एक गांव में आम का एक बड़ा सा बागीचा था। उस आम के बागीचे में एक बूढ़ा सा चौकीदार बैठा रहता। अपने मचान पर बैठ कर बीड़ी फूंकता रहता और अपना समय काटता रहता। पिछले कुछ दिनों से वो देखता कि एक लड़की सुबह सुबह आती और दिन भर सूखे पत्ते बुहार कर जमा करती और शाम में गट्ठर बनाकर ले जाती। अगली दिन फिर आती और दिन भर मेहनत कर पत्ते बुहार कर ले जाती। एक दिन बूढ़े चौकीदार ने पूछा कि बेटी तुम यह सूखे पत्ते बुहार कर ले जाती हो, क्या घर में जलावन नहीं है और तुम अपनी मां की मदद करना चाहती हो। लड़की ने कहा कि बाबा मेरे घर में जलावन की कमी तो नहीं है , वो मां ले आती है, लेकिन मैं पढ़ना चाहती हूं। मैं पढ़कर अपने मां बाप का नाम रोशन करना चाहती हूं, लेकिन मेरे पास लालटेन नहीं है। इसीलिए मैं पत्ते बुहार कर ले जाती हूं, ताकि रात में इनको जला कर इनकी रोशनी में पढ़ सकूं। बूढ़े बाबा को लड़की पर बहुत दया आई, उसने अपने जेब से जितने पैसे थे निकाले और लड़की के हाथ में दे दिए। कहा बेटी, आज तुम अपने लिए एक लालटेन खरीद लेना। लड़की की आंखों में आंसू आ गए, उसने बाबा का धन्यवाद किया और एक लालटेन ख़रीदा। उसी लालटेन की रोशनी में पढ़कर वो एक बहुत बड़ी अधिकारी बनी।
उपर जैसी कहानी आपने पढ़ी वैसी ढेरों कहानियां आपने सुनी होगी। ऐसी कहानियां प्रेरणादायक कहानियां कहलाती हैं और लोगों को बार बार दोहराई जाती हैं। लेकिन कहानियों का क्या है, कि कितनी सच है कितनी झूठ पता नहीं चलता। उपर वाली कहानी को ही लीजिए। आप कितना भी दिल में चाहें कि कहानी का अंत वैसे ही हो जैसा कि बताया गया है लेकिन सच्चाई उससे अलग है। कहानी का अंत कुछ इस प्रकार का है। बूढ़े बाबा ने लड़की को पैसे नहीं दिए, सिर्फ यह पूछा कि बेटा अगर तुम्हारे पास लालटेन नहीं है तो तुम दिन भर पत्ते बुहारने के बजाय दिन में ही क्यों नहीं पढ़ लेती जब रोशनी रहती है। रात में ही पत्ते जलाकर पढ़ना जरूरी है क्या? यह सुन कर ही लड़की के
सारे नाटक की पोल खुल गई और वो उल्टे पांव भाग गई।
बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जो अपने विक्टिम कार्ड को दिखाने के लिए कॉमन सेंस तक से समझौता कर डालते हैं। उनको अपनी कहानी में लाल बहादुर शास्त्री के नदी तैर कर स्कूल जाने और सड़क की रोशनी में पढ़कर प्रधानमंत्री बनने जैसा एक नाटकीय पक्ष डालना होता है । अपनी मेहनत और रणनीति की जगह वो इन चीजों पर ज्यादा ध्यान देते हैं ताकि उनकी बेचारी वाली छवि बन सके। दुर्भाग्य से ऐसी चीजों से आपको थोड़ी वाहवाही, थोड़ी दया और थोड़ी सहानुभूति भले मिल जाए, सफलता दूर ही रहती है। हाल में ही सासाराम स्टेशन की एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें कई युवक स्टेशन पर बैठकर पढ़ाई कर रहे थे, कारण बताया गया कि गांव में बिजली नहीं रहती इसीलिए वो स्टेशन पर आकर पढ़ते हैं। सच मानिए तो मुझे उन लड़कों का पक्ष पत्ते बुहारने वाली लड़की से ज्यादा सबल नहीं लगा। दिन भर पढ़ने के बाद में अगर उनको रोशनी ही चाहिए तो उनके पास स्टेशन के अलावा भी बहुत विकल्प होंगे। साथी का घर हो सकता है, पंचायत भवन हो सकता है जहां पर स्टेशन से कहीं ज्यादा शांति होगी और कम से कम वहां पर वो एक टेबल तो लगा ही सकते हैं। स्टेशन की भीड़ भाड़, आने जाने वाली गाड़ियों के शोर से भरे स्टेशन एक शांत चित्त होकर पढ़ने वाले विद्यार्थी की पहली पसंद नहीं हो सकते।
जहां तक मैने सुना है यह वायरल तस्वीर वाली बात अब शायद नहीं होती लेकिन अगर यह आज भी जारी है तो मेरी उन छात्रों से विनती है कि पढ़ने के लिए कोई और जगह तलाशें। अगर बिजली नहीं है तो अपने मोबाइल को बेचकर एक चाइनीज लाइट खरीद लें जो दिन में चार्ज हो जाए और रात में आपको घर पर ही रोशनी दे। सौ रुपए में ऐसे लैंप मिल जाते हैं जो एक बार चार्ज हो जाए तो आठ दस घंटे चलते हैं। अगर आपके पास सौ रुपए नहीं हैं तो आप किसी भी भले आदमी से उधार ले लें। मेरा मानना है कि समाज में आज भी ऐसे बहुतेरे हैं जो सहर्ष आपकी मदद करेंगे। वैसे आजकल बिहार में बिजली की हालत इतनी भी बुरी नहीं जितनी लोग सोचते हैं।
सूखे पत्ते बुहारकर पढ़ने वाली बेवकूफाना हरकत बंद करें और स्टेशन खाली कर दें। यह आपके लिए भी अच्छा होगा और आने जाने वाले यात्रियों के लिए भी। यह विक्टिम कार्ड और ऐसी कहानियां इंडियन आइडल वाले प्रतिभागियों के लिए छोड़ दें, यह उधर ही चलेंगी । आपकी वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं पर उसका कोई असर नहीं होगा।
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