Saturday, October 9, 2021

संतुलन की खोज

पुरानी फिल्मों में एक सीन हुआ करता था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर जीरो वॉट वाला लाल बल्ब जलता रहता था और उसके आस पास एक परिवार के घबराए लोग बैठे रहते थे। डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर से बाहर निकलता और भारी आवाज में बोलता, मरीज की हालत बहुत नाज़ुक है। हम बच्चे और मां दोनो में किसी एक को ही बचा सकते हैं। आप फैसला करिए। हीरो कहता मां को बचा लो, वो मेरा प्यार है। हीरोइन कहती, बच्चे को बचा लो वो मेरे कुल का चिराग है। बुढ़िया दादी कहती हे भगवान उनकी जान के बदले मेरे बच्चे और बहू की जान बक्श दे। बड़ा जबरदस्त सीन हुआ करता था, लोगों के आंखों से आंसू निकल आते थे। अगर बच्चा बच गया तो बिना मां के बड़ा होता था और हीरो बनता था। अगर मां बच गई तो पागल हो जाती थी जो पूरे फिल्म कपड़े की एक गुड़िया बना के चंदा है तू मेरा सूरज है तू, गाती रहती थी। 

भले ही ऊपरवाले सीन और कथानक से बहुत सारी फिल्में हिट हुई हों, लेकिन वास्तविकता से इसका कोई लेना देना नहीं है। ऐसी कोई बीमारी मेडिकल साइंस आज तक नहीं खोज पाया है, जहां डॉक्टर को आकर भारी आवाज में हम किसी एक को ही बचा सकते हैं वाला डायलॉग मारना पड़े। और अगर कोई ऐसा डायलॉग मारने वाला डाक्टर मिल जाय तो समझ लीजिए कि डाक्टर साब ने पढ़ाई या तो ढंग से नहीं की या बेटे और मां में किसी एक तो वो ऊपर पहुंचा चुके हैं और अपनी गलती छुपाने के लिए भूमिका बांध रहे हैं।

ऐसा ही कुछ हमारे जीवन में भी होता है। अपना स्वास्थ्य, अपना करियर, अपना परिवार और अपनी मन की शांति , अगर इनमें से किसी की भी बलि चढ़ाकर आप बाकी सब या सबकी बलि चढ़ाकर आप किसी एक को बचा रहे हैं जो आप भी पुरानी फिल्मों वाले बुरे डाक्टर जैसे हैं जो मां को मारकर बच्चे को और बच्चे को मारकर मां को बचाने का काम करता था। इन अच्छा डॉक्टर मां और बच्चे दोनो को बचाता है क्योंकि अगर किसी एक को बचाया तो या तो आपको एक अनाथ बच्चा मिलता है या बच्चे को खो चुकी टूटी मां। दोनो ही स्थिति सही नहीं है। उसी प्रकार स्वास्थ्य की बलि चढ़ाकर बने करियर, मन की शांति गंवा कर मिले परिवार, और करियर की बलि चढ़ा कर मिले शांति का मान अधूरा है। 

संतुलित आहार की तरह संतुलित जीवन भी कई चीजों से मिलकर बना है। उसी संतुलन की खोज ही जीवन है, उसी संघर्ष में आनंद है और वही जीवन का ध्येय होना चाहिए। बाकी मरना तो एक दिन है ही।

Tuesday, October 5, 2021

लाल बहादुर बनने की जगह पढ़ाई पर ध्यान दें

एक गांव में आम का एक बड़ा सा बागीचा था। उस आम के बागीचे में एक बूढ़ा सा चौकीदार बैठा रहता। अपने मचान पर बैठ कर बीड़ी फूंकता रहता और अपना समय काटता रहता। पिछले कुछ दिनों से वो देखता कि एक लड़की सुबह सुबह आती और दिन भर सूखे पत्ते बुहार कर जमा करती और शाम में गट्ठर बनाकर ले जाती। अगली दिन फिर आती और दिन भर मेहनत कर पत्ते बुहार कर ले जाती। एक दिन बूढ़े चौकीदार ने पूछा कि बेटी तुम यह सूखे पत्ते बुहार कर ले जाती हो, क्या घर में जलावन नहीं है और तुम अपनी मां की मदद करना चाहती हो। लड़की ने कहा कि बाबा मेरे घर में जलावन की कमी तो नहीं है , वो मां ले आती है, लेकिन मैं पढ़ना चाहती हूं। मैं पढ़कर अपने मां बाप का नाम रोशन करना चाहती हूं, लेकिन मेरे पास लालटेन नहीं है। इसीलिए मैं पत्ते बुहार कर ले जाती हूं, ताकि रात में इनको जला कर इनकी रोशनी में पढ़ सकूं। बूढ़े बाबा को लड़की पर बहुत दया आई, उसने अपने जेब से जितने पैसे थे निकाले और लड़की के हाथ में दे दिए। कहा बेटी, आज तुम अपने लिए एक लालटेन खरीद लेना। लड़की की आंखों में आंसू आ गए, उसने बाबा का धन्यवाद किया और एक लालटेन ख़रीदा। उसी लालटेन की रोशनी में पढ़कर वो एक बहुत बड़ी अधिकारी बनी। 

उपर जैसी कहानी आपने पढ़ी वैसी ढेरों कहानियां आपने सुनी होगी। ऐसी कहानियां प्रेरणादायक कहानियां कहलाती हैं और लोगों को बार बार दोहराई जाती हैं। लेकिन कहानियों का क्या है, कि कितनी सच है कितनी झूठ पता नहीं चलता। उपर वाली कहानी को ही लीजिए। आप कितना भी दिल में चाहें कि कहानी का अंत वैसे ही हो जैसा कि बताया गया है लेकिन सच्चाई उससे अलग है। कहानी का अंत कुछ इस प्रकार का है। बूढ़े बाबा ने लड़की को पैसे नहीं दिए, सिर्फ यह पूछा कि बेटा अगर तुम्हारे पास लालटेन नहीं है तो तुम दिन भर पत्ते बुहारने के बजाय दिन में ही क्यों नहीं पढ़ लेती जब रोशनी रहती है। रात में ही पत्ते जलाकर पढ़ना जरूरी है क्या? यह सुन कर ही लड़की के
 सारे नाटक की पोल खुल गई और वो उल्टे पांव भाग गई।

बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जो अपने विक्टिम कार्ड को दिखाने के लिए कॉमन सेंस तक से समझौता कर डालते हैं। उनको अपनी कहानी में लाल बहादुर शास्त्री के नदी तैर कर स्कूल जाने और सड़क की रोशनी में पढ़कर प्रधानमंत्री बनने जैसा एक नाटकीय पक्ष डालना होता है । अपनी मेहनत और रणनीति की जगह वो इन चीजों पर ज्यादा ध्यान देते हैं ताकि उनकी बेचारी वाली छवि बन सके। दुर्भाग्य से ऐसी चीजों से आपको थोड़ी वाहवाही, थोड़ी दया और थोड़ी सहानुभूति भले मिल जाए, सफलता दूर ही रहती है। हाल में ही सासाराम स्टेशन की एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें कई युवक स्टेशन पर बैठकर पढ़ाई कर रहे थे, कारण बताया गया कि गांव में बिजली नहीं रहती इसीलिए वो स्टेशन पर आकर पढ़ते हैं। सच मानिए तो मुझे उन लड़कों का पक्ष पत्ते बुहारने वाली लड़की से ज्यादा सबल नहीं लगा। दिन भर पढ़ने के बाद में अगर उनको रोशनी ही चाहिए तो उनके पास स्टेशन के अलावा भी बहुत विकल्प होंगे। साथी का घर हो सकता है, पंचायत भवन हो सकता है जहां पर स्टेशन से कहीं ज्यादा शांति होगी और कम से कम वहां पर वो एक टेबल तो लगा ही सकते हैं। स्टेशन की भीड़ भाड़, आने जाने वाली गाड़ियों के शोर से भरे स्टेशन एक शांत चित्त होकर पढ़ने वाले विद्यार्थी की पहली पसंद नहीं हो सकते।

जहां तक मैने सुना है यह वायरल तस्वीर वाली बात अब शायद नहीं होती लेकिन अगर यह आज भी जारी है तो मेरी उन छात्रों से विनती है कि पढ़ने के लिए कोई और जगह तलाशें। अगर बिजली नहीं है तो अपने मोबाइल को बेचकर एक चाइनीज लाइट खरीद लें जो दिन में चार्ज हो जाए और रात में आपको घर पर ही रोशनी दे। सौ रुपए में ऐसे लैंप मिल जाते हैं जो एक बार चार्ज हो जाए तो आठ दस घंटे चलते हैं। अगर आपके पास सौ रुपए नहीं हैं तो आप किसी भी भले आदमी से उधार ले लें। मेरा मानना है कि समाज में आज भी ऐसे बहुतेरे हैं जो सहर्ष आपकी मदद करेंगे। वैसे आजकल बिहार में बिजली की हालत इतनी भी बुरी नहीं जितनी लोग सोचते हैं। 

सूखे पत्ते बुहारकर पढ़ने वाली बेवकूफाना हरकत बंद करें और स्टेशन खाली कर दें। यह आपके लिए भी अच्छा होगा और आने जाने वाले यात्रियों के लिए भी। यह विक्टिम कार्ड और ऐसी कहानियां इंडियन आइडल वाले प्रतिभागियों के लिए छोड़ दें, यह उधर ही चलेंगी । आपकी वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं पर उसका कोई असर नहीं होगा।

Saturday, October 2, 2021

बड़े अच्छे लगते हैं।

कांग्रेस के बड़े नेता कन्हैया कुमार, जिन्होंने 2019 के बड़े चुनाव के समय बड़े गाजे बाजे वाले चुनाव प्रचार के बावजूद बड़ी हार हासिल की थी, ने कहा है कि कांग्रेस एक बड़ा जहाज है जिसे बचाने का बड़ा काम करने के लिए वो आ गए हैं। कांग्रेस के रणनीतिकार इसे एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक मान रहे हैं क्योंकि जेएनयू में कश्मीर के बड़े मानवतावादी नेता अफजल गुरु की बरसी पर बड़ा कार्यक्रम आयोजित करके बड़ा नाम कमाने वाले कन्हैया कुमार की बड़ी लोकप्रियता से कांग्रेस को बड़ा फायदा होगा। कन्हैया इससे पहले जेएनयू कैंपस की सबसे बड़ी पार्टी सीपीआई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं तो इसका बड़ा फायदा पार्टी को होता दिख रहा है। बड़ी बात यह है कि कांग्रेस को बचाने का बड़ा काम करने के लिए कन्हैया अकेले बड़े चेहरेरे नहीं हैं, उनके साथ जिग्नेश मेवानी जैसा बड़ा चेहरा भी है। वास्तव में यह सब कांग्रेस में अध्यक्ष और वर्किंग कमिटी से भी बड़ा ओहदा रखने वाले कांग्रेस की सबसे बड़ी आशा राहुल जी बड़ी राष्ट्रीय स्ट्रेटजी का एक हिस्सा है। इसी के तहत छुटभैये नेताओं जैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है और बड़ी शेरोशायरी करने वाले सिद्धू जी को बड़ी जिम्मेदारी दी गई थी। यह अलग बात है सिद्धू जी को बड़ी से बड़ी सबसेे बड़ी वाली  जिम्मेदारी चाहिए थी, इसीलिए उन्होंने छोटी वाली बड़ी जिम्मेदारी के पद से इस्तीफा दे दिया है और बड़ा हंगामा कर दिया है। इतना बड़ा काम करने के बाद भी राहुल जी ने अपनी एक बार भी तारीफ नहीं की क्योंकि बड़े बड़ाई ना करें, बड़े ना बोलें बोल। 
वैसे चिंता को कोई बात नहीं है क्योंकि बड़ी बड़ी पार्टियों में ऐसी बड़ी बड़ी बातें होती रहती है। यह बड़ी रणनीति का ही कमाल है कि न्यूज कवरेज में यूपी जैसे बड़े राज्य को पछाड़ कर पंजाब ने अपना बड़ा नाम किया है । लगता है ऐसी बड़ी खबर राजस्थान से भी आने वाली है जहां बड़े मुख्यमंत्री और छोटे मुख्यमंत्री के बीच बड़ी जंग बड़े समय से हो ही रही है। और आगे क्या लिखूं? जितना मैं समझ पाया लिख दिया, आगे कुछ कहूंगा तो आप ही कहोगे कि छोटा मुंह बड़ी बात। जाते जाते बड़े दिन की शुभकामनाएं एडवांस में क्योंकि दुर्गापूजा पर कोरोना के कारण बैन है, दिवाली पर पॉल्यूशन के वजह से बैन है, छठ पर तो  वैसे भी भीड़ और नदी पॉल्यूशन के कारण बैन है। 

चरखा और आज़ादी

आज़ादी की लड़ाई में चरखा का क्या महत्व था? बंदूक से आज़ादी दुनिया में कई देशों ने पाई, लेकिन गांधी जी के दिमाग में यह चरखा कहां से आया। क्या चरखा सिर्फ इस चीज का प्रतीक था कि भारतीयों की निर्भरता इंग्लैंड के मिलों में बने विदेशी कपड़ों पर कम हो? क्या चरखा का महत्व सिर्फ आर्थिक रूप से था या इसके कुछ और मायने भी थे? चरखा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक चिह्न कैसे बना? क्यों गांधीजी ने चरखे पर इतना बल दिया?

वर्ष 1920, अगस्त माह। कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व में अपना पहला राष्ट्रीय आंदोलन असहयोग आंदोलन शुरू करने के लिए जा रही थी।रंगमंच पर खेले जा रहे किसी नाटकीयता पूर्ण दृश्य की तरह एक अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया। 1 अगस्त 1920 वो तारीख थी जब देश गांधी जी के नेतृत्व में अपने पहले राष्ट्रीय आंदोलन असहयोग आंदोलन की औपचारिक शुरुआत करने वाला था। गांधी जी के देश लौटे करीब पांच साल हो गए थे और कांग्रेस की संस्था पर उनका प्रभाव सबसे ज्यादा हो चुका था। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना को तीन दशक से ज्यादा हो चुका था, लेकिन कांग्रेस का प्रभाव अब भी शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग तक ही सीमित था। यद्यपि स्थापना से गांधी युग की शुरुआत तक कांग्रेस को दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्र नाथ बनर्जी, तिलक, एनी बेसेंट जैसे नेताओं का नेतृत्व मिला था लेकिन कांग्रेस अब तक कोई जन आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ ही रही थी। गांधी जी के आने से पहले तक नरमपंथ का चरण 1907 तक समाप्त हो चुका था। अंदरूनी कलह के कारण सूरत अधिवेशन में कांग्रेस विभाजित होकर एक निष्प्राय संस्था बन चुकी थी। गरमपंथ के प्रमुख नेता तिलक काला पानी की सजा काटने के लिए अंडमान भेजा जा चुके थे। बीच में क्रांतिकारी आंदोलन जैसे लाला हरदयाल की गदर पार्टी भी अपने भरपूर प्रयासों के बावजूद सफल ना हो सके थे। 
इस प्रकार गांधी जी ने जब स्वाधीनता आंदोलन की बागडोर संभाली, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन नरमपंथ, गरमपन्थ और क्रांतिकारी तीनों प्रकार के प्रयोग करके असफल हो चुका था। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से लौट कर पूरे भारत का भ्रमण किया और भारत की तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन किया। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की असफलता का कारण उन्हें जल्द ही समझ आ गया। 

1920 से पहले जो आंदोलन चल रहा था, उसमें किसान शामिल नहीं थे, मजदूर शामिल नहीं थे, कांग्रेस उनका प्रतिनिधित्व ही नहीं कर रही थी। मुस्लिम लीग का गठन हो चुका था जो मुसलमानों का प्रतिनिधत्व करने का दावा कर रही थी। मतलब कांग्रेस एक किसान विहीन, श्रमिक विहीन, और कतिपय मुस्लिम समाज से रहित अपना आंदोलन चला रही थी। सन 1917 में गांधी जी चंपारण जाकर किसानों को तथा जल्द ही अहमदाबाद में मिल मजदूरों के संघर्ष को अपना साथ देकर किसानों और मजदूरों को जन आंदोलन में जोड़ने का प्रयास कर चुके थे। खिलाफत को साथ लेकर वो मुस्लिमों को भी राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाना चाहते थे। 

लेकिन भारत का एक वर्ग था जो इन सब से बड़ा था और कांग्रेस की पहुंच से अब भी सबसे दूर था।  इस वर्ग को आंदोलन से जोड़ना सबसे कठिन भी था। क्योंकि इस वर्ग के लिए परदा और घर की चहारदीवारी को पार करना ही कठिन था तो सड़कों में आकर आंदोलनों में हिस्सा लेने के बात तो असंभव ही थी। गांधी जी के मन में यह स्पष्ट था कि समाज के हर वर्ग, खास कर इस वर्ग का सहयोग मिले बिना स्वाधीनता का कोई भी स्वप्न एक दिवास्वप्न ही था।  यह वर्ग था महिलाओं का। और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि कैसे महिलाओं को आंदोलन का हिस्सा बनाया जाय।

महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने का पहला प्रयास हुआ तिलक स्वराज फंड से रूप में। लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद उनके नाम पर तिलक स्वराज फंड की स्थापना हुई। गांधी जी ने देश की महिलाओं से आग्रह किया कि राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोग करने के लिए वो आर्थिक दान तिलक स्वराज फंड में दें। पूरे देश से महिलाओं ने अपने गहने और मंगल सूत्र तक दान देकर एक करोड़ रुपए की राशि फंड में तय समय से पहले ही जमा कर ली। इसके बाद महिलाओं ने अपने आप को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हुआ महसूस किया। उनको यह विश्वास दिलाने के लिए 
कि स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए महिलाओं का घर से निकालना आवश्यक नहीं बल्कि  बैठे ही वे राष्ट्र सेवा कर सकती हैं। इस काम में चरखे ने बड़ी भूमिका निभाई। महिलाएं घर पर बैठ ही चरखे के माध्यम से अपना सहयोग आंदोलन को देने में सफल हुई। तिलक स्वराज फंड का एक बड़ा हिस्सा पूरे देश में चरखा वितरण के लिए प्रयोग हुआ और इसी चरखे के कारण देश के आधे हिस्से का राष्ट्रीय यज्ञ में सम्मिलित होना संभव हुआ।
चरखा महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बना, स्वाधीनता आंदोलन के व्यापकीकरण का जरिया बना, महिलाओं के आत्मविश्वास का साधन बना और इंग्लैंड की कपड़ा मिलों पर देश की नारे शक्ति का सबसे शक्तिशाली वार साबित हुआ। चरखा और उससे निकलने वाले कच्चे सूत के धागों ने देश को उस एकता सूत्र में बांधा जिसने गुलामी की मजबूत बेड़ियों तक को तोड़ने में मदद की।

गांधी जी के विचारों को गहराई से समझने के बाद ही लोग यह समझ पाते हैं कि चरखा विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य के खिलाफ सबसे शक्तिशाली हथियार कैसे बना।

गांधी जयंती की शुभकामनाएं और बापू को कृतज्ञ राष्ट्र का नमन।