलता एक लंबी और चुनौतीपूर्ण यात्रा होती है, जिसमें वर्षों की मेहनत, निरंतरता और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। हाल के वर्षों में इन परीक्षाओं की तैयारी कर रहे कई छात्रों द्वारा आत्महत्या की खबरें हमें झकझोर देती हैं। 2023 में कोटा (राजस्थान) में अकेले 25 से अधिक छात्र आत्महत्या कर चुके थे। यह आँकड़ा केवल परीक्षा के दबाव का नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक सहारे की कमी और धैर्य की अनुपस्थिति का भी प्रमाण है। जैसे-जैसे प्रतियोगी परीक्षाएं कठिन होती जा रही हैं, वैसे-वैसे छात्रों का धैर्य भी टूटता जा रहा है। 

सवाल यह है – हम क्या खो रहे हैं?

हम वह धैर्य खो रहे हैं जो किसी विराट लक्ष्य की बुनियाद बनता है। हम वह इंतजार भूल रहे हैं जिसमें चरित्र निर्माण होता है। हम उस सहनशीलता को नजरअंदाज कर रहे हैं जिसने हमारे इतिहास को गौरवशाली बनाया है।

लेकिन अभी सब कुछ नहीं खोया है। नई पीढ़ी जिज्ञासु है, सीखने को तत्पर है और बदलाव के लिए तैयार है। ज़रूरत है कि हम उन्हें धैर्य की कीमत समझाएं – न केवल उपदेशों से, बल्कि उदाहरणों से। शिक्षा प्रणाली में माइंडफुलनेस और मेडिटेशन को शामिल करना, डिजिटल डिटॉक्स की संस्कृति को बढ़ावा देना और धीमी लेकिन स्थायी सफलता की कहानियों को मंच देना आज की आवश्यकता है। कोटा प्रशासन द्वारा 'हेलो कोटा' हेल्पलाइन, दिल्ली के स्कूलों में 'हैप्पीनेस करिकुलम' जैसी पहलें इस दिशा में सकारात्मक संकेत हैं।

अंत में, यह याद रखना ज़रूरी है कि हर सफलता के पीछे धैर्य की लंबी छाया होती है। शेर की तरह, जो हर दहाड़ से पहले घात लगाकर इंतजार करता है — हमारी जीत भी तभी मुखर होती है जब हमने उसे धैर्य के जंगल में खोजा हो।

अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ न केवल स्मार्ट हों, बल्कि स्थिर और सशक्त भी हों, तो हमें उन्हें धैर्य का महत्व सिखाना ही होगा – वरना Blinkit की तर्ज पर जीवन से भी "Delivery Failed" का संदेश आ सकता है। 

सावधान रहें, सजग बनें – लेकिन आशा मत छोड़ें।

धैर्य की यात्रा कठिन जरूर है, लेकिन अंततः वही सबसे स्थायी फल देती है।

जैसे संत कबीर ने कहा है:

"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।" फिल्म Shawshank redemption में रेड का चरित्र कहता है, Oh, Andy loved geology. I imagine it appealed to his meticulous nature. An ice age here, million years of mountain building there. Geology is the study of pressure and time. That's all it takes, really. Pressure, and time... इस संवाद में धैर्य की ही तो बात की गई है।


यह दोहा केवल खेत या फल की प्रतीक्षा नहीं, बल्कि जीवन की हर सफलता की प्रतीक्षा को दर्शाता है। जब हम समय, धैर्य और निरंतरता के साथ किसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, तभी उसका फल संपूर्णता और स्थायित्व के साथ प्राप्त होता है।