Tuesday, October 16, 2018

नाम में क्या रखा है??

बारहवी शताब्दी अपने अंतिम दशक में थी। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के छह शताब्दियों के बाद भी उनके द्वारा जलाई गई ज्ञान ज्योत नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में अपनी ख्याति के चर्मोत्कर्ष पर था। ज्ञान का यह प्रकाश स्तंभ पूरे विश्व के छात्रों को गणित, विज्ञान, चिकित्सा , संगीत और दर्शन जैसे विषयों पर शोध और अध्ययन का अवसर प्रदान कर रहा था। उधर सुदूर दिल्ली में दिल्ली सल्तनत की शुरुआत हो चुकी थी और इस्लाम का प्रसार करने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक का एक सिपहसालार बख्तियार बिन खिलजी गंगा के मैदानों में पूर्व का रुख कर चुका था। मध्य एशिया का खिलजी भले ही शारीरिक रूप से अत्यंत सबल था, बदली जलवायु की परिस्थितियों के सामने मानव शरीर बहुधा निर्बल ही होता है। वर्तमान पटना शहर के पास से गुजरते वक़्त खिलजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। अब अस्वस्थ शरीर से काफिरों पर फतह का परचम क्या फहराया जाता। बख्तियार का काफिला पटना से कुछ दूर पर रुक गया। काफिले के साथ आये हकीमों की सारी दवा बेअसर साबित हुई। खिलजी उत्तरोत्तर कमजोर होता गया। मृत्यु के समीप आने पर मनुष्य बहुधा धर्मपरायण हो जाता है। ख़िलजी भी दिन रात कुरान का अध्ययन करने लगा। किसी ने कहा कि पास में ही नालंदा विश्वविद्यालय है जहां चिकित्सा विभाग के प्राध्यापक राहुल श्रीभद्र हैं। उनका चिकित्सा ज्ञान अप्रतिम है और उनसे सलाह ले लेनी चाहिये।


राहुल श्रीभद्र को संदेश भेजा गया कि खिलजी के प्राणों की रक्षा में उनसे ही आस बची है। श्रीभद्र संयोग से आस पास ही थे और खिलजी के शिविर में जा पहुंचे। एक चिकित्सक का कर्तव्य निभाने को अपना धर्म मानने वाले श्रीभद्र को सामने वाले का धर्म नहीं सिर्फ उसकी व्याधि ही दिखती थी। उसके उलट खिलजी को सामने एक चिकित्सक नहीं बौद्ध भिक्षु के वस्त्र पहने खड़ा एक काफ़िर दिख रहा था। एक काफ़िर को अपनी नब्ज दिखाने से इंकार करते हुए कहा खिलजी ने कहा कि मैं एक काफ़िर के हाथों से दवा नहीं ले सकता। अगर यह राहुल श्रीभद्र इतना ही बड़ा चिकित्सक है तो मुझे बिना छुए और मुझे बिना कोई दवा पिलाये मुझे स्वस्थ करके दिखाए। इतना कह कर  खिलजी अपने सामने रखे पाक क़ुरान के पन्नो को उलट पर उसे पढ़ने लगा।

ज्ञान अच्छी वस्तु है लेकिन ज्ञानी होने का अहसास कभी कभी गर्व के अज्ञान को जन्म दे देता है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान का प्रमुख होने का गर्व कदाचित श्रीभद्र के विवेक पर एक पर्दा डाल गया। वो यह नहीं देख पाए कि जो धर्मांध अपने धर्म को ही उत्तम मानता है और बाकी किसी मनुष्य को घृणा से देखता है वह एक आने वाली विपत्ति है। घृणा में सराबोर मनुष्य मानव कहलाने योग्य नहीं है और मानवता के सिद्धांत अधिकार सिर्फ मानवों के लिए हैं। अपने चिकित्सा ज्ञान को दी गई ललकार ने श्रीभद्र के गर्व पर चोट पहुंचाई।श्रीभद्र ने खिलजी के दिये हुए चुनौती को मन ही मन स्वीकार किया। मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले, महाशय जैसी आपकी इच्छा। मैं आपको स्पर्श नहीं करूंगा। लेकिन क्या मैं वो किताब देख सकता हूँ जो आप पढ़ रहे है। खिलजी ने कुरान ए पाक को श्रीभद्र की तरफ
बढ़ा दिया। श्रीभद्र के किताब अपने हाथ में ली और उसे कुछ देर उलट पुलट कर देखते रहे। फिर किताब वापस करते हुए बोले कि आप इस किताब को दिन में तीन बार पढ़ें। ईश्वर ने चाहा तो आप छह दिनों में स्वस्थ हो जाएंगे। यह कहकर श्रीभद्र खिलजी के शिविर से निकल नालन्दा के लिए चल पड़े और खिलजी कुरान के पन्ने वापस से पलट कर पढ़ने लगा।


दो तीन दिन बीते और खिलजी के स्वास्थ्य में चमत्कारिक रूप से सुधार आने लगा और जैसा कि श्रीभद्र ने कहा था छठवें दिन खिलजी पूर्णतः स्वस्थ हो गया। वह अपने जिहाद को आगे बढाने के लिए पूरी तरह तैयार लेकिन एक रहस्य को जानने बिना वह आगे नहीं जा सकता था। आखिर श्रीभद्र ने बिना उसे छुए वो कैसे कर दिखाया जो उसके हकीम न कर सके? ख़िलजी ने अपना एक दूत श्रीभद्र के पास भेजा कि खिलजी अपने ठीक होने का रहस्य जानना चाहता है। श्रीभद्र ने बताया कि उन्होंने देखा कि खिलजी कुरान के पन्नों को पलटने के लिये अपनी उंगली में थूक लगा कर पलटता है। इसीलिए मैंने कुरान के पन्नो के किनारों पर दवा का एक लेप लगा दिया और उन्हें कुरान नियमित पढ़ने के सलाह दी। पन्ने पलटने के दौरान दवा उंगलियो द्वारा खिलजी के शरीर में पहुंची और अपना असर दिखाया।

जिस तरह एक कन्या का सौंदर्य उसके पिता के हृदय में गर्व, उसके प्रेमी के हृदय में प्रेम और एक कामांध के हृदय में वासना का संचार करता है, ज्ञान का प्रदर्शन दूसरे ज्ञानी को जिज्ञासु और उपकृत बनाता है तो एक हठी मूर्ख को ईर्ष्या की अग्नि में जलाता है। खिलजी श्रीभद्र के चिकित्सा कौशल का चमत्कार देख उपकृत नहीं हुआ बल्कि क्रोध से उबल पड़ा। एक काफ़िर के पास वो ज्ञान कैसे हो सकता है जो उसके धर्म को मानने वालों के पास नहीं हो। उसने कहा कि इस ज्ञान के स्रोत को ही समाप्त करना होगा। श्रीभद्र की औषधि  से स्वस्थ हुआ धर्मांध खिलजी आयुर्वेद, बौद्धधर्म के ज्ञान के मूल नालंदा विश्वविद्यालय जा पहुंचा। उसने सभी आचार्यों, छात्रों को मारने का आदेश तो दिया ही, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी नब्बे लाख पुस्तकें और पांडुलिपि अग्नि के हवाले कर दी जाएं। बौद्ध साहित्य में वर्णन मिलता है कि नालंदा का पुस्तकालय तीन मास तक जलता रहा।

यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती अपितु आज भी जारी है। खिलजी का शूल अब भी बिहार की छाती पर गड़ा हुआ है। जहाँ पर ख़िलजी ने अस्वस्थ होकर अपना शिविर लगाया और जहाँ पर श्रीभद्र की दवा ने उसके प्राण बचाये, वो स्थान आज भी बख्तियारपुर के नाम से जाना जाता है। और  राहुल श्री भद्र ? उनका नाम तो नालंदा के पुस्तकालय की राख और हमारे अज्ञान की मोटी परत के नीचे कहीँ दबा पड़ा है। किसी सभ्यता का पतन तब नहीं होता जब कोई दूसरी सभ्यता उसे सामरिक युद्ध में पराजित करे, सभ्यता का पतन तब होता है जब किसी सभ्यता में अपनी संस्कृति पर गर्व होना समाप्त हो जाता है। मानसिक रूप से परास्त सभ्यता  अपने गौरवशाली इतिहास के सत्य के बदले तलवार के बल पर सिखाये गए असत्य को उचित ठहराती है। एक पराजित सभ्यता ही आक्रांताओं के अन्याय को अपनी नियति मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठती है और कदाचित अन्याय को न्यायपूर्ण भी ठहराने का प्रयास करती है। बख्तियारपुर नाम अपने आप में मानवता और हमारे स्वाभिमान के साथ भद्दा मजाक है। सत्यमेव जयते के सिद्धांत वाले देश में बख्तियारपुर नाम किसी भी तरीके से स्वीकार्य नहीं है। सहिष्णुता, गंगा जमुनी संस्कृति और साझी विरासत जैसे इत्र छिड़क कर आप बख्तियारपुर जैसे नामों की विष्ठा को ग्राहय नहीं बना सकते। देर से ही सही पर सही कार्य होना अवश्य चाहिये। बख़्तियारपुर का नाम श्रीभद्रपुर होना ही चाहिये। जय भारत।

Monday, October 1, 2018

जीवन में ज्ञान प्राप्ति।।

आपने कई बार पढ़ा होगा कि भगवान बुध्द को बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे बैठे ज्ञान प्राप्त हुआ। मैने भी पढ़ा है लेकिन यह नहीं समझ पाया कि वास्तव में आखिर क्या हुआ होगा। क्या कोई दैवीय चमत्कार हुआ कि गौतम को किसी ने सारा ज्ञान हस्तांतरित कर दिया। या जैसा धार्मिक धारावाहिकों में दिखाया जाता है कि एक प्रकाश पुंज मस्तक के आस पास  आ जाता है। जिस तरह धारावाहिक में दिखाया गया प्रकाश पुंज ज्ञान का एक  काल्पनिक चित्रण भर है जिसका वास्तविक घटित घटनाओं से शायद कोई संबंध नही है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होना भी कदाचित किसी और प्रक्रिया का साहित्यिक चित्रण भर है। वास्तव में यह प्रक्रिया कुछ और रही होगी जिसे लोग ज्ञान प्राप्त होना कहते हैं।

बैरिस्टर मोहनदास गांधी अपने मुवक्किल दादा अब्दुल्ला के मुकदमे की पैरवी के लिए रेल से डर्बन से प्रिटोरिया जा रहे थे। मोहनदास ने बैरिस्टरी की पढ़ाई लंदन में की और वहां पूरी तरह अँग्रेजों की तरह रहे। सूट बूट पहन कर काठियावाड़ का यह युवक अपने लंदन प्रवास के दौरान अंग्रेजी संस्कृति में घुलने का प्रयास करता रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो शायद सभ्य बनने की कोशिश करता रहा। यहां तक कि उसने पाश्चात्य नृत्य बॉल डांस को सीखने के लिए टयूशन तक ले ली थी। पढ़ाई पूरी कर मुम्बई में वकालत की पर कुछ खास चली नहीं। ऐसे ही एक दिन दादा अब्दुल्ला ने एक मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका बुला लिया तो युवा मोहन चल पड़ा नई संभावनाओं की तलाश में दक्षिण अफ्रीका। और बिल्कुल अंग्रेजों की तरह पहली श्रेणी का टिकट लेकर डर्बन से प्रिटोरिया जाने वाली रेल गाड़ी में बैठ गया।  फिर क्या हुआ?  रेल के टिकट निरीक्षक ने उसे बताया कि पहले श्रेणी में बैठने के लिए पहली श्रेणी का टिकट पर्याप्त नहीं है उसके लिए चमड़ी का रंग भी गोरा होंना चाहिये। जिन अंग्रेजों ने उसे बैरिस्टरी की पढ़ाई के दौरान न्याय, कानून और अधिकारों के बारे में सिखाया था वही अंग्रेज अब यह बता रहे थे कि न्याय और अधिकार की बातें सार्वभौमिक नहीं वरन चमड़े के रंग का एक फलन हैं। विनम्रता पूर्वक अनुनय और तर्क करना काम न आया और अंग्रेज़ी कपड़े पहने अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त और अंग्रेज़ बनने की सुप्त इच्छा रखने वाले मोहन दास को सामान सहित पेटरमारितज़्बेर्ग स्टेशन पर प्लेटफार्म पर फेंक दिया गया। मोहन दास ने अपना सामान उठाने की भी परवाह नही की और रात भर वहीं पड़े सोचते रहे। मोहन दास ने महात्मा बनने की ओर पहला कदम उसी स्टेशन पर उठाया।


मोहन दास को उस दिन क्या नया पता चला। क्या वो अंग्रेजी सरकार के दमन से पूरी तरह नावाक़िफ़ थे? संभव नहीं लगता। क्या उस रात  उन्होंने पहली बार रंगभेद देखा था? कदाचित नही। फिर क्या हुआ? हुआ सिर्फ यह कि मोहन दास को उस दिन उसका जीवन लक्ष्य मिल गया। उसने निर्णय लिया कि आगे का जीवन इस अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए बीतेगा। ऐसा ही कुछ गौतम के साथ हुआ होगा। जीवन, मृत्यु और वृद्धावस्था के रहस्य उनको पहले ही पता रहे होंगे। पर उस दिन बोधिवृक्ष के नीचे उन्होंने यह निर्णय लिया होगा कि शेष जीवन में क्या करना है। एक राजकुमार जो 29 साल तक की आयु तक भोगविलास में डूबा रहा , एक रात अपनी पत्नी और नवजात को छोड़ निकल जाता है। भूखे रह कर मरणासन्न हो जाता है, फिर एक दिन सुजाता की खीर खाकर मध्य मार्ग पर चलने का निर्णय लेता है। शायद जीवन लक्ष्य निर्धारित होने को ही ज्ञान प्राप्त कहा गया है। मुझे बुद्ध का नहीं पता पर अगर कहूँ कि उस रात ट्रैन से फेंके जाने पर मोहन दास को जरूर ज्ञान प्राप्त हुआ तो शायद अतिश्योक्ति न होगी।

अच्छी बात यह है कि ज्ञान प्राप्त होने और करने की कोई उम्र नहीं है। आपका इतिहास आपके भविष्य का द्योतक कतई नहीं है। अगर ऐसा होता तो एक भोगी युवराज भगवान बुद्ध ना बनता और न ही अंग्रेजी नृत्य सीखने का इच्छुक एक युवक पूरे अंग्रेजी साम्राज्य को नचा डालता। बस वह एक पल आने की देर है जब आपका जीवन चरित बदल जाता है। जब आपको ज्ञान प्राप्त होता है। सावधान और सतर्क रहें क्योंकि यह मोड़ किसी भी रूप में आ सकता है। विष्णुगुप्त चाणक्य को यह धनानंद के अपमान के रूप में मिला तो न्यूटन को सर पर गिरे एक सेव के रूप में। किसी के लिए सुजाता की खीर काम कर गयी तो किसी के लिए ट्रेन से फेंका जाना। सबको जीवन तो मिलता है जीवन लक्ष्य बिरले ही प्राप्त कर पाते हैं । ईश्वर से प्रार्थना करें कि आपको जीवन और जीवन लक्ष्य दोनो प्राप्त हों।

बापू के जन्मदिवस की शुभकामनाएं।।