गणित उनके लिए हमेशा गौरीशंकर की चोटी थी। उसपर कभी चढ़ ना सके। जैसे तैसे दूसरे दर्जे में मैट्रिक पास किया। आगे की पढ़ाई के लिए वजीफा ना मिल सका और अपने पैसे खर्च कर हिन्दू कॉलेज में दाखिला लेना संभव ना था।
आगे 1905 में ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ाने की डिग्री ली तो भी डिग्री पर लिख दिया गया not qualified to teach mathematics. पैरवी के आधार पर ही शिक्षक और बाद में निरीक्षक बने। लेकिन स्थानांतरण के लिए दिए गए आवेदन की सजा के रूप में बस्ती जिले में भेज दिए गए। स्वास्थ्य खराब रहने लगा तो बस्ती में ही सहायक शिक्षक बने।
प्रेस खोला तो वहां भी प्रेस के रूप में सुरसा ही मिली। अपना सर्वस्व झोंक देने के बाद भी प्रेस उनका खून पीकर ही चलती रही। फिल्मी दुनिया में किस्मत आजमा यी लेकिन वहां भी टिक ना सके।
अनाकर्षक सा व्यक्तित्व था। एक पत्रमित्र उनसे पहली मुलाकात का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं। जीने के ऊपर झांकने पर जो कुछ ऊपर दिखा उससे मुझे धक्का सा लगा। इतनी दूर से इतनी आशा बांध कर क्या इन्हीं मूर्ति के दर्शन करने आया हूं । एक बार तो जी में आया कि मन में बसी रमणीक छवि को बनाएं रखूं और यहीं से लौट जाऊं। यह सामने खड़ा व्यक्ति साधारण, इतना स्वल्प इतना देहाती मालूम हुआ कि...
आर्थिक रूप से हमेशा विपन्न यह सरस्वती पुत्र फिर भी कुछ ऐसा लिख गया कि कहते हैं यदि 1910 से लेकर 1936 का इतिहास यदि विलुप्त हो जाय तो इनके साहित्य को पढ़कर पूरी तरह समझा जा सकता है। मैं बात कर रहा हूं कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की। और ऊपर उल्लेखित उनके पत्र मित्र हैं कथाकार जैनेन्द्र। जैनेन्द्र उनके चिर सखा बने रहे। अपनी मृत्यु शैय्या पर अपनी आखिरी रात को जब लोग प्रेमचंद से भगवान को याद करने को कहते हैं, तो प्रेमचंद कहते हैं " जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय याद करते हैं ईश्वर, मुझे भी याद दिलाई जाती है, पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने के जरूरत नहीं मालूम नहीं हुई है।" अभाव और कष्ट को जीवन भर झेलता एक मनुष्य इतना आत्मबल रख सकता है, विश्वास के परे है।
उनके साहित्य पर टिप्पणी करने के योग्य अपने आप को नहीं पाता। उनका साहित्य पूरी तरह पढ़ लूं, समझ लूं इसके लिए भी शायद यह जीवन कम पड़े। उसके बाद भी शायद आलोचना ना कर सकूं। भाव विभोर हृदय और चमत्कृत मस्तिष्क आलोचक के गुण नहीं हो सकते। इसलिए उस चीज से परहेज़ ही करता हूं।
1936 में अपने आखिरी भाषण में प्रेमचंद कहते हैं " जिन्हें धन वैभव प्यारा है, साहित्य मंदिर में उनका स्थान नहीं है। यहां उन उपासकों की जरूरत है जिन्होंने सेवा को ही अपना जीवन की सार्थकता मान लिया हो। हम तो समाज का झंडा लेकर चलने वाले सिपाही हैं।
कलम के सिपाही युगपुरुष प्रेमचंद को उनके जन्मदिवस पर कोटिश अभिनंदन।
उनकी लेखनी का छोटा सा नमूना कहानी "बूढ़ी काकी" से, श्रद्धा सुमन के रूप में।
"बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।"