What I think? I will let you know here.. Listen to the voices from my heart
Tuesday, July 20, 2021
àapne ji ghabrana nahin hai..
my guilty pleasure movies
Thursday, July 1, 2021
ढिशुम ढिशुम या अंतर्द्वंद्व
कुत्ते! , मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगा।नायक रुपहले परदे पर चिल्लाता है। दर्शक दीर्घा में बैठी भीड़ रोमांचित हो उठती है। पटकथा में नायक अपने अवास्तविक शौर्य और अतुलनीय शारीरिक बल का प्रदर्शन कर खलनायक का अंत कर देता है और कथा का सुखांत अंत होता है। सुखांत अंत से अर्थ है कि नायक नायिका विवाह बंधन में बंध जाते हैं। और दर्शक प्रसन्नचित अपने घरों को लौट आते हैं।
परदे पर दिखाया गया ऐसा कथानक सामान्यतः सुलभ है लेकिन वास्तविक जीवन में यह सुलभ नहीं है। वास्तविक जीवन में नायक और खलनायक के बीच की रेखा इतनी सुस्पष्ट नहीं होती। नायक और खलनायक अलग अलग चरित्र नहीं होते, बल्कि एक ही व्यक्ति के चरित्र के दो पहलू होते हैं। हां किसी में नायकत्व का तत्व ज्यादा हो सकता है, कहीं खल तत्व हावी हो सकता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि किसी चरित्र में नायकत्व बिल्कुल ही गायब हो गया हो।
'कुत्ते! मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगा' जैसी वैचारिक सुस्पष्टता भी वास्तविक जीवन में नहीं दिखती। वास्तविक जीवन में नायक हो या खल पात्र , एक दुविधा, संशा और द्वंद्व से ग्रसित रहता है। क्या खलनायक को कुत्ता कहना उचित है? क्या मुझे उसको दंड देने का मौलिक और नैतिक अधिकार प्राप्त है? खून पीने की धमकी देना क्या आज के आधुनिक युगीन संदर्भों में उचित है? क्या खलनायक का अपराध इतना गंभीर है कि उसको इतना कठोर दण्ड दिया जाए। यह ऐसे कुछ प्रश्न हैं जो दुविधा और द्वंद्व की स्थिति में वास्तविक जीवन का हर पात्र किसी न किसी हद तक जरूर जूझता है।
वास्तविक जीवन में जब चरित्र अच्छे या बुरे नहीं, बल्कि अच्छे और बुरे होते हैं, तो वास्तविक साहित्य में भी अच्छे और बुरे के बीच में एक सुस्पष्ट रेखा खींचना असंभव ही है। इसकी एक झलक देखने को मिली सत्यजीत रे की लघु कथाओं पर आधारित वेब सीरीज की चार कहानियों में। हर कहानी में हर मुख्य पात्र खल-नायक शब्द के बीच वाली डैश पर खड़ा दिखता है। हंगामा है क्यों बरपा वाली कहानी में मुसाफिर अली और जेंगा पहलवान दोनो सफेद और काले चरित्र की जगह ग्रे चरित्र के हैं। बहुरूपिया में इंद्रो भी उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों श्रेणी में शामिल है। इप्सीत नायर और मैगी दोनो अपनी जगह सही लगते हैं और दोनो के पापों का थैला भी एक समान भारी है। ऐसा ही कुछ वासन बाला की कहानी स्पॉटलाइट में है। एक कहानी में चरित्रों का मानसिक द्वंद्व अपने चरम पर है। विक अरोड़ा और दीदी एक दूसरे से सर्वथा अलग अलग दिखने के बावजूद अंत में एक तादात्म्य में दिखते हैं।
साहित्य अगर समाज का दर्पण है और वास्तविक साहित्य कहलाने का अधिकार भी उसी को है जहां वास्तविक जीवन की दुविधा परिलक्षित होती है ना कि कुत्ते और खून जैसे संवाद होते हैं। यही कारण है कि सत्यजीत रे सार्वकालिक महानों में गिने जाते हैं। वास्तविक जीवन पर आधारित कहानियों और वास्तविक चरित्रों पर आधारित नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज रे मिर्जापुर वाली भीड़ से एक अलग सुकून देती है। बाहरी ढिशुम ढिशुम का अंतर्द्वंद्व से कोई मुकाबला नहीं। हां यह अलग बात है कि आप ढिशुम ढिशुम को ही बेहतर बताने की जिद पर अड़े रहते हैं या रूह-सफा के हमाम में आकर वास्तविकता से रूबरू होने का माद्दा रखते हैं।